क्यों नहीं हो पाता अंधविश्वासों से मुक्त मानव समाज ?
क्या अपने जीवन से निराश हैं ?
क्या बनता हुआ काम बिगड़ जाता है ?
क्या पैसा आपके हाथ में टिकता नहीं है ?
क्या घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहता है ?
तो विश्वप्रसिद्ध गुरुजी से मिलिये आज ही और समस्त समस्याओं से छुटकारा पाइए।
ऐसे बहुत से विज्ञापन देखें होंगे आपने। और ऐसे गुरुओं के पास बहुत बड़ी भीड़ भी देखी होगी ?
कुछ गुरु तो ऐसे भी होते हैं, जो प्रति सेशन के एक करोड़ से भी अधिक लेते हैं।
अब आप स्वयं सोचिए कि दुनिया भर में इतने सारे गुरु हैं, फिर भी दुनिया की समस्या समाप्त नहीं होने को आ रही ?
आम जनता को अपने गहने गिरवी रखने पड़ रहे हैं, सरकारों को राष्ट्रीय सम्पत्तियाँ नीलाम करनी पड़ रही हैं…फिर भी सर पर चढ़ा कर्ज उतरने के बजाय बजाय बढ़ता चला जा रहा है। क्यों ?
क्या स्वार्थियों, लोभियों और मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जीने वालों का लोभ का कोई अंत नहीं। कुछ लोग चाँद और मंगल में भी प्रॉपर्टी खरीदने के जुगाड़ में लगे हुए हैं….क्योंकि लोभ की कोई सीमा नहीं।
केवल लोभ ही नहीं, मृत्यु का भय, दरिद्रता का भय, अपनों के खोने का भय भी प्रमुख कारण है ऐसे गुरुओं के फलने-फूलने का।
क्या आप जानते हैं कि अंधविश्वास और भय पर आधारित हैं प्रायोजित महामारी और प्रायोजित सुरक्षा कवच ?
क्या आप जानते हैं कि सरकारें, राजनैतिक पार्टियां, समाज आदि सभी जनता और देश के हितैषी होते हैं यह एक अंधविश्वास है ?
जितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं अब तक जीवन को सुखी, समृद्ध, रोगमुक्त बनाने के लिए, संभवतः उनसे अधिक बाबा, गुरु अपने अनुयाइयों, शिष्यों को सुखी, समृद्ध, रोगमुक्त जीवन शैली बताकर दुनिया से विदा हो लिए।
जब दुनिया पर नजर जाती है, तो केवल कुछ मुट्ठीभर लोग ही हैं, जो सुखी, समृद्ध हैं, लेकिन वे भी रोगमुक्त नहीं हैं। बाकी लोग न तो सुखी, समृद्ध हैं, न ही रोगमुक्त।
आए दिन कोई नया बाबा मार्किट में लांच होता है, आए दिन कोई नया मोटीवेटर गुरु लांच होता है और देखते ही देखते वह बाबा, गुरु सुखी, समृद्ध हो जाता है, करोड़ों का बेंक बेलेन्स खड़ी कर लेता है….लेकिन उसके भक्त इस आस में जय जय करते रहते हैं कि हर कुत्ते के दिन फिरते हैं तो मेरे भी फिरेंगे।
गरीब और गरीब होता जा रहा है, अमीर और अमीर होता जा रहा है। धर्म और आध्यात्म का व्यापार दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ता जा रहा है, लेकिन ना इंसान धार्मिक और आध्यात्मिक हो पा रहा है, न राजनेता धार्मिक और आध्यात्मिक हो पा रहा है, न सरकारें, ना राजनैतिक पार्टियाँ, न संगठन हो पा रहे हैं धार्मिक और आध्यात्मिक।
आध्यात्म अर्थात स्वयं को जानना समझना और फिर स्वयं के विवेकानुसार निर्णय लेना।
धर्म का अर्थ है वह कार्य करना, जिससे देश, समाज, परिवार और स्वयं का अहित न हो, लेकिन किसी निर्दोष का भी अहित न होने पाये।
लेकिन वैश्यों ने धर्म और अध्यात्म की परिभाषा ही बदल कर रख दी। आज धर्म का अर्थ हो गया है पूजा, पाठ, रोज़ा, नमाज, व्रत-उपवास, पारम्परिक कर्मकाण्ड करने वालों का दड़बा। और आध्यात्म का अर्थ हो गया है मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जीने वालों का ऐसा दड़बा जो ध्यान, भजन, कीर्तन में डूबा रहता है।
आज तक जितने भी मोटीवेशनल गुरुओं को सुना और पढ़ा, फिर चाहे वह ओशो जैसे क्रांतिकारी दार्शनिक ही क्यों न रहे हों, सभी ने यही समझाने का प्रयास किया कि तुम्हें दुनिया से कोई लेना देना नहीं है। तुम्हारा जन्म तो मुक्ति पाने के लिए हुआ है। इसीलिए ध्यान करो, भजन करो, नाचो गाओ, सकारात्मक विचार लाओ, और हर बुरी से बुरी स्थिति में भी सकारात्मक रहो।
परिणाम यह हुआ कि सारी दुनिया सकारात्मक लोगों से भर गयी, चारों तरफ सकारात्मक लोग नजर आने लगे। और ये इतने अधिक सकारातमक हो गए कि ना इन्हें देश के लुटने और बर्बाद होने से कोई फर्क पड़ता है, ना ही माफियाओं द्वारा लूटने और लुटवाए जाने से कोई फर्क पड़ता है, ना पर्यावरण के प्रदूषित होने से कोई फर्क पड़ता है, न जंगलों के नष्ट होने से कोई फर्क पड़ता है, न ही इनकी अपनी ही भावी पीढ़ी के बर्बाद होने से कोई फर्क पड़ता है।
क्योंकि ये सभी सकारातमक लोग इस दुनिया में मौज मस्ती करने आए हैं और मौज मस्ती करके चले जाएँगे। और जो कुछ बुरा देखने मिलेगा, वह इनकी आने वाली पीढ़ी को देखने मिलेगा, इसीलिए इन्हें कोई चिंता भी नहीं है।