उपेक्षित और खंडहर होते जा रहे हैं धर्म, पंथ, समाज और संगठन

आज कोई भी पंथ, धर्म (#Religion), संप्रदाय, संगठन, समाज देख लीजिये, सभी खोखले हो चुके हैं। इनके धार्मिक ग्रन्थों और गुरुओं द्वारा दिखाये मुख्य आदर्श जो इन्हें एक दूसरे से अलग दिखाते थे, आज केवल किताबी बनकर रह गए। आज सभी एक ही राह पर चल पड़े हैं और वह स्तुति, वंदन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास और कर्मकाण्डों को धर्म मानकर ढोना।
इनके अपने ही समाज में अपने ही दड़बों में कोई सुखी नहीं, सभी दौड़ रहे हैं आधुनिकता के नाम पर माफियाओं के श्रेष्ठ गुलाम और ज़ोम्बी बनने की दौड़ में। लेकिन धार्मिक, सात्विकता और नैतिकता का ढोंग करने की लत से मुक्त भी नहीं होना चाहते। दो नावों पर पैर रखकर दौड़ जीतना चाहते हैं।
आज धार्मिक लोगों को देखकर कोई धार्मिक नहीं होना चाहता, क्योंकि इनके आचरण में कहीं भी धर्म दिखाई नहीं देता। दिखाई देता है तो केवल ढोंग और पाखण्ड, दिखाई देता है तो केवल स्तुति-वंदन और चाटुकारिता। और आश्चर्य तो मुझे यह देखकर होता है कि जिन्होंने शास्त्रों को कंठस्थ कर रखा है, उनसे ना तो धर्म की रक्षा हो पा रही है, न ही संस्कृति, समाज और देश की। माफियाओं के पालतू लुच्चे-लफंगों, गुंडों, मवालियों को ठेकेदारी दे दिये धर्म और संस्कृति की रक्षा की धर्मों के ठेकेदारों ने।
और किसी भी #धर्म, #संस्कृति, #पूजा_पद्धति, #चिकित्सा_पद्धति, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के प्रति घृणा उत्पन्न करना हो, या संसार से ही लुप्त करवाना हो, तो उसे राष्ट्रीय घोषित कर दो, या फिर उसकी रक्षा के लिए सड़कछाप लुच्चे, लफंगे, गुंडे-मवाली और उठाईगीरों को नियुक्त कर दो।

फिर और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं। लोग स्वतः ही उन सबसे दूरी बनाने लग जाएंगे जो राष्ट्रीय है या फिर जिनकी रक्षा की ठेकेदारी माफ़ियों के पालतू गुंडों मवालियों के पास है।
क्योंकि जो राष्ट्रीय होता है वह बिकाऊ होता है, जैसे राष्ट्रीय संपत्तियाँ, राष्ट्रीय खिलाड़ी, राष्ट्रीय नेता, विधायकों की नीलामी आधुनिक समाज में सम्मानित प्रथा मानी जाती है। शीघ्र ही राष्ट्रीय पुलिस और राष्ट्रीय सेना भी नीलाम हो जाएंगी और जनता थाली, ताली और बर्तन बजाकर जय-जयकार करेगी।
और जिनकी ठेकेदारी माफियाओं के पास होती है वह कैसे नष्ट होती है, इसका उदाहरण गौरक्षकों ने प्रस्तुत किया मोबलिंचिंग करके। परिणाम यह हुआ कि गायें सड़कों पर लावारिस भटक रही हैं, किसानों के खेत चर रही है, सड़कों पर बेमौत मारी जा रही है….और ना अब जनता को उनकी चिंता, न सरकारों को….क्योंकि कोई मुसीबत अपने गले नहीं बांधना चाहता।
सरकारें तक भयभीत हैं गौरक्षकों से कि ना जाने कब गौरक्षकों के गुंडे आ जाएँ और दो चार की मोबलिंचिंग करके चले जाएँ कोई न कोई आरोप लगाकर ?
लेकिन दुनिया के जितने भी पंथों, धर्मों, पशु, पक्षियों की रक्षा के लिए माफ़ियाओं के पालतू गुंडे-बदमाश नियुक्त नहीं हुए, वे सभी आज भी सम्मानित हैं और वह भी बिना सरकारी सम्मान के।
केवल यही एकमात्र कारण नहीं है पंथ, सम्प्रदाय और समाजों के पतन का। और भी कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख हैं स्वार्थियों और लोभियों की भीड़ इकट्ठी कर लेना अपने संगठन को बड़ा और प्रभावी दिखाने के लिए। आज कई लोग हैं जो कहते हैं कि हमारे दड़बों में हर रोज़ सैंकड़ों लोग आते हैं धर्मपरिवर्तन करके क्योंकि हमारा दड़बा महान है।
लेकिन जब उनके दड़बों में झाँककर देखो, तो पाएंगे कि सिवाय जय जय और स्तुति-वन्दन और कुछ भी नहीं हैं वहाँ। न तो वे दड़बे अपने ही सदस्यों को आत्मनिर्भर और सुखी बना पा रहे हैं, ना ही उनकी दरिद्रता और भुखमरी दूर कर पा रहे हैं। सभी को बैठा रखा है भजन-कीर्तन, रोज़ा-नमाज, व्रत उपवास करने और सरकारी नौकरी माँगने वालों की कतार में।
जिन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलती, वे माफियाओं की नौकरी करने लग जाते हैं। और अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों के सहयोगी बनकर खूब पैसा कमाते हैं।
जो स्वयं आचार्य, धर्मगुरु, साधु-संन्यासी, धर्म प्रचारक कहते हैं, वे भी माफियाओं के सामने नतमस्तक, कीर्ति और ऐश्वर्या के लोभ में पड़कर समाज में साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा फैला रहे हैं। या फिर चार्वाक दर्शन पर आधारित “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जी रहे हैं। ये मूर्ख सिखा रहे हैं ध्यान, त्याग और बैराग उन्हें, जो भूखे हैं, जिनके सर पर साहूकारों का कर्जा है, जिनके घर कोई बीमार पड़ा है और उसके इलाज के लिए पैसे चाहिए।
क्योंकि इन्हें दूसरों के दुखों से, दूसरों की समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है। केवल अपना पेट भरा रहे, कार, कोठी खड़ी रहे और दुनिया जय-जय करती रहे। बाकी स्वर्ग/जन्नत में एडवांस में प्लाट बुक रखा है, तो भविष्य की भी कोई चिंता नहीं। बहुत से साधु-संतों को सरकारी पेंशन मिल रही है, तो ऐसे साधु-संत सिखा रहे हैं कि वर्तमान में रहो, माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों का विरोध मत करो। बल्कि ध्यान करो, मोक्ष प्राप्त करने के उपायों पर ध्यान दो। क्योंकि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है, यहाँ सबकुछ माफियाओं का है, उन्हें ही सौंपकर जाना है…..तो लुट जाओ, बर्बाद हो जाओ….स्वर्ग मिलेगा, जन्नत मिलेगा, मोक्ष मिलेगा। लेकिन स्वयं ऐश कर रहे हैं माफियाओं से हाथ मिलाकर बिना लुटे और बर्बाद हुए।
और ऐसे लोभियों, स्वार्थियों और चार्वाक सिद्धान्त के अनुयाइयों के कारण ही ओशो को कहना पड़ा कि तुम्हारे जैसे स्वामियों से तो हरामी कहलाना अधिक सार्थक होगा। ओशो को कहना पड़ा कि मैं आज तुमसे स्वयं को छीन रहा हूँ। ओशो नाम तो रहेगा, लेकिन मैं आज से ओशो नहीं रजनीश हो गया हूँ। मेरा चक्र पूरा हुआ। अब केवल मूर्ख ही होंगे जो ओशो-ओशो करके नाचेंगे। जो मेरे वास्तविक शिष्य होंगे, उन्हें ओशो नाम की आवश्यकता नहीं होगी और वे तुम्हारे जैसे ओशो-ओशो चिल्लाने वालों को सीधा करेंगे।
ठाकुर दयानन्द ने भी जब देखा कि उनके शिष्य “प्राण गौर नित्यानन्द” का जाप करने की बजाय, “जय-जय दयानन्द प्राण गौर नित्यानन्द” का जाप करने लगे, तो वे नाराज हो गए थे। और कहा था, मुझे तुम जैसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं है। मेरा कार्य तो कोई एक छोटा बच्चा भी कर देगा चाहे वह दुनिया में कहीं भी हो।
तो गुरुओं ने जो भी संगठन, समाज बनाए, उनमें जय जय करने वाली चाटुकारों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। उन्हें गुरुओं के आदर्शों और विचारों से कोई मतलब नहीं। उन्हें तो उनकी प्रतिमाएँ बनानी है, उनके नाम पर मंदिर और आश्रम बनवाने हैं और फिर आराम से चढ़ावा और दान बटोरकर ऐश करना है। ना उन्हें बर्बाद होते देश से कोई मतलब, न समाज से कोई मतलब….केवल पुजा-पाठ चलते रहना चाहिए, कीर्तन-भजन चलते रहना चाहिए और चढ़ावा आते रहना चाहिए।
ना तो वे समाज को जागरूक करने के लिए कुछ करेंगे, ना ही जागरूक करने वालों की कोई सहायता करेंगे। उल्टे जो जैसे तैसे समाज को जागरूक करने का प्रयास कर भी रहे हैं, उनका मनोबल तोड़ेंगे, उन्हें भिखारी, मुफ्तखोर, कामचोर कहकर मज़ाक उड़ायेंगे। उन्हें बदनाम करने के लिए नए नए षड्यन्त्र रचेंगे।
क्यों ?
क्योंकि ये स्वयं चाहते हैं कि भारत विदेशियों का गुलाम ही रहे। ये स्वयं चाहते हैं कि देश की जनता गरीब, असहाय और बीमार रहे। ताकि ईश्वर, मोक्ष, स्वर्ग का स्वप्न दिखाकर इन्हें लूटा जा सके और अपना वर्तमान वैभवपूर्ण बनाया जा सके। मंदिरों की प्रतिमाओं को सोने के मुकुट और गहने पहनाए जा सके, भले मंदिरों के पास रहने वाले भूखे नंगे हों।
आज सभी पंथ, सम्प्रदाय, संगठन, समाज और सरकारें माफियाओं की अधीन हो चुके हैं। आज ये सब विवश हैं उनके आदेशों का पालन करने के लिए भले अपने ही देश के नागरिक बर्बाद हो रहे हों। इसीलिए आज ये सब उपेक्षित और खंडहरों में रूपांतरित हो चुके हैं। अब केवल नाम ही बचा है, बाकी भीतर सबकुछ माफियाओं का ही है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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