अन्याय व अत्याचार विरुद्ध नहीं किताबी धार्मिकों का समाज
जब मानव इंसानियत से परे हो जाये, जब मानव शैतान बन जाए, तब वह इतना नीचे गिर जाता है, कि पशु-पक्षी भी उनसे श्रेष्ठ हो जाते हैं।
यह तस्वीरें रोहिंगिया मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों की दास्ताँ कह रहे हैं। और आश्चर्य की बात तो यह है कि वह देश बौद्धधर्म के अनुयाइयों का देश है। वह बुद्ध जिसने अहिंसा को सर्वोपरि माना, वह बुद्ध जो दुर्दांत हत्यारे अंगुलिमाल को भी बिना हिंसा के सद्मार्ग पर ले आया… लेकिन वह पूरा देश जो बुद्ध का अनुयाई मानता है स्वयं को वहीँ के लोग नरपिशाच बन गये। और मैंने अभी तक किसी भी बौद्ध गुरु या स्वयं दलाई लामा से इस नरसंहार के विरोध में कोई वक्तव्य नहीं सुना। या फिर कहा भी होगा तो वह मिडिया ने लोगों तक नहीं पहुँचाया।
इन तस्वीरों से यह सिद्ध हो जाता है कि अनुयाई होना और बुद्ध होना दोनों विपरीत स्थिति है। अनुयाई कभी बुद्ध नहीं हो सकते, केवल बुद्ध की नकल कर सकते हैं। इसलिए बौद्ध होना सहज है, जबकि बुद्ध होना कठिन और लोग सहज मार्ग चुनते हैं।
प्राचीन काल में ऋषि मुनि और उनके बाद बुद्ध के वास्तविक उपासकों ने, अपने मठ, आश्रम आदि ऐसे दुर्गम स्थलों पर बनाये थे, जहाँ साधारण जनों का पहुँच पाना अत्यंत ही कठिन होता था। उसका कारण यही था कि वे अपने व्यव्हार,रहन-सहन आदि को गोपनीय रखना पसंद करते थे। वे जानते थे कि कोई भी उनके रहन-सहन की नकल तो कर लेगा, लेकिन भीतरी उत्थान नहीं कर पायेगा।
भीतर परिवर्तन करने के लिए उसे गहराई में डूबना पड़ेगा, सबकुछ समर्पित कर देगा होगा.. और कोई भी मनुष्य सबकुछ समर्पित या तिरोहित करने को कभी भी तैयार नहीं होता। वह तो आता ही है सदुरुओं के पास कुछ पाने के लिए, कुछ त्यागने की तो वह कल्पना तक नहीं कर सकता। वह कुछ खोने के नाम से ही विचलित हो जाता है, जो है वह तो उसी में संतुष्ट नहीं होता और पाना है… बस इसलिए ही वह तीर्थों, मंदिरों और गुरुओं के पास भटकता है कि वह जो कुछ खालीपन है वह भी भर जाए तब वह सुखी हो जाएगा।
इसी सुख की खोज और पुराने के विरोध में नए नए सम्प्रदाय बनते चले गये, बिना यह समझे कि वे जिस सम्प्रदाय से जुड़ रहे हैं उसकी मूल शिक्षा क्या है। वास्तव में उनको शिक्षा से कोई लेना देना होता ही नहीं है, बस उन्हें लगता है कि गुरु की नकल कर लेंगे तो लोग जय जय करेंगे। आराम से बैठकर खाने मिलेगा, सुबह शाम आरती भजन कर लेंगे… बस स्वर्ग का टिकट पक्का हो गया। अभी थोड़ा सा कष्ट सह लो, थोड़ी सादगी सह लो, थोड़ा मन मार लो, स्त्रियों से मुहँ मोड़ लो.. उसके बाद स्वर्ग या जन्नत में तो ऐश ही ऐश है। सुर-सूरा और सुंदरी के समंदर में गोते लगायेंगे कोई रोकने टोकने वाला होगा नहीं….
लेकिन यह बाहर से ओढ़ा अहिंसा और बैराग्य का कम्बल एक दिन सड़-गल जाता है और निकल आता है बाहर वही वीभत्स शैतान जो उस कम्बल के भीतर छुपा हुआ था। तब दिखाई देता है नरसंहार का ताण्डव, फिर वह बर्मा हो, सीरिया हो, ईराक हो, जर्मन हो, अफ्रीका हो या फिर भारत का जलियाँवाला बाग़ काण्ड हो। ईसामसीह के अनुयाई हों या मोहम्मद के या बुद्ध के… सब केवल अपने भीतर के शैतान को छुपाने के लिए उनकी आढ़ लेकर बैठे हैं सही अवसर की प्रतीक्षा में।
इसलिए ही लगभग सभी महान आत्माओं ने स्वयं को जागृत करने पर बल दिया। सभी ने कहा कि खुद जानो, खुद समझो और फिर जो सही हो उसे व्यव्हार में, अपने आचरण में उतारो।
अक्सर लोग किसी भी साधू-संत या संन्यासी के व्यक्तिगत जीवन में बहुत रूचि लेते हैं। क्योंकि उनको नकल करना होता है, जो शिक्षा वे दे रहे होते हैं, उनमें उनकी कोई रूचि नहीं होती, बस कैसे भी करके उनके व्यक्तिगत जीवन में घुसपैठ करना होता है ताकि वे तुलना कर पायें कि वे लोग हमारे जैसे ही जीते हैं या कुछ विशेष होता है। फिर कोई किताब मिल जाती है किसी बुद्ध या महावीर की जिसमें कुछ नियम लिखे होते हैं… बस उन्होंने उसे रट लिया और बन गये अनुयाई। न उनका सिद्धांत समझ में आया न उनकी शिक्षा।
जब तक समाज महान आत्माओं की शिक्षा को आत्मसात नहीं करेगा, उन्हें अपने आचरण में नहीं उतारेगा, तब तक कितना ही ढोंग करता रहे धार्मिकता का, सब व्यर्थ ही होता रहेगा। यही कारण है कि इतने पंथ, सम्प्रदाय, गुरुओं के होने के बाद भी, समाज नीचे से नीचे गिरता चला गया। होना तो यह चाहिए था कि समाज निरंतर प्रगति करता उत्थान करता… लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसलिए ही हमारे धर्मग्रन्थ यह स्वीकारते हैं कि समय समय पर महान आत्माओं, पथप्रदर्शकों का आविर्भाव होता रहेगा क्योंकि हर काल में किसी नये पथप्रदर्शक की आवश्यकता बनी रहती है।
अभी तो समाज इतना नीचे गिर चुका है कि उसे बर्मा पर हो रहे यह वीभत्स नरसंहार ही नहीं दिखाई दे रहा.. लेकिन हर दिन नमाज पढने जाते ही होंगे, हर दिन मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजा, मठ आदि जाते ही होंगे, हर दिन पूजा पाठ करते ही होंगे… वह भी केवल ईश्वर को मुर्ख बनाने के लिए। भीतर से सभी जानते हैं कि वे इतने नीचे गिर चुके हैं कि अब हम अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने लायक भी नहीं रह गये।
~विशुद्ध चैतन्य