मेरी पहली संन्यासिन का नाम है, माँ आनंद मधु! -ओशो

हाँ, एक स्त्री! क्योंकि मैं यही चाहता था ।
जिस तरह मैंने स्त्रियों को संन्यास दिया, किसी ने कभी नहीं दिया ।
इतना ही नहीं, मैं अपनी पहली संन्यास दीक्षा किसी स्त्री को ही देना चाहता था- संतुलन के लिए ।
स्त्री को संन्यास देने में बुद्ध तक हिचकिचाये…. बुद्ध तक !!!
उनके जीवन की सिर्फ यही एक बात मुझे कांटे की तरह खटकती है, और कुछ नहीं ।
बुद्ध झिझके…..क्यों ??
उन्हें डर था कि स्त्री सन्यासिनियां उनके भिक्षुओं को डांवाडोल कर देगी । क्या बकवास है ! एक बुद्ध और डरे !!! अगर उन मूर्ख भिक्षुओं का ध्यान भंग होता था तो होने देते ।
महावीर ने कहा कि स्त्री के शरीर से किसी को निर्वाण, परम मुक्ति नहीं हो सकती ।
मुझे इन सब पुरुषों के लिए प्रायश्चित करना है । मोहम्मद ने कभी स्त्री को मस्जिद में आने की इजाजत नहीं दी । अभी भी स्त्रियों को मस्जिद में आने की अनुमति नहीं है । सिनागॉग में भी स्त्रियां गैलरी में अलग बैठती हैं, पुरुषों के साथ नहीं बैठतीं ।
इंदिरा गांधी मुझे बता रही थीं कि जब वे इजरायल की यात्रा पर थीं और जेरुसलम गईं, तो उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ कि इजरायल की प्रधानमंत्री और वे स्वयं, दोनों बालकनी मैं बैठी हुई थीं और सारे पुरुष नीचे मुख्य हॉल में बैठे हुए थे । उसे खयाल नहीं आया कि इजरायल की प्रधानमंत्री भी, स्त्री होने के कारण, मुख्य सिनागॉग में प्रवेश नहीं कर सकती थी । वे केवल बालकनी से देख सकती थीं ।
यह आदरपूर्ण नहीं हैं, यह अपमानजनक है ।
मुझे मोहम्मद, मोजेज, महावीर, बुद्ध के लिए माफी मांगनी है । और जीसस के लिए भी, क्योंकि उन्होंने अपने खास बारह शिष्यों में एक भी स्त्री नहीं चुनी ।
और जब उन्हें सूली लगी तो ये बारह मूर्ख वहाँ नहीं थे ।
केवल तीन स्त्रियां उनके पास थीं – मेग्दलीन, मैरी और मेग्दलीन की बहन । पर इन तीन स्त्रियों को भी जीसस ने नहीं चुना; वे चुने हुए खास बारह शिष्यो में नहीं थीं । चुने हुए खास शिष्य तो भाग गए थे । वे अपनी जान बचाने की कोशिश में थे ।
खतरे के समय केवल स्त्रियां ही आईं ।
इन सब लोगों के लिए मुझे भविष्य से क्षमा मांगनी है और मेरी पहली माफी थी कि सबसे पहले स्त्री को संन्यास दिया ।
ओशो
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