ना समाज सुधरा कभी और ना सुधरा संसार

चिंतन-मनन करने के लिए भक्ति मुक्त मस्तिष्क चाहिए होता है। लेकिन समाज और सरकारें कभी नहीं चाहतीं कि व्यक्ति भक्ति से मुक्त होकर स्वतंत्र चिंतन-मनन करे। क्योंकि जो चिंतन-मनन करने लगता है, वह माफियाओं और लुटेरों के लिए समस्या खड़ी कर सकता है दूसरों को भी अपना मस्तिष्क प्रयोग करने के लिए प्रेरित करके।
इसीलिए देखा होगा आपने कि समाज हमेशा इस प्रयास में रहता है कि व्यक्ति किसी न किसी की भक्ति अवश्य करे। और समाज के लिए यह आवश्यक भी है कि समाज में ऐसा कोई व्यक्ति उभरने ना पाये जो जागृत हो, जिसमें जन्मजात चिंतन-मनन करने की प्राकृतिक क्षमता बची हुई हो।
क्योंकि समाज आश्रित है माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों से मिलने वाली सेलरी, दान, दक्षिणा, दया और कृपा पर। यदि माफिया और लुटेरे नाराज हो गए, तो करोड़ों लोग बेरोजगार हो जाएंगे। ऊपर से भारत की 80 करोड़ जनता दान पर मिलने वाली पाँच किलो राशन पर आश्रित है, वे भला किस मुँह से विरोध कर सकते हैं ?
विरोध तो दूर, जनता तो जागृत करने का प्रयास करने वालों की ही शत्रु बन जाती हैं। लेकिन लुटेरों और माफियाओं को खुले दिल से दान भी करती हैं, ताकि वे अधिक से अधिक ताकतवर बन सकें।
यह बड़ा विरोधाभास है कि जैसे-जैसे व्यक्ति जागृत होता जाता है, उसके आसपास की भीड़ छंटने लगती है। यहां तक कि लंगोटिया यार (Underwear Friends), सगे-सम्बन्धी भी दूरी बनाने लगते हैं।
जबकि सामान्य धारणा है कि जागृत लोगों के साथ हर कोई जुड़ना चाहता है। लेकिन यदि आप ध्यान दें तो मनोरंजन करने वालों, किस्से कहानियां सुनाने वालों, मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धांत पर जीना सिखाने वालों, भभूत ताबीज देकर समस्याएं सुलझाने वालों, झूठे वादे करने वालों, अच्छे दिन आयेंगे के सपने दिखाने वालों, नौकरियां दिलाने वालों, तमाशा दिखाने वालों के आसपास ही भीड़ इकट्ठी होती है। जागृत लोगों से तो भीड़ का छत्तीस का आंकड़ा रहता है।
इसीलिए ओशो ने भी जनता की नब्ज पकड़ी और सभी को समझाना शुरू किया कि सरकार, समाज, माफियाओं की चिंता छोड़ो और मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धांत पर जीना सीखो।
बस फिर क्या था, सारी भीड़ दौड़ पड़ी ओशो की जय जय करते हुए।
क्या आपकी नजर में ऐसा कोई जागृत व्यक्ति है, जो जनता से कहता हो कि माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों का बहिष्कार करो और भी वह भीड़ से घिरा रहता हो ?
मेरी नजर में तो एक भी नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द हों, या ओशो, या प्रभात रंजन सरकार, या ठाकुर दयानन्द देव, या सफदर हाशमी…..सभी को अंत में निराश ही होकर जाना पड़ा। संभवतः इसीलिए बुद्ध हों या ओशो, सभी ने यही समझाया कि समाज कि चिंता छोड़ दो, और मुक्ति के उपाय पर काम करो। क्योंकि ना सुधरा समाज कभी ना सुधरा संसार !
~ विशुद्ध चैतन्य
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