जनता स्वयं पराधीन और शोषित जीवन को आमंत्रित करती है
अभी कुछ दिनों से झारखण्ड के जैन तीर्थ स्थल पारस नाथ का का मुद्दा उछल गया। एक जैन मुनि ने आत्महत्या कर ली पारसनाथ की रक्षा के लिए। सचिन झा शेखर का यह लेख पढ़िये पहले फिर आगे बढ़ते हैं:
यह बात सही है कि पारसनाथ जैन धर्म का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है। लेकिन जैन समाज द्वारा की गयी यह मांग कैसे उचित है कि वो पूरा क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाए..?
पूरे पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र में 2 प्रतिशत लोग भी जैन धर्म को मानने वाले नहीं हैं। वो आदिवासी हैं, सदान हैं।
पारसनाथ मेरे घर से 30 किलोमीटर की दूरी पर ही है। पूरा का पूरा क्षेत्र दशकों से गरीबी में डूबा हुआ है। नक्सल उन्मूलन के नाम पर हर साल सैकड़ों युवकों को पुलिस उठा कर ले जाती है। मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है। रोजगार के साधन हैं ही नहीं। जैन श्रद्धालुओं से आम जनता को बहुत लाभ नहीं मिलता है। वो आते हैं बड़े होटलों में ठहरते हैं चले जाते हैं। 95 प्रतिशत आबादी गरीबी से जूझ रही है।
झारखंड सरकार इसे अगर पर्यटन क्षेत्र के तौर पर विकसित करना चाहती है तो यह स्वागत योग्य कदम है.. इससे गांव की GDP बढ़ेगी। रोजगार के अवसर आएंगे। उत्तराखंड के तर्ज पर काम होना चाहिए। सांस्कृतिक क्षेत्र में पर्यटन उद्योग तेजी से बढ़ता है।
भावनाओं की राजनीति बंद होनी चाहिए। पिछले 7 दशक में जैन समाज ने आसपास के लोगों के लिए धेला भर भी काम नहीं किया..पहाड़ के आसपास बसी आबादी कठिन जिंदगी जी रही है। उनके अधिकार और उनके आर्थिक विकास को गुजरात और मुंबई में रहने वाले बड़े जैन व्यापारियों के भावनाओं के सम्मान के लिए रोकना उचित नहीं होगा..!!
पारसनाथ पर पहला अधिकार वहाँ सैकड़ों साल से रह रहे आम झारखंडी आदिवासियों का है।
कथित नक्सली मोतीलाल बास्के की एनकाउंटर वाली घटना शायद आपलोगों को याद होगी। गूगल पर सर्च करने पर Rupesh Kumar Singh की कई रिपोर्ट मिल जाएगी। विकास और रोजगार के अभाव में कब तक इस क्षेत्र के युवा गोली खाते रहेंगे? सरकार ने अगर पहल की है तो विकास का एक रोड मैप बनना चाहिए।
– Sachin jha shekahr
यहाँ सचिन ने भी यही कहा कि यदि झारखंड सरकार इसे अगर पर्यटन क्षेत्र के तौर पर विकसित करना चाहती है तो यह स्वागत योग्य कदम है। और देश की अधिकांश जनता भी यही चाहेगी, कि व्यवसायिक केंद्र बढ़ें, फिर चाहे वह व्यवसायिक पर्यटन केंद्र हों, या व्यवसायिक शिक्षण केंद्र हों, या फिर व्यवसायिक न्यायिक केंद्र हों, या फिर व्यवसायिक धार्मिक और आध्यात्मिक केंद्र हों….लेकिन जो भी हो, व्यवसायिक होना चाहिए। क्योंकि आदिवासी भी आज पढ़े-लिखे होने लगे हैं और जो भी पढ़ा लिखा हो जाता है, वह किसी न किसी किसी मालिक की खोज में जुट जाता है।
पढ़ा-लिखा समाज बिना मालिक के जी नहीं सकता
पढ़े-लिखों के साथ सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि वे बिना मालिक के जी नहीं सकते। भले उनके पास कई बीघा खेत पड़े हों, वे अपने लिए उसे उपयोगी बना पाने में अक्षम हैं। क्योंकि सारी शिक्षा पद्धति ही ऐसी डिजाइन की गयी है कि व्यक्ति डिग्रियाँ बटोरने के बाद केवल नौकरी ही खोज सकता है, आत्मनिर्भर होने के अन्य किसी उपाय पर ध्यान नहीं दे सकता।
कई गाँव ऐसे भी हैं, जिससे बड़े बड़े सरकारी अधिकारी निकलते हैं। लेकिन उनका वही गाँव माफियाओं के गिरोह से स्वयं को मुक्त करवाकर आत्मनिर्भर नहीं हो पाता।
औपनिवेषवाद से ग्रस्त माफिया पूरे विश्व की भूमि को अपने अधीन करते चले जा रहे हैं और देश के नागरिकों को अपना गुलाम बनाते चले जा रहे हैं। लेकिन पढ़ा-लिखा समाज भी दिमाग से इतना पैदल हो चुका है कि आने वाली संकट से देश की जनता को बचाने की बजाय, गुलामी की तरफ धकेल रहा है। स्वयं तो आजीवन गुलामी से मुक्त नहीं हो पाता, लेकिन अपनी आने वाली पीढ़ी को गुलामी की जंजीर ही सौंपकर जाना चाहता है।
और ऐसी मानसिकता के लिए सर्वाधिक दोषी हैं वह साधू-समाज जो स्वयं “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीते ही हैं, जनता को भी सिखाते हैं कि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है, इसलिए विरोध मत करो माफियाओं का। और थाली-ताली बरतन बजाकर स्तुति वंदन करो, जय जय करो…..मोक्ष प्राप्त होगा, जीवनमरण से मुक्ति मिलेगी।
और जीवन मरण से मुक्ति क्यों चाहिए ?
क्योंकि यह दुनिया माफियाओं की है, उन्हें ही इस दुनिया में जीने का अधिकार है, बाकी सब तो खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जाना है….इसीलिए माफियाओं की गुलामी करो, उनकी चाकरी करो और जब तक ज़िंदा हो, उसके बाद स्वर्ग में हूरें मिलेंगी, अप्सराएँ मिलेंगी, दारू की नदियां मिलेंगी….ऐश ही ऐश।
क्या आश्चर्य नहीं होता कि वस्त्रों तक का त्याग कर चुके त्यागियों का समाज पारस पर्वत के लिए प्राण त्याग रहा है ?
वह समाज जिसने एक शब्द भी विरोध में नहीं बोला जब प्रायोजित महामारी के आतंकियों ने तीरथों पर ताले लगवा दिये थे महामारी का आतंक फैलाने के लिए ?
अजीब ही तमाशा मचा हुआ है पूरी दुनिया में। जिस समय विरोध करना होता है, आवाजें नहीं निकलती किसी की और जब विरोध करने की कोई वजह ही नहीं होती, तब लोग प्राणों की आहुती देने लगते हैं ?
जब यह प्रमाणित हो ही चुका है कि दुनिया के सभी तीर्थ और धार्मिक स्थल केवल व्यावसायिक पर्यटन स्थल मात्र हैं, उनमें ऐसी कोई शक्तियाँ नहीं हैं, जिनसे किसी बीमारी या महामारी का बचाव हो सके, जो महंगाई, भ्रष्टाचार और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों से सुरक्षा कर सके….तो फिर व्यर्थ का विवाद काहे ?
क्योंकि खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है….सब माफियाओं का है उन्हें ही सौंप कर जाना है।
3 करोड़ की जनसंख्या वाला देश 40 करोड़ की जनसंख्या वाले देश को अपना गुलाम बना लेता है।
जानते हैं क्यों ?
क्योंकि 40 करोड़ की जनसंख्या वाले देश की जनता को धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु यही समझाते रहे कि तुम्हारा काम तो केवल थाली, ताली और बर्तन बजाकर भजन-कीर्तन गाना है। क्योंकि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है।
देशभक्ति अब केवल किस्से कहानियों तक ही सीमित रह गए
बचपन में देशभक्ति और बलिदान की कहानियाँ इतनी पढ़ीं कि शरीर के हर कण में देशभक्ति समा गयी। लेकिन जब बड़ा हुआ तो समझ में आया कि देशभक्ति की बातें केवल वही करते हैं, जो अनपढ़, गंवार होते हैं। पढ़े-लिखे लोग तो “One World One Nation” की बात करते हैं।
पढ़े-लिखे लोग समझ चुके हैं कि जब गुलामी माफियाओं की ही करनी है, अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरी के लिए विदेश ही जाना है, सरकारी नौकर बनकर भी जब विदेशियों की गुलाम सरकारों की ही सेवा करनी है, तो देश, वीज़ा, पासपोर्ट का झंझट समाप्त होना चाहिए। जब पूरी दुनिया का मालिक एक ही है, उसी के आदेशानुसार पूरी दुनिया की सरकारें चलती हैं, तो फिर मेरा देश, उसका देश जैसी नौटंकी करने की आवश्यकता ही क्या है ?
सही हैं पढ़े-लिखे लोग…आखिर पढ़ाई की ही गुलामी के लिए थी, तो फिर क्या फर्क पड़ता है देश रहे न रहे….रहना तो गुलाम ही है।
आश्चर्य होगा जानकर कि जो देश अमेरिका, ब्रिटेन या चीन पर आश्रित हैं, उन सभी देशों में देश-भक्तों की संख्या इतनी कम है कि वे सारे मिलकर भी देश को बचाने निकलें, तो माफियाओं के 15-20 गुंडे ही निपटा देंगे उन्हें।
देशभक्ति अब केवल किस्से कहानियों तक ही सीमित रह गए हैं बिलकुल वैसे ही जैसे धार्मिकता, नैतिकता और सत्यवादी। अब तो सर्वोच्च न्यायालयों में भी देशभक्त नहीं पाये जाते।
नीचे ओशो का एक प्रवचन दे रहा हूँ, ध्यान से सुनिएगा।