भक्ति में होती है असीम शक्ति

क्या कभी चिंतन-मनन करके जानने का प्रयास किया है कि क्यों अचानक से सोशल मीडिया पर ऐसे प्रवचन और सुविचारों की बाढ़ आ गयी, जो यह समझा रहे हैं कि ध्यान में डूब जाओ, भजन करो, कीर्तन करो और भूल जाओ बाहरी दुनिया को ?
क्यों धार्मिक और आध्यात्मिक होने की परिभाषा आज चार्वाक दर्शन पर आधारित “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीना हो गया है ?
क्यों दुनिया के सारे धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों का विरोध करने की बजाय, यह सिखाने लगे कि यह दुनिया स्वप्नलोक है, माया है, यहाँ कुछ भी सत्य नहीं है। जो भी सत्य है वह मरने के बाद ही मिलेगा….स्वर्ग, जन्नत, मोक्ष, सालवेशन, निर्वाण, केवल्य…..सबकुछ मरने के बाद और यही वास्तविक सत्य है ?
यदि हम अपनी बुद्धि-विवेक का प्रयोग करें और समझने का प्रयास करें। तो दुनिया के सभी धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु यही समझाना चाहते हैं कि माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों का विरोध करने की मूर्खता मत करो, क्योंकि वे बहुत शक्तिशाली हैं और वे ही सृष्टि के पालनहार हैं। इससे अच्छा है कि अपनी आँख, कान, मुँह बन्द करके ध्यान भजन करो, माफियाओं की स्तुति वंदन करो या अपने-अपने अपने आराध्यों की स्तुति-वंदन करो। ताकि जीवन सुखमय बीते सरकारी और गैर-सरकारी कंपनी के गुलामों की तरह।
बहुत से आध्यात्मिक गुरु मानते हैं कि स्वर्ग/जन्नत, मोक्ष, निर्वाण सब जीते जी प्राप्त हो सकता है, इन्हें प्राप्त करने के लिए मरने की आवश्यकता नहीं है। केवल भक्त बन जाओ और डूब जाओ भक्ति में। भक्ति के जीवंत प्रमाण हैं आरएसएस, भाजपा, इस्कॉन, आनन्दमार्ग, विश्वहिन्दू परिषद, हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध जैसे बड़े-बड़े संगठनों और समाजों के सदस्य, अनुयायी व भक्त।
भक्ति में असीम शक्ति होती है
भक्त को सर्वोच्च स्थान पर माना गया है। कहा जाता है कि भगवान स्वयं भक्तों के दास होते हैं। मीरा, सूरदास आदि भक्ति के प्रेरणा स्त्रोत माने जाते हैं।
भक्त उन्हें कहते हैं, जो किसी से प्रभावित हो जाते हैं व्यवहार, प्रचार, भीड़, नौलखा सूट, या टी शर्ट देखकर और डूब जाते हैं भक्ति में। फिर इन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता सिवाय अपने आराध्य के। ना इन्हें उनके विचारों से कोई लेना देना, ना उनके व्यवहारों और कर्मों से। इन्हें तो केवल स्तुति वंदन, कीर्तन भजन और जपनाम करना होता है।
आधुनिक युग में भक्ति का सर्वोच्च उदाहरण यदि कोई है, तो वह है मोदी-भक्त। यदि आपको महंगाई, भ्रष्टाचार, लूटमार, बिकता हुआ देश दिखाई दे रहा है, तो आप आरएसएस या भाजपा की सदस्यता लेकर मोदी-भक्ति में डूब जाइए। फिर ना महंगाई नजर आएगी, ना बेरोजगारी नजर आएगी, ना कार्डियक अरेस्ट से मरते युवा और बच्चे नजर आएंगे…. हर तरफ सुख ही सुख नजर आएगा, मोदी भक्ति के नशे में धुत्त लोग नजर आएंगे और ऐसा लगेगा मानो स्वर्ग ही पृथ्वी पर उतर आया हो, या फिर आप स्वयं स्वर्गवासी हो गए।
भक्त, अनुयायी और शिष्य में बहुत अंतर होता है
भक्त कैसे होने चाहिए वह तो आप समझ ही गए होंगे, लेकिन अनुयायी और शिष्य भक्तों से अलग कैसे होते हैं, यह नहीं जानते होंगे।
अनुयायी और भक्तों में बहुत समानता होती है, लेकिन फिर भी भक्तों से अलग दिखाई पड़ते हैं। भक्तों को ड्रेसकोड की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें तो केवल भक्ति से मतलब होता है। जबकि अनुयायी अपने आराध्य या गुरुओं की नकल बन जाते हैं। और पूरी ज़िंदगी उन्हीं की तरह दिखने का प्रयास करते हैं। उन्हें अपने आराध्य गुरुओं की बातें कंठस्थ होती हैं, उन्होंने जो कहा, जैसा कहा, बिलकुल वैसा ही करते हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि ठंडे पानी से ही नहाना है, तो वे हिमालय की चोटी पर पहुँचकर भी ठंडे पानी से ही नहायेंगे। उनके आराध्य ने कहा कि महंगाई डायन है तो सभी महंगाई को डायन मान लेंगे और भूखों मरने लगेंगे। लेकिन जैसे ही उन्होंने कहा कि महंगाई अब डायन नहीं विकास की मौसी हो गयी है, तो भुखमरी गायब, बेरोजगारी गायब, सारी दरिद्रता गायब हो जाएगी और वे सब अदानी, अंबानी, माल्या, चौकसी, मोदी की तरह स्वर्गमय जीवन जीने लगेंगे।
क्योंकि भक्ति में असीम शक्ति होती है और भक्त यदि अनुयायी बन जाये तो सोने पर सुहागा। अनुयायी को कीचड़ में भी स्वर्ग की अनुभूति होती है और जो अनुयायी नहीं होता उसे रामराज्य में भी गरीबी, भुखमरी सताने लगती है।
इसीलिए दुनिया के सभी धार्मिक, आध्यात्मिक गुरु, संगठन, संस्था, समाज अपनी तरफ से पूरा प्रयास करते हैं कि अधिक से अधिक लोगों को भक्त और अनुयायी बना लें और उन्हें भुखमरी, दरिद्रता, शोषण और अत्याचार से मुक्त करवा दें।
देखा होगा आपने कि इस्लामिक समाज हो या हिन्दू समाज, या जैन, बौद्ध, सिक्ख समाज, आनन्दमार्ग, इस्कॉन, आरएसएस, भाजपा…..आदि में कोई दरिद्र नहीं है। ना ही कोई शोषित, पीड़ित मिलेगा, और ना ही इनपर कोई अत्याचार ही कर सकता है। ना इन् पर महंगाई का असर पड़ता है, ना ही एफडीआई का, ना ही देश की सार्वजनिक सम्पत्तियों के नीलाम होने। ये सभी अदानी, अंबानी, माल्या, नीरव चौकसी, सत्ता-पक्ष के मंत्रियों, विधायकों और सरकारी अधिकारियों की तरह स्वर्गमय जीवन जीते हैं। यही कारण है कि इन संगठनों, संस्थाओं, समाजों, पंथों की सदस्यता लेने के लिए लोग लाइन लगाकर खड़े मिलते हैं, सरकारी नौकरी पाने के लिए लोग कठिन से कठिन रट्टामार पढ़ाई करते हैं।
आखिर सभी को सुखी जीवन जीने का अधिकार है और सुखी जीवन तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति सपरिवार भक्त, अनुयायी या गुलाम बन जाता है।
शिष्य बिलकुल भिन्न होते हैं अनुयायियों और भक्तों से
अधिकांश लोग मानते हैं कि गुरुमंत्र लेकर दीक्षित हो जाने से या दिन रात गुरु की सेवा में लिप्त रहने से शिष्यत्व प्राप्त होता है। लेकिन ऐसा है नहीं।
क्योंकि जो दिन रात गुरु की भक्ति में, सेवा में लिप्त रहता है वह अंततः भक्त या अनुयायी ही बनता है, शिष्य नहीं बन पाता। ओशो का वह वक्तव्य ज्ञात होगा आपको, जिसमें उन्होंने कहा था, मेरा कोई शिष्य नहीं है। जिस दिन कोई आकर कहेगा कि अब मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं, मुझे तुम्हारी जय-जय करने की भी आवश्यकता नहीं….क्योंकि मैं अब आगे की यात्रा पर बढ़ गया हूँ। जितना तुमने जाना, जितना तुमने सिखाया, अब उससे आगे जानने निकल रहा हूँ…..उस दिन मैं कह पाऊँगा कि मेरा कोई एक शिष्य हुआ, लेकिन अभी मेरा कोई शिष्य नहीं है।”
क्योंकि गुरु का कार्य तभी सार्थक होता है, जब शिष्य गुरु से आगे बढ़ जाता है, नयी खोजें करता है, समय के अनुसार स्वयं को ही रूपांतरित नहीं करता, बल्कि गुरुओं की शिक्षाओं में भी संशोधन कर सकता है। जबकि भक्त और अनुयायी ऐसा आजीवन नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें तो गुरुओं के विचार ना कभी समझ में आते हैं और ना ही उनके सिद्धान्त और शिक्षाएं। भक्तों और अनुयायियों को तो प्रतीक, प्रतिमाएँ, माला, तस्वीर चाहिए जिसे सामने रखकर जय-जय कर सकें, सुबह शाम भोग लगा सकें, ठंड में कंबल/शाल ओढा सकें, गर्मियों में कूलर एसी लगाकर उन्हें ठंडक प्रदान कर सकें और प्रायोजित महामारी काल में प्रतिमाओं के मुँह पर मास्क पहनाकर विलायत रिटर्न डॉक्टर से इलाज करवा सकें।
शिष्य होना जैविक संतान होने से भी कठिन है। संताने तो प्राकृतिक रूप से अपने माता/पिता से गुण/दुर्गुण अर्जित कर लेते हैं। इसके लिए उन्हें ना तो कुछ समझने की आवश्यकता होती है, ना ही कुछ जानने की। सबकुछ स्वतः आ जाता है। जबकि शिष्य को पहले अपने गुरु को समझना पड़ता है। फिर उनके गुणों और दुर्गुणों में अंतर समझना पड़ता है। उनकी शिक्षाओं का पुनर्मूल्यांकन करना होता है। जो वर्तमानकाल के अनुसार सही न हो, जिन शिक्षाओं से किसी का कोई भला ना हो रहा हो, या जिन शिक्षाओं को आधार बनाकर समाज पतन के गर्त पर जा रहा हो, उससे स्वयं को वह अलग कर लेता है।
शिष्य गुरु की नकल (Carbon Copy) नहीं बनता। अपने गुरु से बिलकुल भिन्न हो सकता है, वह बिलकुल अलग ही पंथ पर चल सकता है….क्योंकि उसकी यात्रा अब अपने गुरु से आगे की यात्रा है। वह अपने गुरु का विस्तार हो सकता है या फिर बिलकुल नए पंथ का निर्माण कर सकता है।
लेकिन शिष्यों से अगल ऐसे भी लोग होते हैं जो किसी को गुरु तो बना लेते हैं, लेकिन फिर अपनी यात्रा स्वयं शुरू करते हैं। उन्हें गुरुओं की शिक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं होता, क्योंकि चैतन्य होते हैं। चैतन्य व्यक्ति वह कहलाता है जो अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग कर चिंतन-मनन करने के पश्चात ज्ञान अर्जित करता है। और ऐसे ही व्यक्तियों को जागृत और चैतन्य कहा जाता है, क्योंकि वे भक्तों और अनुयायियों की तरह मूर्छित ज़ोम्बी नहीं हैं। उनके पास अपनी विवेक बुद्धि है सही और गलत के भेद को समझने के लिए। वे मोदीभक्तों या इस्कॉन के सदस्यों की तरह दिमाग से पैदल गुलाम नहीं हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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