जागृत व्यक्तियों के शिष्य और अनुयायी जागृत क्यों नहीं हो पाते ?

बुद्ध द्वारा स्थापित संघ में कोई बुद्ध नहीं बन पाया।
मोहम्मद द्वारा स्थापित इस्लाम में कोई मोहम्मद नहीं बन पाया।
ओशो द्वारा स्थापित कम्यून में कोई ओशो की तरह निर्भीक जागरूक नहीं हो पाया।
क्यों ऐसा होता है कि जागृत व्यक्ति को हमेशा अकेले ही संघर्ष कर उभरना पड़ता है ?
क्यों ऐसा होता है कि जागृत व्यक्ति के उभरने के बाद उनके साथ जुड़ी भीड़ में से कोई एक भी जागृत नहीं हो पाता ?

एक अफवाह उड़ी थी दस वर्ष पहले कि माया केलेण्डर के अनुसार 2012 में पृथ्वी का अंत हो जाएगा।
माया केलेण्डर 21 दिसंबर 2012 तक ही था, उसके बाद केलेण्डर कोई तिथि नहीं बता रहा था। यदि हम समझने का प्रयास करें तो सहजता से समझ पाएंगे कि माया केलेण्डर की भविष्यवाणी गलत नहीं थी। संभवतः उन्हें यह अनुमान लग चुका था कि 2012 तक मानव जाति पूरी तरह से दिमाग से पैदल होकर ज़ोम्बियों #Zombies यानि ज़िंदा लाशों में रूपांतरित हो चुकी होगी। इनमें सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो चुकी होगी और केवल कुछ शैतानों के इशारे पर कार्य करेंगे।
वे अनुमान लगा चुके थे कि 2012 तक मानव पूरी तरह शैतानों के अधीन हो चुका होगा और 2013 से ज़ोम्बियों का युग आरम्भ हो जाएगा। और चूंकि ज़ोम्बियों के पास अपनी विवेक बुद्धि होगी नहीं, तो वे कीड़े-मकोड़ों की तरह मरेंगे या आपस में ही एक दूसरे को मारेंगे काटेंगे। जो जोम्बी बनने से बच जाएंगे, उन्हें अपना आस्तित्व बचाए रखना भारी पड़ जाएगा। शैतानों के गुलाम और ज़ोम्बी बन चुके नेता और सरकारें ज़ोम्बी बन चुकी जनता को लूटेंगे, लुटवाएंगे और फर्जी महामारी से आतंकित करके बेमौत मारेंगे।
माया केलेण्डर पृथ्वी के अंत की भविष्यवाणी नहीं कर रहा था, बल्कि यही भविष्यवाणी कर रहा था कि पृथ्वी का विनाश आरम्भ हो जाएगा 2012 के अन्त तक।
और आज हम सभी जानते हैं कि कैसे 2013 से समस्त पृथ्वी का विनाशकाल आरम्भ हो चुका था। जनता को लूटा जा रहा था, देश की सार्वजनिक संपदाएँ नीलाम होने लगीं थी और जनता हिन्दू-मुस्लिम और क्रिकेट खेलने में व्यस्त थी। जिन पत्रकारों को सरकारों के झूठे वादों और जनता की समस्याओं को सामने लाना था, वे सरकारों और माफियाओं की स्तुति वंदन करने में व्यस्त हो गयीं। क्योंकि वे भी गुलाम ज़ोम्बी बन चुके हैं। जो थोड़े बहुत ज़िंदा बचे हैं, उन्हें कोन्स्पिरेसी थियोरिस्ट (Conspiracy Theorist) की संज्ञा दी गयी और ज़ोम्बी उनके शत्रु बन गए।
और यह सब कोई रातों-रात नहीं हुआ, बल्कि पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों की मेहनत का परिणाम है। सुनियोजित रूप से योजनाएँ बनाकर कार्य किए गए। पूरे विश्व की जनता को ज़ोम्बी बनाकर गुलाम बनाने के लिए, शिक्षा पद्धति ऐसी बनाई गयी कि व्यक्ति डिग्रियाँ बटोरकर केवल नौकरी के पीछे भागे। डिग्रियाँ बटोरेने के लिए अपने खेत और भूमि बेचनी पड़े, तो वह भी बेच दे लेकिन डिग्रियाँ बटोरे। और ये डिग्रीधारी आज वे लोग हैं, जो अपने ही देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के सहयोगी और गुलाम बने हुए हैं।
समाज में यह धारणा बैठा दी गयी कि कृषि कार्य करना या अपनी दुकान या रेहड़ी लगाना बहुत ही निकृष्ट कार्य है। लेकिन डिग्रियाँ बटोरकर सरकारी या गैर सरकारी चाकरी करना श्रेष्ठ कार्य है। गरीब से गरीब माता-पिता भी अपने बच्चे को महंगी से महंगी डिग्रियाँ दिलाने के लिए दिन रात एक करने लगे। और जब डिग्रियाँ प्राप्त करने के बाद किसी की संतान सरकारी या गैर सरकारी नौकरी प्राप्त कर लेता, तो परिवार में उत्सव का वातावरण बन जाता है।
कोई भी यह नहीं देखता कि यही पढ़ी-लिखी संतान उनका अपना ही खेत उजाड़ेगी माफियाओं के इशारे पर। यही पढ़ी लिखी संतान जंगलों को नष्ट करवाएगी, यही पढ़ी लिखी संतान बैंकों में घोटाले करने में माफियाओं की सहयोगी बनेगी, और बैंक लुटेरे इन्हीं को मोहरा बनाकर बैंक लूटेंगे और फिर आराम से विदेशों में सेटल हो जाएँगे। यही पढ़ी लिखी संतान राष्ट्रीय संपदा नीलाम करेगी माफियाओं को। यही पढ़ी लिखी संतान हरितक्रांति के नाम पर खेतों में जहर परोसेगी। यही पढ़ी लिखी संतान डॉक्टर बनकर जनता को लूटेगी और लुटवाएगी फार्मा माफियाओं के इशारों पर। यही पढ़ी-लिखी संतान फर्जी महामारी का आतंक फैलाकर फर्जी सुरक्षा कवच चेपेगी। क्योंकि पढ़-लिखकर अब ये दिमाग से पैदल गुलाम ज़ोम्बी बन चुके हैं माफियाओं के।
शिक्षा की आढ़ में युवाओं को दिमाग से पैदल बनाने के साथ साथ धर्म और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप शुरू हुआ। और संप्रदायों, पंथों, मत-मान्यताओं, कर्मकांडों, परम्पराओं को धर्म घोषित कर दिया गया। धर्म घोषित करके संप्रदायों के बीच फूट डाला गया, वैचारिक वैमनस्यता बढ़ाया गया।
लेकिन यहाँ उनके उद्देश्यों में सबसे बड़ी बाधा थे वे जागृत महापुरुष, जो इनके षडयंत्रों को भाँप चुके थे। तो सबसे पहले उन गुरुओं को ठिकाने लगाया गया, जो जनता को जागरूक कर रहे थे, आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दे रहे थे, जैसे कि श्री ठाकुर दयानन्द देव (1881-1937), श्री प्रभात रंजन सरकार, ओशो, राजीव दीक्षित….आदि। और ऐसे गुरुओं को उभारा गया, जो जनता को “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीना सिखाएँ, भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, किस्से-कहानियों और हिन्दू-मुस्लिम में उलझाए रखें।
लोगों का विश्वास आध्यात्मिक और धार्मिक गुरुओं पर बहुत अधिक था। उस विश्वास का दुष्परिणाम यह हुआ कि जनता ने उन्हें ही ईश्वर घोषित कर दिया और उनके दिखाये मार्ग पर चलने की बजाय उनकी स्तुति वंदन में लिप्त हो गए। इसे भक्ति मार्ग नाम दिया गया। भक्ति मार्ग अर्थात वह मार्ग, जिसमें बुद्धि-विवेक को प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं होती, केवल भेड़ों की तरह अगली भेड़ के पीछे कदम-ताल करते हुए चलना है। फिर चाहे आसपास, अपने मोहल्ले, अपने देश में कुछ भी घट रहा हो, उससे कोई मतलब नहीं रखना।
माफिया गाँव के व्यक्ति की भूमि हड़प रहा हो, तो विरोध करने की बजाए मूक-बघिर बनकर तमाशा देखना। राजनेता देश लूट रहा हो, चाहे जनता को लूट रहा हो, डायलोग मार देना, “खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है। इसलिए लूटने दो, लुट जाओ काहे को विरोध करना ? बस तुम तो भजन-कीर्तन करो, मंदिरों-तीरथों के चक्कर लगाओ, ध्यान करो और मोक्ष प्राप्त करो। आखिर एक दिन नश्वर शरीर भी छोडकर ही जाना है।”
तो भक्ति मार्ग ने इंसान को पालतू गुलाम मवेशियों की तरह “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीना सिखा दिया। और भक्ति की लत लोगों को ऐसी लगी कि नेताओं की भक्ति में धुत्त हो गए। फिर नेता लोग दुनिया भर का झूठ बोलकर लूटने और लुटवाने लगे, लेकिन भक्तों के पास अब विवेक बुद्धि तो बची नहीं थी, तो जय जय करते रहे। परिणाम यह हुआ कि भक्ति मार्ग में चलने वाला कोई भी भक्त जागृत नहीं हो पाया। और जब जागृत ही नहीं होगा, तो सही और गलत का अंतर कैसे कर पाएगा ?
भक्त बनाकर धार्मिक और आध्यात्मिक गुरुओं ने खूब लूटा और लुटवाया भक्तों को। चूंकि ऐसे धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु राजनेताओं के पालतू होते हैं, इसलिए भक्तों से झूठ बोलकर अपने चहेते नेताओं को जितवाया। किसी ने कहा कि फलाने नेता को वोट दोगे तो विदेशों में पड़ा कालाधन वापस आ जाएगा, तो किसी ने कहा कि 30 रुपए में पेट्रोल और डॉलर मिलने लगेगा। किसी ने कहा कि 15-15 लाख रुपए आएंगे अकाउंट में। और विवेक बुद्धि गिरवी रख चुकी जनता जय जय करते हुए लुटेरों को सत्ता सौंप दी।
और जब सारा समाज ही किसी न किसी का भक्त बना हुआ हो, तब ऐसी स्थित में जागृत व्यक्तियों का उभर पाना लगभग असंभव हो जाता है। क्योंकि भक्ति के नशे में धुत्त समाज के मन में यह धारणा पहले ही बैठा दी गयी है कि माफियाओं और लुटेरों का विरोध करना, यानि अपनी जान मुसीबत में डालना। और यदि किसी के परिवार में कोई व्यक्ति जागृत हो जाये, तो समाज उस परिवार का जीना मुश्किल कर देता है। और परिवार भयाक्रांत होकर उस व्यक्ति से दूरी बनाने लगता है। क्योंकि यदि उन्हें नौकरी करनी है, बीवी, बच्चे पालने हैं, अपने प्राणों की रक्षा करनी है, तो माफियाओं और लुटेरों से बैर नहीं ले सकते। जबकि जागृत व्यक्ति सबसे पहले माफियाओं और लुटेरों को निशाने पर लेता है।
अब चुकी सारा समाज ही भक्ति के नशे में धुत्त है, ज़ोम्बी बन चुका है, तो फिर किसी ज़िंदा या जागृत इंसान को कोई बर्दाश्त करेगा तो करेगा कैसे ?
परिणाम यह होता है कि जागृत व्यक्ति को पागल घोषित कर दिया जाता है या फिर माफियाओं का शिकार बन जाता है, या फिर किसी अंधेरे कोने में अकेले जीने के लिए विवश कर दिया जाता है।
वे जागृत व्यक्ति असाधारण ही होते हैं जो माफियाओं के गुलाम भक्तों और जोम्बियों की दुनिया में कठिन संघर्ष करके उभर पाते हैं। बहुत से लोग उनके अनुयायी भी बन जाते हैं। लेकिन ये अनुयायी भेड़ें ही होते हैं, और स्वयं को जागृत दिखाने के लिए जागृत व्यक्ति के साथ जुडते है। इन्हें स्वयं जागृत नहीं होना होता, इन्हें तो केवल भक्ति करनी होती है, जय जय करनी होती और जागृत व्यक्ति की मृत्यु के बाद उनकी प्रतिमा बनाकर आरती उतारनी होती है। कुछ लोग जागृत व्यक्ति के नाम पर धंधा शुरू करके करोड़ों कमाते हैं, तो कोई राजनीति में उनके नाम का प्रयोग करके सत्ता हथिया लेते हैं।
ये दुनिया शैतान के अधीन है और शैतान कभी भी इन्सानों को इंसान नहीं बनने देना चाहता। वह यही चाहता है कि इंसान आजीवन उनकी गुलामी करें ज़ोम्बी बनकर।
जागृत और चैतन्य व्यक्तियों द्वारा बनाए गए संगठन, संस्था, समाज, परिवार में फिर दूसरा कोई जागृत नहीं हो पाया, क्योंकि सभी संगठन, संथाएं, राजनैतिक पार्टियाँ और सरकारें शैतानों और माफियाओं के ही अधीन हैं। यदि किसी संस्था, संगठन, समाज या पार्टी में कोई व्यक्ति जागृत हो भी जाता है, तो उसी का समाज और परिवार उसे अकेला छोडकर माफियाओं के साथ खड़े हो जाते है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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