पंथों, पार्टियों, समाजों के चक्रव्युह में उलझ गया कर्मयोग !

पिछले कई बरस से जब भी ठंड बढ़ती, एक अच्छा जैकेट खरीदने का मन करता। लेकिन कभी भी इतने पैसे जेब में नहीं होते कि अच्छी जैकेट खरीद पाऊँ।
फिर सोचता हूँ कि संन्यासियों को जैकेट की क्या आवश्यकता, संन्यासी तो एक कपड़े में जीवन काट लेते हैं। कितने संन्यासी तो आजीवन निक्कर तक नहीं पहनते, निर्वस्त्र रहते हैं। और जनता ऐसे साधु-संन्यासियों का बड़ा मान सम्मान करती है।
फिर सोचता हूँ कि मान-सम्मान प्राप्त करने लिए स्वयं को कष्ट क्यों देना ?
फिर जो समाज स्वयं माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों के सामने नतमस्तक रहता हो, ऐसे समाज से मिले मान-सम्मान का महत्व ही क्या है ?
जो समाज अपने गुरुओं, अपने आदर्शों के दिखाये मार्ग पर नहीं चलता, लेकिन उन्हें पूजने का ढोंग करता है उनसे मिले मान-सम्मान का महत्व ही क्या है ?
जो साधु-समाज त्यागी बैरागी होने का ढोंग करता है, लेकिन दिन रात पैसों के पीछे भागता रहता है उस समाज से मिले मान-सम्मान का महत्व ही क्या है ?
जब यह सब प्रश्न उभरते हैं, तो सोचता हूँ कि खरीद ही लूँ इस बार जैकिट….लेकिन फिर ध्यान आता है कि मैं तो कर्मयोगी हूँ नहीं कि मेरे पास पैसे आ जाएँ किसी माफिया या देश व जनता के लुटेरे के पास से इनाम या दान स्वरूप। क्योंकि माफिया लोग सबसे अधिक दान अपने पालतू साधु-संन्यासियों को ही देते हैं….मेरे जैसे छुट्टे सांड को तो लोग दूर से ही प्रणाम करके निकल जाते हैं।
फिर सोचता हूँ कि कर्मयोगी बनना ही क्यों ?
इस दुनिया में सच्चा कर्मयोगी तो गधा होता है, कोल्हू का बैल होता है, सर्कस के जानवर होते हैं, सरकारी और गैर सरकारी गुलाम होते हैं। क्या एक संन्यासी को इन्हीं की तरह बनना शोभा देता है ?
और ये सारे कर्मयोगी कर्म कर किसके लिए रहे हैं ?
क्या अपने और अपने परिवार के सुख के लिए ?
बिलकुल नहीं….ये सब कर्म कर रहे हैं माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों को अधिक से अधिक समृद्ध और ताकतवर बनाने के लिए। ये कर्मयोगी जो कुछ भी कमा रहे हैं कोल्हू का बैल बनकर….वह सब माफियाओं के लिए ही कमा रहे हैं। इनके अपने हिस्से तो केवल गुलामी और मजदूरी ही आती है और फिर सारी कमाई माफियाओं को सौंपकर खाली हाथ दुनिया से विदा हो जाते हैं।
जब खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है….तो फिर माफियाओं के लिए कमाना क्यों ?
मधु-मक्खियाँ अपना छत्ता बनाती है दिन रात एक करके, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई संगठन बनाता है, कोई पार्टी बनाता है, समाज बनाता है, परिवार बनाता है। क्योंकि उसने उन धार्मिक ग्रन्थों को नहीं पढ़ा, जिसमें लिखा है खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है….और परिणाम यह होता है कि एक दिन कुछ लोग आकर उसके छत्ते में बिलकुल वैसे ही कब्जा कर लेते हैं, जैसे राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, जातिवादी पार्टियों, संगठनों, संस्थाओं, सरकारों पर कब्जा कर लेते हैं पूंजीपति और माफिया। और फिर खरीदने/बेचने का कारोबार शुरू हो जाता है। छत्तों की संस्थापक मधु-मक्खियाँ बेचारी गुलामी का जीवन जीती हैं या फिर मारी जाती हैं।
आज ऐसा कोई संगठन, संस्था, पार्टी, समाज या सरकार नहीं हैं दुनिया में, जो माफियाओं की गुलाम न हो। फिर कर्मयोगी बनने का लाभ क्या, जब कोल्हू के बैल और गधों की तरह दिन रात माफियाओं के लिए ही काम करना है ?
कभी फुर्सत मिले कर्मयोग से तो चिंतन-मनन करिएगा कि आप लोग कमा क्यों रहे हैं, बैंकों में जो पैसे जमा कर रहे हैं वह सब किसके लिए कर रहे हैं?
एक और नोटबंदी और आपके करेंसी की कीमत दो कौड़ी की नहीं रह जाएगी।
माफियाओं की कैद में हैं धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक संगठन, समाज और सरकारें
दड़बों में कैद इंसान दड़बों से मुक्त होने का प्रयास करने की बजाए, एक दड़बे से निकलकर दूसरे में जाता है यह सोचकर कि शायद वहाँ सुख मिले। लेकिन हर दड़बे की अपनी समस्याएँ हैं और हर दड़बे का अपना दुःख। फिर कोई चैतन्य व्यक्ति आता है, समाज को कोई नयी राह दिखाता है और फिर लोग उसके नाम पर एक नया दड़बा बना लेते हैं।
ओशो ने लोगों को दड़बों से मुक्त करवाना चाहा, लेकिन उनके ही अनुयायी उनके ही नाम का दड़बा बनाकर बैठ गए। फिर भी बाकी दड़बों की तरह इसमें अभी वह कट्टरता नहीं आयी है जो इस्लामिक और संघी-बजरंगी छाप हिन्दुत्व में आ चुकी है।

आज विश्वभर में अनगिनत दड़बे होंगे, जिन्हें दुनिया समाज कहती है, पंथ कहती है, मार्ग कहती है, परिवार कहती है, धर्म कहती है। लेकिन क्या ये सब दड़बे वास्तव में परिवार होते हैं, समाज होते हैं, मार्ग होते हैं, धर्म होते हैं ?
नहीं….ये सब दड़बे ही होते हैं, जिनमें मुर्गियों, बत्तखों, भेड़ों के झुण्ड रहते हैं। और इस झुण्ड को सिखा दिया गया है कि पूजा, पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास, स्तुति-वंदन करने से प्रसाद/भोजन/चारा मिलता है, सुख मिलता है। तो इन्सानों ने ज़िंदा रहने के लिए सर्कस के जानवरों की तरह वही सब करना शुरू कर दिया, जो करने से उन्हे भोजन मिलता है, पैसा मिलता है, चारा मिलता है। और इन्हीं सब कर्मकांडों को कालांतर में कर्मयोग घोषित कर दिया गया।
कर्मयोग: दुनिया में जीना है तो काम कर प्यारे
बहुत सार्थक गीत है यह, “दुनिया में जीना है तो काम कर प्यारे, हाथ जोड़ सबको सलाम कर प्यारे…“
जैसे संप्रदायों को धर्म घोषित करके माफियाओं ने सांप्रदायिक द्वेष व घृणा फैलाकर समाज को बाँटा ताकि जनता को गुलाम बनाकर रखा जा सके। ठीक वैसे ही कर्मयोग, कर्मवाद की आढ़ में भी माफियाओं ने अपने लिए गुलाम ही पैदा किए।
कभी ध्यान दीजिएगा कि राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय जो सम्मान और पुरुस्कार दिये जाते हैं, वह किन लोगों को मिलते हैं। क्या कोई भी पुरुस्कार ओशो, श्री प्रभात रंजन सरकार या ऐसे पत्रकारों को मिला, जिन्होंने जनता को जागरूक करने के लिए अपना पूरा जीवन दांव पर लगा दिया ?
बहुत से लोग कहेंगे कि रविश को मिला, केजरीवाल को मिला, किरण बेदी को मिला…..लेकिन क्या उन्हें जनता को जागरूक करने के लिए पुरुस्कार मिला था ?
नहीं…उन्हे पुरुस्कार मिला फार्मा माफियाओं के द्वारा रचे षडयंत्रों के विरुद्ध मुँह ना खोलने के लिए।
दुनिया के सबसे सम्मानित पदों को देख लीजिये। वे सब पद सम्मानित इसलिए नहीं हैं कि उन पदों पर बैठा जनता के हितों के लिए कार्य कर रहा है। बल्कि इसलिए सम्मानित हैं, क्योंकि माफियाओं के हितों के लिए कार्य करने वाला उन पदों पर आसीन होता है।
दुनिया का सबसे सम्मानित डॉक्टर और साइंटिस्ट जनता से झूठ बोलता है। दुनिया का सबसे सम्मानित धर्मगुरु, आध्यात्मिक गुरु, जातिवादी गुरु और नेता जनता से झूठ बोलता है माफियाओं को लाभ पहुंचाने के लिए। इसलिए उन्हें सम्मान मिलता है।
लेकिन जो समाज को, जनता को सत्य दिखाएगा, षडयंत्रों का पर्दाफ़ाश करेगा….वह हर जगह दुतकारा जाएगा। उसे जेल हो सकती है, उसे सूली पर लटकाया जा सकता है, उसे जहर दिया जा सकता है…….लेकिन जीते जी तो उसे सम्मान नहीं ही मिलेगा। और मरने के बाद सम्मान भी केवल इसलिए मिलता है, क्योंकि उसके नाम पर अरबों-खरबों का कारोबार खड़ा कर लिया जाता है। ना तो उनके अनुयायी ही उनके दिखाये मार्ग पर चलते हैं और ना ही समाज, ना सरकारें। सभी चलते हैं माफियाओं के दिखाये मार्ग पर…क्योंकि उन्हीं के दिखाये मार्ग पर चलने पर सम्मान मिलता है। और वह मार्ग होता है कोल्हू के बैल और गधों की तरह बिना फल की इच्छा किए कर्म किए जाओ।
दुनिया में जीना है तो काम करना पड़ेगा, माफियाओं को झुक-झुक कर सलाम करना पड़ेगा और यही है माफियाओं द्वारा गढ़ा गया कर्मयोग।
यदि किसी विवशता वश समाज किसी को कुछ दान करता है और बदले में उससे कुछ मिलने की अपेक्षा नहीं रहती, तो उसे भिखारी कहने का चलन है। क्योंकि गुलामों की दुनिया में बिना गुलामी किए, बिना कोल्हू का बैल बने, बिना गधा बने कोई ज़िंदा है, तो उसका सम्मान नहीं हो सकता। सम्मान तो दूर की बात है, कोई उससे सीधे मुँह बात तक नहीं करना चाहता। और कभी भूले भटके कोई सहायता कर भी दे उसकी, तो आजीवन एहसानों का बोझ लाद दिया जाएगा उसपर, ताकि कभी वह सर उठाकर ना चल सके।
सोचिएगा कभी कि जिस मेहनत की कमाई पर आप लोग अकड़ते हैं, वह मेहनत आप कर किसके लिए रहे हैं ?
क्या अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों की सेवा करके अपना बैंक बेलेन्स नहीं बढ़ा रहे ?
तो आप का कर्मयोग श्रेष्ठ है या वह अकर्मण्य संन्यासी या व्यक्ति श्रेष्ठ है जो किसी की गुलामी नहीं कर रहा, लेकिन माफियाओं के विरुद्ध निर्भीक आवाज उठा रहा हो ?
~ विशुद्ध चैतन्य
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