आध्यात्मिक यात्रा में बाधक है एलोपैथ !

यदि मैं कहूँ कि आध्यात्मिक यात्रा में बाधक है एलोपैथ तो स्वाभाविक है कि आपको आश्चर्य ही होगा। यह भी हो सकता है कि आप कहें मुझसे कि किसी अच्छे मनोचिकित्सक से अपना उपचार करा लो ?
लेकिन सत्य यही है कि एलोपैथ बाधक है आध्यात्मिक यात्रा में और इस तर्क को समझने के लिए आपको यह समझना होगा कि आध्यात्म है क्या।
आध्यात्म क्या है ?
सामान्य धारणा है कि आध्यात्म है ध्यान, साधना, अपने में मस्त रहना, नामजाप करते रहना। और यह धारणा इसलिए बनी कि आध्यात्मिक लोगों को यही सब करते देखा दुनिया ने। जबकि ये सब आध्यात्मिक कर्मकाण्ड मात्र हैं, आध्यात्म नहीं।
आध्यात्म अर्थात Self-realization ऐसी जीवन शैली है जिसमें व्यक्ति दूसरों के द्वारा थोपी गयी, मत-मान्यताओं, परम्पराओं से स्वयं को मुक्त कर, स्वयं से परिचित होने की यात्रा पर निकलता है। ऐसी यात्रा जो दूसरों के दिखाये, बनाए मार्ग से बिलकुल भिन्न हो सकती है। व्यक्ति किसी गुरु से मार्गदर्शन ले सकता है, लेकिन यात्रा तो उसकी अपनी ही होती है।
चूंकि सामाजिक, पारम्परिक यात्राओं से अलग होती है यह यात्रा, भौतिक जगत की यात्रा से अलग होती है और अपने ही भीतर की यात्रा होती है, तो स्वाभाविक है कि इस यात्रा में गुरु भी पीछे छूट जाता है। आध्यात्मिक यात्रा में व्यक्ति जो जीवन शैली अपनाता है, वह उसकी अपनी ही अन्तःप्रेरणा पर आधारित होती है। उसे क्या खाना है, क्या पीना है, कैसे जीना है, कैसे रहना है, सब वह स्वयं ही तय करता है।
अब आप कहेंगे कि ऐसे तो व्यक्ति पथभ्रष्ट हो जाएगा ?
यदि आप गुरुओं के बनाए, दिखाये मार्ग पर चलने वाले समाज, सम्प्रदायों पर नजर डालें, तो क्या वे सब आपको पथभ्रष्ट दिखाई नहीं दे रहे ?
सभी संप्रदायों, पंथों में अधिकांश पथभ्रष्ट ही हैं और मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर ही जी रहे हैं। लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में निकले व्यक्ति के पथभ्रष्ट होने की संभावना बहुत ही कम होती है। क्योंकि जो कुछ भी गलत होगा, उसके लिए वह किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकता। जबकि दूसरों के बनाए मार्गों पर चलने वाले के पास सौ बहाने होंगे। वह सारे दोष ईश्वर/अल्लाह पर डाल सकता है, भाग्य पर डाल सकता है, गुरु पर डाल सकता है कि उन्होंने जो मार्ग दिखाया उसी पर चला।
तो आध्यात्मिक यात्रा के लिए व्यक्ति को ऐसी जीवन शैली अपनानी होती है, जिससे वह दूसरों से कम से कम प्रभावित हो। कुछ आध्यात्मिक यात्री दूसरों के हाथ का भोजन तक लेना बंद कर देते हैं और अपना भोजन स्वयं ही बनाते हैं।
यदि वे कभी बीमार पड़ गए तो भी अपना उपचार स्वयं खोजते हैं। जैसे कि प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि अपना उपचार प्राकृतिक विधि से ही करते थे। आध्यात्मिक व्यक्ति शल्यचिकित्सा आदि से भी स्वयं को बचाए रखना चाहते हैं। आर्युवेद में शल्यचिकित्सा अंतिम विकल्प होता है।
सारांश में इतना ही कहना ठीक है कि आध्यात्म एक ऐसी जीवन शैली है, जिसमें व्यक्ति स्वयं से परिचित होता है। आध्यात्म व्यक्ति को परतंत्रता से मुक्त करता है, आध्यात्म व्यक्ति को प्रकृति से जोड़ता है और अप्राकृतिक जीवन शैली से मुक्त करता है।
आध्यात्मिक व्यक्ति होम्योपैथ (Homeopathy), आर्युवेद जैसी स्वचिकित्सा पद्धति को अपनाता है। जबकि एलोपैथ परतंत्रता है, दासता है फार्मा माफियाओं और सरकारों की।
एलोपैथ परतंत्रता है, दासता है
अब आप अवश्य पूछेंगे कि एलोपैथ से कोई दास (Slave) कैसे हो सकता है ?
आप कहेंगे कि आपकी मर्जी है तो एलोपैथिक उपचार लो, अन्यथा घर पर ही पड़े रहो। कोई डॉक्टर आपके घर तो जा नहीं रहा जबर्दस्ती उपचार देने ?
फिर संभवतः आप नहीं जानते कि विश्व में घट क्या रहा है।
जर्मनी में मेडिकल बीमा अनिवार्य है हर नागरिक के लिए। आप बीमार पड़ें, न पड़ें, लेकिन आपको मेडिकल बीमा लेना अनिवार्य है। फिर जब आप बीमार पड़ें, तो फिर उन्हीं डॉक्टर और अस्पताल से उपचार ले सकते हैं, जो मेडिकल बीमा कम्पनियों से पंजीकृत है। आप अपनी मर्जी से सरदर्द की टेबलेट भी नहीं ले सकते।
मान लीजिये आपके सर में दर्द हो रहा है, तो आपको डॉक्टर के पास जाना पड़ेगा। डॉक्टर की अपनी एक फीस होगी, वह देनी होगी। फिर डॉक्टर कोई टेस्ट बताएगा, उन टेस्ट के पैसे चुकाने होंगे। तो जहाँ दस-बीस पैसे की टेबलेट से आपका सरदर्द दूर हो सकता था, उसके लिए आपको $100 से भी अधिक की कीमत चुकानी पड़ेगी।
फिर मान लीजिये आपने वैक्सीन नहीं लिया है तो वहाँ का डॉक्टर आपको जबर्दस्ती वैक्सीन भी ठोंकेगा भले मानवाधिकार, मौलिकता और निजता का उल्लंघन हो रहा हो। लेकिन ना मानवाधिकार आयोग आएगा आपकी सहायता के लिए, ना ही आयेंगे धर्म व जातियों के ठेकेदार और समाज आपकी सुरक्षा के लिए।
मान लीजिये आपकी मर्जी के विरुद्ध ब्लात वैक्सीन ठोंक दिया या उनकी चिकित्सा से आपको कोई भारी शारीरिक या मानसिक हानि हो गयी, जैसे कि वैक्सीन ले चुके लोग बेमौत मर रहे हैं Cardiac Arrests से।
आए दिन हम डॉक्टर की लापरवाही से हुई मौतों के विषय में पढ़ते ही रहते हैं, कई जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाते हैं। लेकिन फिर भी सरकारें आप पर दबाव बनाएँगी कि आप एलोपैथिक चिकिसा ही लें, भले आप ना लेना चाहें।
प्रायोजित महामारी काल में हमने देखा कि कैसे माफियाओं की गुलाम सरकारों ने जनता को बंधक बनाकर विवश किया वैक्सीन लेने के लिए। लेकिन कोर्ट में जाकर मुकर गयी और कहा कि हमने किसी पर कोई दबाव नहीं बनाया।
तो इस प्रकार यह प्रमाणित हो जाता है कि एलोपैथ ब्लात थोपी हुई चिकित्सा पद्धति है। और जो भी पद्धति थोपी जाए, वह आध्यात्म के विरुद्ध है। जो भी पद्धति या शैली प्रकृति के विरुद्ध हो वह आध्यात्म के विरुद्ध है।
एलोपैथ पर आश्रित समाज कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता
यह प्रमाणित हो चुका है कि एलोपैथ माफियाओं द्वारा थोपी हुई चिकित्सा पद्धति है, इसलिए एलोपैथ पर आश्रित समाज आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता। भले वह कितने ही ध्यान, जाप का ढोंग कर ले।
मैंने ऐसे बहुत से आध्यात्मिक गुरुओं को देखा है, जो होमियोपैथ, स्वचिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का मज़ाक उड़ाते हैं और एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति पर लाखों रुपए लुटाते हैं। ऐसे गुरुओं की मानसिकता पर ध्यान दें, तो आप पाएंगे कि ये भौतिकतावादी होते हैं। दिन रात पैसा-पैसा करते रहते हैं। इनसे बातें करो, तो आप पाएंगे कि सिवाय डॉक्टर, अस्पताल, औषधियों और जाँच आदि के कोई और विषय होता ही नहीं इनके पास। ये दिन रात भौतिक जगत, पैसा, बीमारियों में ही उलझे रहते हैं। जीवन भर डॉक्टर और अस्पतालों के चक्कर लगाते हैं। इनसे दस मिनट भी ध्यान में नहीं बैठा जाता। हमेशा जल्दबाज़ी में रहते हैं, हमेशा बेचैन रहते हैं।
आध्यात्म तो होता ही स्वयं से परिचय के लिए, लेकिन ये गुरु स्वयं से बहुत दूर अस्पताल और डॉक्टर के पास पड़े मिलते हैं। आध्यात्म से इनका कोई परिचय कभी हो ही नहीं पाता, तो भला आध्यात्मिक यात्रा कर कैसे सकते हैं ?
भौतिक जगत में उलझे लोग चमत्कारिक बाबाओं, साधु-संतों के चक्कर लगाते रहते हैं। और वे अपनी चालाकियों, जादूगरी से इन्हें अच्छी तरह लूटते हैं।
आध्यात्म अर्थात Self-realization
अब तक आप समझ चुके होंगे कि ऐसी कोई भी पद्धति या शैली जो दूसरों पर ब्लात थोपी जाती हो, वह आध्यात्म के विरुद्ध है। और जो कुछ भी आध्यात्म के विरुद्ध है, वह सनातन धर्म के विरुद्ध है। क्योंकि सनातन धर्म प्राकृतिक है, बलपूर्वक कुछ नहीं करता। यहाँ तक कि यदि वृक्ष भी कट कर गिर जाए, या पूरा वन ही जलकर राख़ हो जाए, तो प्रकृति रातों-रातों उसमें कोई परिवर्तन नहीं करती। सबकुछ धीरे-धीरे रूपांतरित होता है और वहाँ फिर से हरियाली दिखने लगती है।
यदि आपको आध्यात्मिक होना है, तो सबसे पहले थोपी हुई मत-मान्यताओं से स्वयं को मुक्त करना होगा। ध्यान भी किया जाता है, तो उसमें किसी देवी, देवता या गुरु का ध्यान नही होता। ध्यान में व्यक्ति को निर्विचार होकर बैठना होता है, स्वयं के शरीर पर चल रही हलचल पर ध्यान देना होता, फिर आसपास जो कुछ भी हलचल हो रही है, उसपर ध्यान देना होता है साक्षीभाव से। फिर एक समय आता है, जब ना तो विचार रह जाता है, न ही आप स्वयं। केवल शून्य ही रह जाता है। और वहीं से आपकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है।
आध्यात्मिक व्यक्ति स्वयं को हील करता ही है, साथ ही साथ दूसरों को भी हील करने की क्षमता विकसित कर लेता है। यह और बात है कि बहुत से आध्यात्मिक व्यक्ति दूसरों को हील करने बचते हैं, क्योंकि वे स्वार्थियों, लोभियों की भीड़ से बचना चाहते हैं।
आध्यात्मिक व्यक्तियों के लिए श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति है, होमियोपैथ और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति। क्योंकि यह ऐसी चिकित्सा पद्धति है, जो एलोपैथ की तरह ज़ोर-जबरदती पर आधारित नहीं है।
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~ विशुद्ध चैतन्य
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