आप भजन-कीर्तन में सम्मिलित क्यों नहीं होते ?

प्रश्न किया मुझसे लीलामंदिर आश्रम के अध्यक्ष स्वामी ध्यान चैतन्यानन्द जी से दीक्षा प्राप्त एक 21-22 साल के युवा ने। मैंने पूछा कि यह प्रश्न तो गुरु जी से करना चाहिए था, मुझसे क्यों कर रहे हो ?

वह बोला कि आप नहीं आते कीर्तन में इसलिए आप से पूछ रहा हूँ। आप आश्रम में रहते हैं फिर भी कीर्तन में नहीं आते, जबकि जब भी कीर्तन होता है सभी को आना चाहिए।
मैंने पूछा कि ऐसी अनिवार्यता क्यों है और क्यों करना चाहिए कीर्तन सभी को ?
वह बोला कि परंपरा है, नियम है इसीलिए करना चाहिए।
मैंने कहा कि हर नियम सभी पर लागू नहीं होता। मैं संन्यासी हूँ और संन्यासी होने का अर्थ ही है दूसरों के द्वारा थोपी गयी खोखली मान्यताओं, परम्पराओं से मुक्त होकर स्वयं के अनुभवों के आधार पर जीवन जीना। इसीलिए संन्यासी को त्यागी और समाज से विरक्त भी माना जाता है।
तो क्या दुनिया में जो लोग कीर्तन कर रहे हैं, बाबाधाम में कीर्तन कर रहे हैं…..वे सब गलत हैं ?
मैंने कहा कि सभी गलत नहीं हैं, लेकिन अधिकांश गलत हैं। क्या तुमने अपने गुरु जी से कभी प्रश्न किया कि कीर्तन करना क्यों आवश्यक है, क्यों करना चाहिए कीर्तन ?
उसने कहा: “नहीं हम तो बचपन से देखते आ रहे हैं कि कीर्तन होता है आश्रम में और सभी को आना होता है। कभी किसी से बताया ही नहीं कि कीर्तन क्यों करना चाहिए, क्यों सभी को शामिल होना चाहिए !”
मैंने कहा कि अब जाकर गुरु जी से पूछो।
तो उसने कहा कि चलिये आप भी गुरु जी के पास ?
तो हम दोनों गुरु जी के पास पहुंचे और मैंने गुरु जी से कहा कि रवि ने बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न किया है कि मैं कीर्तन में क्यों नहीं जाता, जबकि आश्रम में सभी को कीर्तन में जाना आवश्यक है। अब आप उत्तर दीजिये ?
गुरु जी ने उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था।
गुरुओं को चाहिए कि शिष्यों के महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर अवश्य दें
अधिकांश गुरु वैश्य होते हैं या फिर शूद्र। वैश्य गुरु वे होते हैं, जो आश्रम के लिए धन प्रबंधन में सक्षम होते हैं, लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान नहीं रखते। उनके पास जो भी ज्ञान होता है, वह यह तो किताबी होता है या दूसरों के द्वारा सुनी-सुनाई।
वैश्य गुरुओं से धन कैसे कमाएं, कौन सी नौकरी करने के लिए कौन सी डिग्री लेनी चाहिए, कैसे मार्केटिंग करनी चाहिए, आश्रम प्रबन्धन कैसे करना चाहिए, पूजा पाठ कैसे करना चाहिए आदि तो सीख सकते हैं, लेकिन अध्यात्म नहीं सीख सकते। क्योंकि वैश्य गुरुओं की रुचि आध्यात्म में नहीं, धन में होती है।
ऐसे गुरुओं का बहुत महत्व होता है आश्रमों में, क्योंकि आश्रम को चलाने के लिए धन और अधर्म की आवश्यकता होती है धर्म और आध्यात्म की नहीं। दुनिया के सभी आश्रम धन और अधर्म से चलते हैं, आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान से नहीं।
आधुनिक आश्रमों में किसी ब्राह्मण या आध्यात्मिक संन्यासी का कोई महत्व नहीं होता क्योंकि ऐसे संन्यासी ना तो धन कमाना जानते हैं, ना ही शूद्रों की तरह चापलूसी और जय-जय करना सीख पाते हैं। वैश्यों और शूद्रों की नजर में ब्राह्मण और आध्यात्मिक संन्यासी मुफ्तखोर, कामचोर होते हैं, क्योंकि वे ना तो व्यापार कर पाते हैं, ना मजदूरी कर पाते हैं, न ही गुलामी कर पाते हैं।

शूद्र संन्यासियों को भी आध्यात्म और आत्मिक उत्थान से कोई मतलब नहीं रहता। उन्हें तो केवल भोजन, निवास और वस्त्र मिलना चाहिय और वे सर झुकाकर जय-जय, स्तुति-वंदन, कीर्तन-भजन और गुलामी करते रहेंगे आजीवन बिना कोई आध्यात्मिक प्रश्न किए। इसलिए इनका परिचय आध्यात्म से कभी हो नहीं पाता और ना ही कभी इस योग्य हो पाते हैं कि अपने शिष्यों के आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर दे सकें।
गुरु यदि शूद्र है तो वह कर्मवाद की पींपणी बजाएगा। वह कहेगा आश्रम में झाड़ू लगाओ, पोंछा लगाओ, कीर्तन करो, जय-जय करो ईश्वर की प्राप्ति हो जाएगी, आध्यात्म समझ में आ जाएगा। ऐसा वह इसलिए कहता है क्योंकि उसे स्वयं नहीं पता कि आध्यात्म क्या है, ईश्वर क्या है धर्म क्या है।
तो गुरु यदि वैश्य या शूद्र वर्ण का है, तो वह अपने शिष्यों में आध्यात्मिक शिष्य को नहीं पहचान पाएगा या फिर पहचानेगा भी, तो बहुत समय बाद। लेकिन अधिकांश गुरुओं को जैसे ही पता चलता है कि कोई शिष्य आध्यात्मिक उत्थान कर रहा है, तो गुरु चिंतित हो जाते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक शिष्यों को गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता।
कीर्तनिया आध्यात्मिक या धार्मिक गुरु नहीं होते
आज कीर्तन भजन करने वाले पूजनीय बने बैठे हैं, जबकि ये लोग केवल मनोरंजन करने वाली टोली मात्र से अधिक और कुछ नहीं हैं। इनका काम केवल इतना ही रह गया है कि आश्रमों में आने वाले भक्तों और श्रद्धालुओं का मनोरंजन करें भजन कीर्तन करके, अधिक से अधिक लोगों को आश्रमों से जुडने के लिए प्रेरित करें। और परिणाम यह हुआ कि आज सभी पंथो और आश्रमों में इस्कॉन की तरह कीर्तन-भजन ही हो रहे हैं लेकिन आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान प्रदान करने की प्रथा समाप्त हो गयी।
आज आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान के नाम पर चमत्कारी बाबाओं की कथाएँ, सत्यवान-सावित्री कथा, रामायण, वेद, पुराण, गीता और प्रार्थना, पूजा के कर्मकाण्ड ही सिखाये जा रहे हैं। और यही कारण है कि समाज ना तो धार्मिक हो पाया, न ही आध्यात्मिक। केवल जय-जय और स्तुति-वंदन करने वाली भेड़ों का झुण्ड मात्र बनकर रह गया।
भजन क्या है ?
भारतीय संगीत को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और तीसरा लोक संगीत। भजन मूल रूप से किसी देवता की प्रशंसा में गाया जाने वाला गीत है जो सुगम संगीत की एक शैली है। हालाँकि भजन शास्त्रीय और लोक संगीत की शैली में भी हो सकता है। इसे प्रायः मंच पर गाया जाता है किन्तु इसे मंदिरों में भी खूब गाया जाता है।
भजन संस्कृत के भजनम या भज से निकला हुआ शब्द है जिसका अर्थ होता है श्रद्धा। भजन का अर्थ बाँटना भी होता है। दूसरे अन्य अर्थों में यह समर्पण, जुड़ाव, वंदना करना भी होता है। भजन के माध्यम से भक्त अपने देवता से समर्पण महसूस करता है उसकी उपासना करता है वंदना करता है।
भजन में प्रायः एक घटना, कथा या विचार का वर्णन होता है। कई बार भजन में देवताओं के लिए प्रशंसा और उनकी महिमा के चर्चे होते हैं। इसे प्रायः एक गायक जाता है। कभी कभी इसे एक से अधिक गायक भी एकसाथ गाते हैं। भजन गायन में तबला,ढोलक, झांझ आदि का प्रयोग किया जाता है। इसे मंदिरों में, घर में, खुले में या किसी ऐतिहासिक महत्त्व के स्थान पर गाया जाता है।
भजन संगीत और कला की एक शैली है जो भक्ति आंदोलन के साथ साथ विक्सित हुआ है। इस शैली में निर्गुणी, गोरखनाथी, वल्लभपंती, अष्टछाप, मधुरभाक्ति और पारम्परिक दक्षिण भारतीय रूप सम्प्रदाय भजन के अपने तरीके हैं।
कीर्तन क्या है ?
कीर्तन एक संस्कृत शब्द है जो वैसे तो कई अर्थ में प्रयुक्त होता है किन्तु सबका भाव एक ही होता है किसी कथा का वर्णन करना, सुनाना, बताना या विचार का वर्णन करना। यह धार्मिक समारोहों में गाये जाने वाले गीतों की एक शैली है जिसमे धार्मिक विचारों का एक समूह के द्वारा गायन होता है।
वैदिक अनुकीर्तन परंपरा से निकले हुए इस शैली में गायकों का एक समूह किसी देवता के लिए या आध्यात्मिक विचारों का वर्णन करने के लिए प्रायः सामूहिक संगीत करते हैं। कई बार यह प्रश्न उत्तर के रूप में भी होता है तो कई बार साथी गायक उस गीत की पंक्तियों को दुहराते हैं। कीर्तन की कई परम्पराओं में नृत्य या नाट्य भी शामिल होती है। कीर्तन में प्रायः दर्शक भी गीतों को दुहराते हैं अर्थात कीर्तन गायन में शामिल होते हैं।
कीर्तन गायन करने वाले प्रायः टोली में होते हैं जिनको कीर्तनिया कहा जाता है। कीर्तन गायन में प्रायः कुछ वाद्ययंत्रों का भी प्रयोग किया जाता है। इसमें सबसे प्रमुख करतल या झांझ मंजीरा होता है। इसके अलावा हारमोनियम,वीणा, एकतारा,तबला, मृदंग आदि भी वाद्ययंत्रों का प्रयोग प्रमुखता से होता है।
कीर्तन को प्रायः धार्मिक अवसरों पर गाया जाता है। उत्तर भारत में मंदिरों में प्रायः कीर्तन का आयोजन किया जाता है।
आप कीर्तन-भजन में सम्मिलित क्यों नहीं होते ?
तो आइये जिस प्रश्न का उत्तर गुरु जी ने नहीं दिया चाहे कारण कुछ भी रहा हो, उस प्रश्न का उत्तर मैं देने का प्रयास कर रहा हूँ। प्रश्न का उत्तर देने का मेरे प्रयास का यह अर्थ बिलकुल न निकालें कि मैं गुरु जी से अधिक जानता हूँ, इसलिए ऐसा कर रहा हूँ। मैं प्रश्न का उत्तर इसलिए दे रहा हूँ, क्योंकि ऐसे प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये गए बरसों से गुरुओं के द्वारा, इसलिए कीर्तन, भजन आज केवल नौटंकी और शोर बनकर रह गए।
सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं संन्यासी हूँ और इसलिए नहीं कि भगवाधारी और आश्रमवासी हूँ। बल्कि इसलिए क्योंकि मेरी प्रवृति ही संन्यासी है। अर्थात समाज और सरकार द्वारा किए जा रहे शोषण, अत्याचार और लूट-मार का विरोधी हूँ। मैं विरोधी हूँ ढोंग-पाखण्ड का फिर चाहे वह पाखण्ड धर्म और अध्यात्म के नाम पर हो, या सेवा, चिकित्सा, विज्ञान और आधुनिकता के नाम पर हो।
अब भजन-कीर्तन भी शोर और परम्परा मात्र बनकर रह गए हैं। भजन और कीर्तन करने वाले ऐसे अकड़ कर चलते हैं, मानो इन्हें आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान प्राप्त हो गया हो और अब ये आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु बन चुके हैं। आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु होने का भ्रम कथावाचकों को भी हो जाता है, क्योंकि जनता इन्हें गुरु के रूप में ही पूजती और सम्मानित करती है।
भजन कीर्तन करने वाले ये गुरु सिखाते हैं समाज को भजन-कीर्तन करना बहुत जरूरी है, लेकिन कभी नहीं सिखाते समाज को कि भजन कीर्तन करने से भी ज्यादा जरूरी है देश व जनता के लुटेरों का विरोधी होना। नौकरियों के लिए पढ़ाई करने से अधिक आवश्यक है शिक्षित होने के लिए पढ़ाई करना। ऐसे गुरु स्वयं तो परम्पराओं को ढोते ही रहते हैं बिना जाने समझे, दूसरों को भी परमपराओं को ढोने के लिए विवश करते हैं।
लेकिन मैं संन्यासी हूँ, इसीलिए ऐसी परम्पराओं को ढोना पाप और अपराध मानता हूँ, जिससे समाज का आध्यात्मिक और धार्मिक उत्थान न हो रहा हो। ऐसी परम्पराएँ, जिससे तीर्थस्थलों पर शांति के स्थान पर शोर और लूटपाट बढ़ रहा हो, जिससे मंदिर और तीर्थ जैसे आध्यात्मिक केन्द्रों का रूपान्तरण व्यावसायिक पर्यटन केन्द्रों में हो रहा हो। इसी क्रम में कीर्तन भजन भी आते हैं जो अब केवल मनोरंजन और टाइमपास बनकर रह गए हैं।
चूंकि मेरा आध्यात्मिक और आत्मिक उत्थान हो चुका है, इसीलिए मैं कीर्तन भजन में बैठना पसंद नहीं करता। मैं ईश्वर को समझ चुका हूँ, जान चुका हूँ, इसीलिए यह भी समझ चुका हूँ कि ईश्वर को स्तुति-वंदन की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह कोई सरकारी दफ्तर का बाबू नहीं है और ना ही को राजनेता या सरकार है, जिसे स्तुति-वंदन, चढ़ावा, रिश्वत, कमीशन या चापलूसी से खुश किया जा सके। ईश्वर यह देखता है कि व्यक्ति ने आत्मिक उत्थान किया है या नहीं किया है, परस्पर सहयोगी समाज का निर्माण कर रहा है या नहीं कर रहा है।
और जब धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु ही ऐसा समाज बना पाने में अक्षम हो गए हैं, केवल धंधा करने और जय जय करने में व्यस्त हैं, तब मेरे जैसे संन्यासी आस्तित्व में आते हैं समाज को दिशा दिखाने के लिए। यह और बात है कि वैश्यों और शूद्रों के समाज में हमें सुनने और समझने के लिए समाज के पास समय नहीं होता।
संन्यास एक भाव है, एक स्वभाव है
संन्यासी कोई डिप्लोमा या डिग्री नहीं है कि कोई किसी को संन्यासी बना दे किसी विधि-विधान से। संन्यास एक भाव है, एक स्वभाव है विरोधी और क्रांतिकारी प्रवृति के व्यक्तित्व का। संन्यासी वही हो सकता है, जो समाज और सरकार की कुप्रथाओं, व्यर्थ की परम्पराओं, मान्यताओं का विरोध कर सके। यह और बात है कि आज संन्यासियों का भी समाज बन चुका है और एक समाज नहीं, अनेक समाज हैं संन्यासियों के। और सभी साधु-समाजों में वही सब प्रथाएँ, नियम और कानून हैं जो वैश्य समाज, वाल्मीकि समाज, क्षत्रिय समाज, जैन समाज, आर्यसमाज, इस्लामिक समाज में देखने मिलता है।
ये सभी समाज ना तो धार्मिक हैं और ना ही आध्यात्मिक हैं, क्योंकि ये सरकारों द्वारा थोपे जा रहे अन्याय पूर्ण आदेशों का खंडन करने का साहस नहीं कर पाते। लेकिन अपने सम्प्रदाय के सदस्यों को दुनिया भर की नैतिकता और सात्विक्ता सिखाते फिरते हैं। और इनके नियम कानून इतने सारे होते हैं कि इंसान आजीवन नियम कानून में उलझा रह जाता है। ना तो धर्म, अध्यात्म और ईश्वर को समझ पाता है, ना आध्यात्मिक और आत्मिक उत्थान कर पाता है और न ही समाज को धार्मिक और आध्यात्मिक बना पाता है।
दो ही प्रकार के गुरुओं का महत्व है समाज में
गुरु तो कई प्रकार के होते हैं, लेकिन दो ही प्रकार के गुरुओं का वर्चस्व होता है समाज और आश्रमों में। पहले स्थान पर होते हैं वे गुरु, जिनसे आर्थिक लाभ होता है, जो धन की व्यवस्था करने में पारंगत होते हैं। ऐसे गुरुओं को वैश्य गुरु कहूँगा मैं, क्योंकि इनका सारा चिंतन-मनन धन और वैभव प्रदर्शन पर आधारित होता है। ये गुरु अपने शिष्यों को धन अर्जित करना, प्रबंधन अर्थात #management सिखाना पसंद करते हैं। अध्यात्म और धर्म में इनकी कोई रुचि नहीं होती।
दूसरे प्रकार के गुरु वे होते हैं, जो परम्पराओं को ढोते चले जाते है बिना जाने समझे। इन्हें सेवा करना पसंद होता है इसलिए मूर्तियों/प्रतिमाओं की बहुत सेवा करते हैं, लेकिन किसी गरीब, लाचार इंसान की सेवा करना पाप मानते हैं। इन्हें केवल परम्पराओं को ढोने और दूसरों पर लादने में ही आनंद प्राप्त होता है, आध्यात्म और धर्म को समझने और समझाने में इनकी कोई रुचि नहीं होती।
एक और प्रकार के गुरु होते हैं, जिन्हें हम चैतन्य या जागृत गुरुओं के नाम से जानते हैं। लेकिन ऐसे गुरुओं का समाज में कोई महत्व नहीं होता तब तक, जब तक उनके नाम से कमाई शुरू नहीं हो जाती। जब उनके नाम से कमाई शुरू होने लगती है, उनके नाम पर समान बिकने लगते हैं, दुकाने सजने लगती हैं….तब उन गुरुओं की भी जय होने लगती है।
बहुत से लोग कथावाचकों को गुरु समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि कथावाचक और भजन-कीर्तन करने वाले, कॉमेडी शो करने वालों में कोई अंतर नहीं होता। ये सभी कलाकार होते हैं और अपनी कला का प्रदर्शन कर मनोरंजन करके अपनी आजीविका चलाते हैं।
अब चूंकि उपरोक्त कोई भी गुरु ना तो धर्म सिखाता है, ना आध्यात्म सिखाता है, केवल अपनी आजीवका चलाने के लिए समाज का मनोरंजन करता है। तो भला समाज और सरकारें आध्यात्मिक और धार्मिक होंगे कैसे ?
जिन विषयों को सिखाया ही नहीं जाता धार्मिक, आध्यात्मिक और शैक्षणिक केन्द्रों में, उन विषयों का ज्ञान होगा कैसे समाज और सरकारों को ?
बस जय-जय किए चले जा रहे हैं और जी रहे हैं भेड़ों, बत्तखों की तरह यह मानकर कि गुलामी करने के लिए आए थे, गुलामी करते हुए जाना है। जो भी कमाना है, कोल्हू का बैल की तरह कमाना है अपने मालिकों के लिए और उन्हें ही सौंप कर चले जाना है। क्योंकि खाली हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है!
क्या आपने ग्रामीण/लोकसंगीत का आनन्द लिया है ?
90’s के बाद जन्मे लोगों को तो अनुभव होगा नहीं, क्योंकि तब तक तो गांवों में भी लाउडस्पीकर अपने पैर जमा चुका था। लेकिन जो मेरी उम्र के या मुझसे अधिक उम्र के होंगे, उन्होंने उस संगीत को अवश्य जीया होगा, जब लाउडस्पीकर, डीजे स्पीकर्स आदि नहीं हुआ करते थे।
और यदि किसी विशेष आयोजन के लिए लाउड स्पीकर की आवश्यकता होती थी, तो शहर से मंगवाया जाता था और उसपर भी सत्यम शिवम सुंदरम, मैं तुलसी तेरे आँगन की…..जैसे गीत ही अधिक बजा करते थे।
उन दिनों गांव में किसी पेड़ के नीचे पाँच-दस लोग बैठकर ढोलक, मंजीरा के साथ गीत गया करते थे और वह इतना सुखद वातावरण बनाता था, कि हम बच्चे खुद ही दौड़-दौड़ कर पहुँच जाते थे।
वह संगीत होता था जिससे तनाव नहीं होता था, जिससे सरदर्द नहीं होता था, जिससे मन प्रसन्न होता था, जिससे थकान दूर होती थी। भले ही उनकी लय कितनी ही तेज क्यों न हो जाए, इरिटेट नहीं करती थी।
लेकिन लाउड स्पीकर ने वह सुख छीन लिया। अब दिन भर लाउडस्पीकर ऐसे गाने बजाए जाते हैं, जो मानसिक रूप से विक्षिप्तों द्वारा मानसिक रूप से विक्षिप्तों के लिए तैयार किए जाते हैं। गायकों की आवाजें भी #vocoder और #autotuner द्वारा विकृत कर दिया जाता है। यह सब डिस्कोथिक आदि के लिए ठीक है, क्योंकि वहाँ सभी नशे में धुत्त होकर दिमाग से पूरी तरह हिले हुए होते हैं। लेकिन सार्वजनिक स्थलों पर, विशेषकर धार्मिक/आध्यात्मिक आयोजनों पर भक्ति गीत के नाम पर ऐसे गीत बजाना मानसिक दिवालियापन का ही सूचक है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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