जिन्हें धार्मिक और आध्यात्मिक माना जाता है, वे सब व्यापारी हैं

झारखण्ड अब फिर चर्चा में है पारसनाथ विवाद के कारण। आखिर यह विवाद अचानक फिर क्यों उठ खड़ा हुआ ?
कारण है स्वार्थ।
सबका अपना अपना स्वार्थ है, परमार्थ से कोई सम्बन्ध ही नहीं है।
जो त्यागी बैरागी अपने वस्त्र तक का त्याग कर चुके हैं, वे पारसनाथ की भूमि के लिए आत्महत्या करने लगे। अर्थात अभी त्यागियों की मुक्ति नहीं हुई मोह और आसक्ति से, भले दुनिया भर का कष्ट सहते हुए त्यागी बने फिरते हैं।
आसक्ति से मुक्ति यदि सीखनी है, तो बौद्धों से सीखिये, जिनकी ऐतिहासिक बौद्ध प्रतिमाएँ तोड़ दी जाती हैं और वे शांत रहते हैं। क्योंकि उनकी आस्था प्रतिमाओं, प्रतिकों में नहीं है विचारों में है, सिद्धांतों पर है।
दूसरी बात यह कि जैन तीर्थ होने के बाद भी, उसके आसपास के गाँव दरिद्र हैं। नक्सली का आरोप लगाकर युवाओं को उठा लेती है पुलिस वहाँ से, और कोई जैन मुनि चूँ भी नहीं करता। क्योंकि इन्हें कोई मतलब नहीं आसपास के आदिवासियों, ग्रामीणों से। इन्हें तो बस अपनी मुक्ति के लिए पारसनाथ में साधना करनी है।
तो स्वाभाविक है कि जो समाज आसपास के गाँव के कल्याण के लिए कोई कदम नहीं उठाता, वह अखरेगा ही उन्हें, जिन्हें नारकीय जीवन जीने पर विवश होना पड़ रहा है। और ऐसे दरिद्रों को कोई भी राजनेता, माफिया अपने पक्ष में बड़ी आसानी से कर लेगा पाँच किलो राशन और नौकरी का लालच देकर।
गैर जैनियों ने पारसनाथ घेरने की चेतवानी दी
अब बात करते हैं उन राजनैतिक पार्टियों की जो पारसनाथ घेरने की बात कर रहे हैं। इन्हे पारसनाथ में इतनी रुचि क्यों है ?
क्योंकि इनकी खुद की कोई पहचान नहीं। इन्होंने ग्रामीणों, आदिवासियों के लिए ऐसे कोई कार्य नहीं किए, जिससे उनका जीवन सहज हो सके। उल्टे अदानी, जिंदल जैसे भूमाफियाओं के साथ मिलकर ये राजनैतिक पार्टियां आदिवासियों पर अत्याचार करने से नहीं चूकतीं। क्योंकि इनकी दाल रोटी भी माफियाओं द्वारा मिली दान और दलाली से ही चलती है।
फिर अचानक से पारसनाथ को टूरिस्ट कॉरीडोर में बदलने का विचार क्यों आया सरकार को ?
पारसनाथ की पहचान जैन समाज के आराध्य के कारण है, वरना उसकी अपनी कोई पहचान नहीं। लोग पारसनाथ पर्वत को जैन तीर्थ स्थल के रूप में जानते हैं। और इसमें सरकार या आदिवासियों का कोई योगदान नहीं। फिर उसे पर्यटन केंद्र क्यों बनाना चाहते हैं ?
क्योंकि प्रायोजित महामारी काल में तीरथों और धार्मिक स्थलों को बंद करवाकर सरकारों ने जान लिया कि जनता को इनमें कोई श्रद्धा या आस्था है नहीं। सभी की आस्था फार्मा माफियाओं और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वाली सरकारों पर ही है। तो स्वाभाविक है कि अब सरकारें सभी तीर्थों को व्यावसायिक पर्यटन केन्द्रों में रूपांतरित करेंगी ही।
फिर पढ़ी-लिखी जनता इस योग्य नहीं कि अपनी बुद्धि से अपने गांवों, देहातों को आत्मनिर्भर और सुखी बना सके। क्योंकि जो पढ़ाई की है, वह गुलामी करने के लिए की थी। डिग्रियाँ मिलते ही निकल पड़ते हैं शहरों में अपना मालिक खोजने। उसके बाद गाँव में क्या हो रहा है, कौन रो रहा है, कौन मर रहा है जानने की फुर्सत ही नहीं मिलती।
सत्य तो यह है कि धर्म हो या अध्यात्म्क, सब बाजार है और इस बाजार में कोई बिकने के लिए तैयार तो कोई खरीदने के लिए तैयार बैठा है।
श्रमिक वर्ग इस योग्य नहीं होता कि अपनी बुद्धि से अपने गांवों को संरक्षित कर पाये, अपने खेत, जंगलों को संरक्षित कर पाये। और बुद्धिजीवी वर्गों की बुद्धि खरीद ली जाती है माफियाओं के द्वारा। और जो बिकने को तैयार नहीं, उसके साथ उसका अपना परिवार भी नहीं होता। क्योंकि बाजार में दो ही लोग जी सकते हैं, एक वह जो बिकना चाहता है और दूसरा वह जिसमें खरीदने की क्षमता होती है।
देखते ही देखते सारा देश बिकता जा रहा है, और जनता थाली-ताली, बर्तन बजाकर नाच रही है। धार्मिक और आध्यात्मिक लोग सूअरों की तरह पड़े हैं “मैं सुखी तो जग सुखी” मंत्र का जाप करते हुए।
धार्मिक और आध्यात्मिक लोग ही नहीं, पढ़े-लिखे डिग्रीधारी वेतनभोगी भी किसी बिकाऊ राजनेता और क्रिकेट खिलाड़ी से अलग नहीं होते। ना तो इनका कोई ईमान, धर्म होता है, ना ही होता है कोई स्वाभिमान। और यही लोग जिम्मेदार हैं विदेशियों को आमंत्रित कर पूरे देश गुलाम बनाने के लिए।
क्या सिखाया आपके आध्यात्मिक, धार्मिक गुरुओं ने सिवाय पलायन, स्तुति-वंदन और “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीते हुए माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों की गुलामी करने के ?
आपके धार्मिक ग्रंथ, आपके ईश्वरीय, आसमानी, हवाई किताबों ने आपको सिवाय गुलाम और भेड़-बत्तख बनाने के और कौन सा महत्वपूर्ण योगदान दिया ?
आपकी डिग्रियाँ, आपकी पाश्चात्य शिक्षण पद्धति वाले महंगे-महंगे स्कूलों और कोलेजस ने आपको इस लायक भी नहीं छोड़ा कि अपनी विवेक बुद्धि का प्रयोग कर पाओ ?
ऐसा कैसा विकास कर लिया आप लोगों ने, जो अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों से बचाने की बजाए, उनकी गुलामी स्वीकारने पर गर्व की अनुभूति होती है ?
~ विशुद्ध चैतन्य
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