आप लोग पत्थर को ईश्वर मानते हैं और मेरा गुरु और ईश्वर सर्वत्र है

कल शाम हमारी संस्था के बांग्लादेश स्थित आश्रम के अध्यक्ष स्वामी शंकर चैतन्य जी से चर्चा हो रही थी। उनका कहना था कि गुरु की प्रतिमा की नियमित सेवा, पूजा, अर्चना की जानी चाहिए। क्योंकि हमें जो भी सुख-सुविधाएं मिल रही हैं, उन्हीं के आशीर्वाद से मिल रहीं हैं। वे बता रहे थे कि उनके हज़ार से अधिक शिष्य हैं, वहाँ के बड़े-बड़े नेता और मंत्री उनके सामने नतमस्तक रहते हैं, सम्मान करते हैं जबकि उनमें से अधिकांश मुस्लिम हैं। और यह सब मिला गुरु के आशीर्वाद के कारण।
वे चाहते थे कि मैं भी उन्हीं की तरह गुरु प्रतिमा की सेवा करूँ, स्तुति-वंदन करूँ, ताकि मुझे भी मान-सम्मान मिले, ऐश्वर्य, समृद्धि मिले। जबकि मैं अपने ही आश्रम के सिद्धांतों के बिलकुल विपरीत चल रहा हूँ, इसलिए सभी मुझसे नाराज़ हैं।
तो मैंने उनसे कहा कि आप लोगों का ईश्वर और गुरु प्रतिमाओं के कैद है, इसलिए आप लोगों की विवशता है प्रतिमाओं की सेवा करना। प्रतिमाओं को ठंड लगती है इसलिए कम्बल ओढ़ाना पड़ता है, भले आपके आश्रम के बाहर पड़ा कोई इंसान बिना कम्बल ठंड से मर जाए। प्रतिमाओं को गर्मी लगती है, इसलिए पंखा चलना चाहिए गर्मी में, एसी चलना चाहिए। भले आश्रम के बाहर कोई गर्मी से प्यासा मर जाये। मैंने देखा है आश्रम में ही रहने वाले कुत्तों के लिए पानी की व्यवस्था नहीं है, मैं ही अपने उन्हें पानी पिलाता हूँ। जबकि आप लोग ठाकुर की प्रतिमा की सेवा में व्यस्त रहते हैं।
मैंने उनसे पूछा कि जिन प्रतिमाओं को ईश्वर तुल्य मानकर सेवा और पूजा करते हैं, उसे किसने बनाया ?
उन्होने कहा कि इंसान ने।
मैंने पूछा कि क्या उस इंसान ने प्रतिमा निःशुल्क बनाकर दिया ?
नहीं मूल्य चुका कर खरीदा गया है। उनहोंने कहा
मैंने कहा कि इंसान की बनाई गयी, मूल्य चुकाकर खरीदी गयी प्रतिमा अधिक मूल्यवान और पूजनीय है या ईश्वर के द्वारा बनाई प्रतिमा अर्थात मानव और पशु-पक्षी अधिक मूल्यवान और पूजनीय हैं ?
वे चुप रहे।
मैंने कहा कि यही अंतर है आप लोगों में और मुझमें। आप लोग पत्थर को ईश्वर मानते हैं, और मेरा ईश्वर सर्वत्र है। आपको ईश्वर के दर्शन के लिए मंदिरों में जाना पड़ता है, लेकिन मेरा ईश्वर हमेशा मेरे साथ रहता है और जब भी, जहां भी आँखें बंद कर ध्यान में बैठता हूँ ईश्वर प्रकट हो जाते हैं।
आप लोगों के लिए धन, ऐश्वर्य, समृद्धि ईश्वर का आशीर्वाद है, मेरे लिए एकान्त, शांति, प्रेम ईश्वर का आशीर्वाद है।
अधिकांश लोग संन्यास लेते हैं त्यागी कहलाने के लिए, लेकिन धन, दौलत, मान-सम्मान, ऐश्वर्य और भीड़ के पीछे दौड़ने लगते हैं। जिस त्यागी बैरागी, साधु, संन्यासी के पास जितनी अधिक भीड़, भक्त, शिष्य और ऐश्वर्य, वह उतना महान। और कहते हैं कि हमने तो संसार त्याग दिया, मोह, माया से मुक्त हो गए लेकिन हमारे गुरु ने, हमारे ईश्वर ने यह सब हमें प्रदान किया सेवा और पूजा से प्रसन्न होकर। और जब यही सब चाहिए था, तो फिर संन्यास क्यों लिया, यह सब तो आप सरकारी नौकरी करके, माफियाओं की गुलामी और स्तुति-वंदन करके भी प्राप्त कर सकते थे ?
आज साधु, संन्यासी वही महान है, जिसके पास दौलत है, जिसके पास सत्ता की ताकत है, जिसके पास भारी-भरकम शिष्यों और भक्तों की भीड़ है और राजसी वैभव के साथ जी रहा हो। आप देखो आधुनिक साधु संतों को किसी राजा-महाराज से कम नहीं होते और उनके सामने भक्त लोग बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते है, मानो इस देश का राजा उन्हीं का गुरु है और वे सब उसकी प्रजा हैं।
तो मैंने स्वामी जी से कहा कि मैं बिलकुल विपरीत हूँ। मैंने संन्यास इसलिए नहीं लिया था कि किसी मंदिर का पुजारी बनूँ, किसी मठ का मठाधीश बनूँ, हजारों लाखों मेरे शिष्य हों, दुनिया मेरे सामने नतमस्त्क रहे, चमत्कार दिखाऊँ, या मंदिर में बैठकर ईश्वर के दर्शन, आरती करवाने की फीस चार्ज करूँ। मैंने संन्यास इसलिए लिया था ताकि आध्यात्मिक उत्थान प्राप्त कर सकूँ।
मंदिर/मूर्ति में अटके लोग अभी प्राइमरी लेवल में है बिलकुल वैसे ही जैसे वे बच्चे जो आ से आम, क से कबूतर से सीखने के लिए आम और कबूतर की तस्वीर या प्रतिमाओं का प्रयोग करते हैं। मुझे ईश्वर को समझने के लिए किसी प्रतीक या प्रतिमा की अवशयकता नहीं है।
अब स्थिति यह है कि जो इक्के दुक्के मुझसे नाराज नहीं थे, वे भी नाराज हो गए। तो किसी भी दिन आश्रम त्यागने का आदेश पारित कर सकते हैं ट्रस्टी।
और मेरे साथ समस्या यह है कि ईश्वर और धर्म को इतनी गहराई से समझ चुका हूँ कि अब किसी अन्य आश्रम में नहीं जा सकता, किसी संगठन, संस्था का गुलाम नहीं बन सकता, किसी भीड़ का हिस्सा नहीं बन सकता, माफियाओं की जय जय नहीं कर सकता। तो मेरे लिए किसी बियाबान जंगल में जाकर खो जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है।
मेरे जैसे सरफिरे के लिए इस दुनिया में सिवाय एकान्त और वीरान जंगल के अन्य कोई स्थान नहीं, कोई मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। क्योंकि दुनिया को जुमलेबाज चाहिए, दुनिया को भभूत, ताबीज़, तमाशा करने वाले, मनोरंजन करने वाले बाबा, साधु-संन्यासी चाहिए। जबकि मैं इन सबके विपरीत हूँ।
खैर देखते हैं आगे क्या होता है….वैसे भी यह वर्ष मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट बनने वाला है।
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