बुद्धों की जीवन शैली और बौद्धों की जीवन शैली में क्या अंतर है ?

बहुत गहरी बात कही है ओशो ने;
यहाँ तो सिकंदर भी भिखारियों की तरह मरते हैं !
सम्राट की तरह जीना हो तो, बुद्धों की तरह जीना सीखो ?
और बुद्धों की तरह जीना क्या होता है, यह समझना आसान भी नहीं है।
बहुत से लोग बौद्धों की जीवन शैली को बुद्ध की जीवन शैली मानकर बौद्ध सम्प्रदाय में शामिल हो जाते हैं यह सोचकर कि यह जीवन शैली बुद्धत्व को उपलब्ध करवा देगी। लेकिन आज तक कोई बौद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो पाया, सिवाय उनके जो बुद्ध के सबसे निकटस्थ प्रिय शिष्य रहे।
बुद्धत्व है क्या ?
बुद्धत्व है आध्यात्मिक यात्रा से प्राप्त अनुभवों और ज्ञान के अनुसार अपना जीवन जीना।
आध्यात्म क्या ?
समाज, सरकार और धार्मिक ग्रंथों द्वारा थोपे गए सिद्धान्तों, परंपराओं, मान्यताओं के चक्रव्यूह से स्वयं को मुक्त कर आत्मचिंतन, मनन से ज्ञान अर्जित करना।
जब हम आत्मचिंतन और मनन की योग्यता अर्जित कर लेते हैं, तब हमें समझ में आता है कि दुनिया के सभी धार्मिक ग्रंथ व्यक्ति को कायर, गुलाम, ज़ोम्बी और भेड़चाल में चलने वाला भेड़ बनाने के लिए रचे गए हैं। इसीलिए धार्मिक ग्रंथों के ज्ञाता गुलाम होते हैं माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों के।
और गुलाम कभी बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता, चाहे वह धार्मिक ग्रंथों, पंथों, संप्रदायों, राजनैतिक पार्टियों का ही गुलाम क्यों ना हो।
तो फिर गुलामी से मुक्ति कैसे पायी जाए ?
गुलामी से मुक्ति पाने के लिए बुद्धों की तरह जीना होगा।
बुद्धों की तरह कैसे जिया जाए ?
भेड़चाल और #ratrace से स्वयं को अलग करके। जिस दौड़ में सारी दुनिया, साधु संत, पंडित पुरोहित, मौलवी पादरी, नेता अभिनेता और व्यापारी दौड़ रहे हैं, उस दौड़ से स्वयं को अलग कर लेना ही आध्यात्मिक जीवन शैली है। और आध्यात्मिक जीवन शैली अपनाकर ही बुद्धत्व को प्राप्त हुआ जा सकता है।
और आध्यात्मिक जीवन शैली वह नहीं है, जो धार्मिक ग्रंथों में लिखा है। धार्मिक ग्रंथों में तो केवल भेड़ों, जोंबियों और गुलामों का जीवन सिखाने वाली जीवन शैलियां मिलेंगी। धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर आप वही बनेंगे, जो आधुनिक धार्मिक लोग बन चुके हैं और दूसरों को भी अपनी ही तरह जोम्बी और दिमाग से पैदल गुलाम बना रहे हैं धर्म और आध्यात्म के नाम पर।
बुद्धों की जीवन शैली और बौद्धों की जीवन शैली में क्या अंतर है ?
क्या आप जानते हैं गौतम बुद्ध बौद्ध नहीं थे, जीसस ईसाई नहीं थे, मोहम्मद मुसलमान नहीं थे, गुरु नानक सिक्ख नहीं थे ?
जब भी हम बुद्ध या बुद्धत्व की चर्चा करते हैं, तो केवल गौतम बुद्ध ही उभर कर सामने आते हैं। क्योंकि चारों तरह केवल गौतम बुद्ध का ही प्रचार हुआ, प्रतिमाएँ बनाई गयीं और मानव मस्तिष्क में यह बैठा दिया गया की बुद्ध केवल यही हैं और कोई नहीं। मानव मस्तिष्क में यह बैठाने का प्रयास क्या गया कि यदि कोई बुद्ध होगा, तो बिलकुल ऐसा ही होगा, अहिंसावादी होगा, बटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठा होगा, ऐसा ही चलेगा, ऐसा ही उठेगा, ऐसा ही बैठेगा, ऐसा ही बोलेगा, ऐसा ही दिखेगा….यानि कार्बन कॉपी होगा।
और बुद्ध की कार्बन कॉपी तैयार करने के लिए बौद्धों ने एक जीवन शैली का निर्माण किया। और यह जीवन शैली क्या है, यह तो आपको बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों पढ़ने और बौद्ध संन्यासियों की जीवन शैली का अध्ययन करने से ही समझ में आएगा।
लेकिन कार्बन कॉपी कभी भी ओरिजनल नहीं हो सकता, भले ही ओरिजनल से भी बेहतर दिखता हो। और कार्बन कॉपी केवल गौतम बुद्ध का ही नहीं, दुनिया में जीतने भी पंथ हैं, सम्प्रदाय हैं वे सभी अपने अपने आराध्यों की कार्बन कॉपी बनाने में व्यस्त हैं। किसी भी पंथ को व्यक्ति की मौलिकता और निजता में कोई रुचि नहीं है। कोई भी पंथ नहीं चाहता कि उसके पंथ में, उसके समाज में कोई मौलिक चिंतक, दार्शनिक जन्म ले या उभर पाये।
क्या कभी सोचा है कि क्यों ?
क्योंकि जिसके विचारों के आधार पर पंथ, समाज या संगठन का निर्माण हुआ है, वह अब एक बड़ा बाजार बन चुका है और करोड़ों का रोजगार उससे जुड़ा है। यदि कोई नवीन विचारक आ गया, तो व्यापारियों को घाटा हो सकता है। फिर इतने बरसों से जिस जीवन शैली के माध्यम से मोटी-मोटी फीस, दान, दक्षिणा लेकर अनुयाइयों, भक्तों को मोक्ष और स्वर्ग का टिकट बेच रहे थे, वह सब संकट में पड़ सकता है। और देखा होगा आपने कि जैसे कोई किसी पंथ या समाज या आराध्य की आलोचना करता है, निंदा करता है, धर्म संकट में पड़ जाता है और धर्म रक्षक निकल पड़ते हैं ईशनिन्दा और बेअदबी के नाम पर दण्ड देने।
बौद्ध होना बिलकुल वैसा ही है, जैसे कॉंग्रेसी होना, भाजपाई होना, हिन्दू होना, मुसलमान होना, वामपंथी होना, दक्षिणपंथी होना। अर्थात समाज द्वारा बनाए गए विधि, विधानों, परम्पराओं, मान्यताओं का अनुसरण करना, बुद्धि-विवेक का प्रयोग किए बिना।
जबकि बुद्ध होने के लिए थोपे गए मत-मान्यताओं, परम्पराओं, सिद्धान्तों से मुक्त करना होता है। बुद्ध होने के लिए बनी-बनाई पटरी से मुक्त होकर अपना स्वयं का पंथ, अपनी स्वयं की जीवन शैली खोजनी होती है। बुद्ध होने के लिए स्वयं के विवेक-बुद्धि को जाग्रत करना होता और गुलाम मानसिकता का जो बीज समाज और सरकारों ने बो दिया था मस्तिष्क में, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना होता है। तब जाकर व्यक्ति आध्यात्मिक यात्रा पर निकलने योग्य होता है और आध्यात्मिक यात्रा पर निकलने पर ही बुद्धत्व उपलब्ध होता है।
बहुत से लोग प्रश्न करते हैं मुझसे कि क्या माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों के द्वारा बिछाये गए मायाजाल यानि #Matrix से मुक्त होने का कोई उपाय है ?
बिलकुल है, लेकिन कोई निकलना ही नहीं चाहता #Matrix से बाहर। क्योंकि #Matrix का मोह, नशा इतना गहरा है कि कल्पना में भी कोई बाहर नहीं निकलना चाहता। और मायाजाल का आकर्षण और सम्मोहन बनाए रखने में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं सिनेमा, अभिनेता, विश्वसुन्दरियाँ, और बिकाऊ खिलाड़ी। आम जनता इन्हीं की तरह ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने के सपने देखने लगती है और परिणाम स्वरूप आजीवन मायाजाल से बाहर नहीं निकल पाती।
यदि व्यक्ति मायाजाल से बाहर निकलना चाहता है, तो उसे सबसे पहले अपने लिए शहर और तीर्थ/धार्मिक स्थलों से दूर किसी ऐसी जगह पर कम से कम एक एकड़ भूमि लेनी होगी, जो शहरी चकाचौंध से बिलकुल अलग हो। वहाँ उसे बिलकुल इस प्रकार जीवन शुरू करना होगा, जैसे शहरी जीवन कभी जीया ही ना हो। और यह बहुत कठिन जीवन होगा बहुत से लोगों के लिए।
लेकिन जो ऐसा कर पाये, वे अवश्य मायाजाल से मुक्त होने में सफल हो जाएँगे।
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