उनकी रूचि अर्थ (धन) में हैं धर्म और आध्यात्म में नहीं


ठाकुर दयानन्द देव (१८८१-१९३७) ने कहा था, “मैं भौतिक जगत और अध्यात्मिक जगत के बीच सेतु बनाना चाहता हूँ”। उनका कहना था, “True welfare lies in harmony between the spiritual and the material. Spirituality without material well bring tends to decay and emasculation. Materialism, if it is not allied with the spiritual realization, if it is not aided and controlled by spiritual force will bring its own destruction.”
यह ऐसा विचार था जो मुझे अपनी ओर खींच लिया क्योंकि मेरी यही मान्यता थी और वह भी तब जब मेरा अपना परिवार कभी आध्यात्म और भौतिकता को एक साथ स्वीकार नहीं करता था। उनके लिए अध्यात्म की उपलब्धि तभी हो सकती है, जब हम भौतिकता से मुक्त होंगे। अधिकांश साधू-संतों या जितने भी विद्वानों से मैं अपने जीवन में मिला हूँ या पढ़ा हूँ, सभी भौतिकता के विरुद्ध ही थे सिवाय ओशो के।
तब मैं ओशो की तरफ बढ़ा, उनकी पुस्तकें पढ़ीं और तय कर लिया एक दिन कि मैं ओशो संन्यासी ही बनूँगा। लेकिन फिर भीतर कोई था जो मुझे रोक रहा था कि अभी समय नहीं आया है संन्यासी होने का अभी कुछ और जानो, कुछ और समझो। फिर मुझे ठाकुर दयानन्द के विषय में पता चला और उपर लिखे ठाकुर जी के विचार जब पहली बार मेरे सामने आये, तब मुझे लगा कि यही सही है। बस तब से अब तक मैं इनके आश्रम में हूँ।
अब दोनों ही गुरु यानि ओशो और ठाकुर दयानन्द, बिलकुल समान विचारधारा के हैं। लेकिन बहुत ही आश्चर्य की बात है कि ठाकुर ने १९०९ से सार्वजनिक रूप से खुलकर अपने विचारों को व्यक्त करना शुरू कर दिया था, कई शिष्य भी तब तक बन गये थे। जबकि ओशो बाद में आये। ठाकुर दयानन्द केवल सीमित दायरे में सिमट कर रह गये जबकि ओशो विश्व में छा गये।
मैंने इसे समझने का प्रयास किया तो पाया कि ठाकुर दयानन्द केवल गरीबों, पिछड़े वर्गों तक सीमित रहे, उन्होंने अमृतवृति यानि किसी से कुछ न माँगना, बल्कि जो स्वाभाविक रूप से बिना किसी शर्त या लोभ के मिल रहा हो, उसे ही स्वीकारना के सिद्धांत पर चले। भजन कीर्तन को उन्होंने आधार बनाया जन साधारण तक पहुँचने का। अपने सम्प्रदाय यानि बंगालियों के समाज मे तो लोकप्रिय हुए, लेकिन भारत के अन्य भागों में कोई नहीं जान पाया। उनके बाद उनके शिष्य या अनुयाई भी ऐसे आये, जो उनकी शिक्षा को समझने के स्थान पर भजन कीर्तन करे और प्रसाद ग्रहण करके निकल लेते। तो उनके बाद आश्रम का सिद्धांत बना भोजन-भजन-शयन। इससे ऊपर उठने का न कभी किसी ने प्रयास किया और न ही कभी जानने समझने का प्रयास किया।
जबकि ओशो ने ऐसा नही किया, उन्होंने भौतिक जगत और आध्यामिक जगत के बीच न केवल सेतु बनाया, बल्कि उसे जी कर भी कर भी दिखाया। वे बहुत ही पहले समझ चुके थे कि गरीब, शोषितों को आप आध्यात्म का पाठ नहीं पढ़ा सकते, उन्हें तो वे गुरु या भगवानो की आवश्यकता है जो उनकी मौलिक आवश्यकताओं को पूरी कर दे, बस। जो उनकी जरूरतों को पूरी कर देगा वही भगवान है.. इसलिए तमाशा दिखाने वाले बाबा अधिक लोकप्रिय होते हैं, इसलिए ताबीज भभूत वाले बाबा अधिक लोकप्रिय होते हैं। लेकिन वैचारिक ज्ञान देने वाले, आत्मिक व मानसिक उत्थान प्रदान करने वाले महान आत्माओं से ये लोग दूरी बना लेते हैं। इसलिए ओशो ने ऐसे लोगों को खोजा जो आर्थिक रूप से समृद्ध थे, जो हर सुख समृद्ध से पूर्ण थे, बस उनको अध्यात्मिक ज्ञान की प्यास थी। ऐसे लोगों के लिए ब्रिज बन गये ओशो लेकिन आर्थिक व मानसिक रूप से पिछड़े वर्गों की समझ के परे हो गये। ठाकुर दयानन्द जी ने यह समझा कि वे यदि पिछड़े वर्गों को आध्यात्मिक ज्ञान देते हैं, तो वे आर्थिक रूप से भी उन्नत होंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्योंकि गरीब लोग आये थे यहाँ कीर्तन करके अपना गम भुलाने और उसके बाद जो लंगर बंटता था, उसे खाकर अपनी भूख मिटाने। बाद में आश्रम को कोई ऐसा दानी मिला नहीं जो लंगर आदि के खर्च उठा पाता तो, धीरे धीरे वे गरीब भी आश्रम को भूल गये।
इस घनता से शिक्षा यह मिली कि आध्यात्मिक या भौतिक जगत को जोड़ना है, तो पहले स्वयं को आर्थिक रूप से समृद्ध करो। आपके पास धन होगा, तब गरीबों को आप आकर्षित कर सकते हो, क्योंकि उनकी रूचि अर्थ (धन) में हैं आध्यात्म में नहीं। उनके बच्चे भूखे हैं उनको उनकी चिंता है, आपकी बड़ी बड़ी बातों में उनकी कोई रूचि नहीं है।

तो ओशो के आगमन के बाद साधू-समाज को नया मार्ग मिल गया और वे अब लंगोट कमंडल लेकर भटकने की जगह हर आधुनिकता से लैस होने लगे। अब लैपटॉप बाबा, पाइलट बाबा, आईफोन बाबा, गोल्डन बाबा का युग शुरू हो गया। अब त्यागी भी कहलाने लगे और सोने चांदी से भी लदे रहने लगे। अब ब्रहमचारी भी कहलाते हैं और सुंदरियों से भी घिरे रहते हैं… .

तो ओशो की शिक्षा समझ में आई नहीं ठाकुर दयानंद की शिक्षा समझ में आयी नहीं लेकिन ढोंग शुरू कर दिया भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच सेतु बनने का। अब गरीबों का क्या है वे तो बेचारे यह सोचकर इनके पैर छूने लगे कि इतना सोना चांदी लादे फिरते हैं, कभी कोई एकाध टुकड़ा टपक गया तो हमारी जिंदगी भी सफल हो जायेगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है, वे जनता का उत्थान करने नहीं, अपना उत्थान करने के लिए साधू बने हैं। दुनिया का सबसे स्वार्थी समाज यदि कोई होता है तो वह है साधू समाज मेरी नजर में। लेकिन जो वास्तविक साधू या संन्यासी होगा, वह साधू-समाज का नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज का अंग होगा किन्तु अपनी मौलिकता के साथ। वह भेड़चाल में चलने वाली भीड़ का हिस्सा नहीं होगा।
खैर मेरे आने के बाद से यहाँ उपद्रव मचा हुआ है। सभी की नजर में अधार्मिक हूँ मैं, क्योंकि न तो भोग आदि लगाने जाता हूँ और न ही भजन कीर्तन में। तो इनके लिए ठाकुर का अनुयाई होने का अर्थ है भजन-कीर्तन करना और ठाकुर को भोग लगाना। बस ये दो काम कर दो, तो हो गये ठाकुर के सच्चे भक्त.. फिर बाकी दुनिया में आग लगे, भूमाफिया सारा भूमि ही हड़प जाएँ.. कोई चिंता नहीं है। खेत खराब होते हैं तो होने दो, बगीचे खराब होते हैं तो होने दो… बस कीर्तन करो और ठाकुर को भोग लगाओ, सर्दी पड़े तो ठाकुर को कम्बल ओढ़ा दो… हो गया संन्यास धर्म पूरा।
यदि मुझे यही सब करना होता, तो मैं फिर यह काम तो अपने घर में रहकर भी कर लेता। फिर ठाकुर मुझे क्यों बुलाता आश्रम, यह काम तो यहाँ लोग कर ही रहे थे मेरे आने से पहले भी। ठाकुर मुझे यहाँ तक कैसे लेकर आये, यह भी एक रोचक कथा है, फिर कभी सुनाऊंगा।
जब भी कोई मुझसे मिलने आ जाता है भूले भटके, तब सनातन धर्म और उनकी अपनी मान्यतओं को लेकर चर्चा अवश्य होती है। उन्हें लगता ही कि मैं भटका हुआ हूँ और मुझे धर्म की कोई समझ नहीं है। जबकि मैं मानता हूँ कि वे लोग आगे बढे ही नहीं, वहीं अटके हुए हैं यानि ए फॉर एप्पल, बी फॉर बुक में। मैं जब भी कोई धर्मग्रन्थ पढता हूँ तब मुझे लगता है कि कोई नई बात नहीं कही जा रही वही बातें हैं जो पशु-पक्षी भी जानते हैं। वही बाते हैं जो सनातनी जानते हैं बस दडबों में कैद धार्मिकों की समझ में नहीं आती इतनी सहज बातें, वह सोचकर कभी कभी आश्चर्यचकित हो जाता हूँ।
तो ठाकुर दयानन्द देव ने नहीं कहा था कि मेरा प्रचार करो। ठाकुर दयानन्द केवल उस सनातन धर्म को जन जन तक पहुँचाना चाहते थे, जो अपने अपने दड़बों में दुबका समाज भूल गया। बस परम्परा ढोए जा रहे हैं बिना जाने समझे और ठेकेदार उन परम्पराओं की आढ़ में न केवल लूट-पाट कर रहे हैं, ठगे चले जा रहे हैं, अपितु हर संभव प्रयासरत रहे हैं कि कैसे समाज को आपस में बाँटे रखें, कैसे समाज को आप में लड़वाकर उनकी चिताओं में अपनी अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकते रहें।
खैर मैं यहाँ ठाकुर दयानन्द का प्रचार नहीं कर रहा हूँ, बस यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ, कि संत जो बातें समझा कर चले जाते हैं, कालान्तर में लोग उसे भूल जाते हैं और करते वही हैं जो वे करते आ रहे है। बस ढोंग करते हैं अनुयाई होने का, बस ढोंग करते हैं परंपरा निभाने का। ऊपर नहीं उठ पाते और न ही कभी ऊपर उठना चाहते हैं। इसलिए समाज नीचे से नीचे गिरता चला जा रहा है।
कई बार लोग कहते हैं कि मैं फलाने बाबा का इसलिए भक्त बना क्योंकि वे चमत्कारीक हैं। लेकिन मेरा मानना है कि अब चमत्कारिक बाबाओं का युग समाप्त हो रहा है क्योंकि ये चमत्कारिक बाबा बहुत ही स्वार्थी होते हैं। ये केवल उन भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं, जो इनके लिए सुख सुविधाएँ जुटाता है। न कि सर्वकल्याण भाव से कोई कार्य करते हैं। अब ऐसे साधू-संतों का युग आएगा जो समाज से भागे हुए नहीं होंगे, बल्कि समाज में ही रहेंगे सामाजिक प्राणी के रूप में ही। वे कोई चमत्कार नहीं दिखायेंगे, बल्कि समाज को जागृत करेंगे चैतन्य करेंगे।
कहते हैं कि इन चमत्कारिक बाबाओं के पास बहुत शक्ति होती है, कई सिद्धियाँ होती हैं… लेकिन मैंने आज तक नहीं देखा कि इन सिद्धि प्राप्त बाबाओं ने किसी सूखाग्रस्त क्षेत्र में वर्षा करवाई हो, किसी आतंकवाद ग्रस्त क्षेत्र में आतंकवादियों पर मारण विद्या का प्रयोग किया हो, किसी गरीब किसान को कर्जों से मुक्ति दिलाई हो….। तो ऐसे बाबाओं के भक्त बनने में कोई लाभ नहीं। ये अपनी दुनिया में जीते हैं, उन्हें अपनी दुनिया में जीने दीजिये। दूसरों के पास जाकर उनकी तुलना मत करिए कि वे जादू दिखाते हैं तो आप भी जादू दिखाइये, या वे सोने चांदी से लदे रहते हैं तो आप भी लदे रहिये… सभी की अपनी मौलिकता है। अपनी पसंद का बाबा खोज लीजिये और उन्हें अपना गुरु बना लीजिये, बात समाप्त। क्या आवश्यकता है दूसरे बाबा को भी अपने पसंद का बाबा बनाने की ?
ओशो अपनी जगह सही हैं, ठाकुर दयानंद अपनी जगह सही हैं, स्वामी विवेकानन्द अपनी जगह सही हैं और महर्षि रमण अपनी जगह सही हैं। ये चारों ही मेरे आदर्श गुरु हैं लेकिन उनकी आपस में तुलना होनी ही नहीं चाहिए। जो आपको उसने शिक्षा लेनी है वह लीजिये और आगे बढ़िए। मैंने भी इन सभी से कोई न कोई शिक्षा प्राप्त की है लेकिन इनके चरणों में बैठा रहने के लिए नहीं आया हूँ। गुरु केवल मार्गदर्शक होते हैं मंजिल नहीं। गुरु से आगे बढ़ना है स्वयं को खोजना है। इसलिए मैं आगे बढ़ गया और अब यह समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि आगे नया क्या है। मुझे ऐसा ऐसा कौन सा काम करना है, जिसके लिए मैं इस दुनिया में आया हूँ।
~विशुद्ध चैतन्य
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THE IDEAL MAN – THAKUR DAYANANDA
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