ब्राह्मण और क्षत्रिय लुप्त नहीं हुए हैं अभी तक

वैश्य अर्थात वे लोग जो व्यापार करते हैं। वैश्यों की कोई विशेष भेषभूषा नहीं होती। वे साधु-संतों के भेष में भी होते हैं और समाजसेवकों, राजनेताओं, पुलिस के भेष में भी।
भले वैश्यों का अपना समाज हो, लेकिन वैश्य समाज से बाहर भी वैश्य पाये जाते हैं, क्योंकि व्यापार किसी समाज की बपौती नहीं है।
रिश्वत लेना देना भी वैश्य कर्म है, क्योंकि धन के एवज में स्वाभिमान, निष्ठा, कर्तव्य खरीदना और बेचना व्यापार ही है। इसी प्रकार जनता का विश्वास खरीदने व बेचने का व्यापार भी राजनैतिक क्षेत्र में बहुत मुनाफे का व्यापार है और अधिकांश नेता इसी व्यापार से पाँच वर्षों में ही करोड़ों की संपत्ति के मालिक बन जाते हैं।
व्यापार के बाद सर्वोच्च सम्मानित कर्म है शूद्र कर्म। शूद्र कर्म अर्थात वह कर्म जो वेतन और पेंशन के एवज में किए जाते हैं। शूद्रों को अधिकार नहीं होता सही और गलत का चिंतन करने का। उन्हें केवल आदेशों का पालन करना होता है, भले वह गलत ही क्यों न हो, भले उस आदेश के करोड़ों लोग मौत के मुँह में ही क्यों ना चले जाएँ। उन्हें केवल आदेशों का पालन करना है और उसके एवज में वेतन, पेंशन, पुरुस्कार, सम्मान व अन्य सुविधाएं मिल जाती हैं।
रही क्षत्रिय और ब्राह्मण की बात, तो जो गोत्र और पूर्वजों के आधार पर ब्राह्मण या क्षत्रिय होने का दावा करते हैं, वे भी वैश्य होते हैं या फिर शूद्र होते हैं। क्योंकि ये लोग भी अधर्म और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की बजाय, अधर्मियों और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों की स्तुति-वंदन में लिप्त रहते हैं। ये अच्छी तरह जानते हैं कि यदि वे अधर्मियों और अत्याचारियों के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो इनकी लाइफ वैसे ही सस्पेंड या रिस्टरिक्ट कर दी जाएगी, जैसे फेसबुक रिस्टरिक्ट या सस्पेंड कर देता है फार्मा माफियाओं, प्रायोजित सुरक्षा कवच और प्रायोजित महामारी के विरुद्ध लिखने पर।
ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय पूरी तरह से लुप्त हो गए विश्व से। आज भी उनका आस्तित्व बचा हुआ है, तभी तो प्रायोजित महामारी, प्रायोजित सुरक्षा कवच, माफियाओं और उनकी गुलाम सरकारों के विरुद्ध लिखा और कहा जा रहा है। यदि ब्राह्मण और क्षत्रिय लुप्त हो गए होते, माफियाओं और देश व जनता को लूटने व लुटवाने वाली सरकारों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले कहीं नजर नहीं आते।
केवल जागृत और चैतन्य व्यक्ति ही जानते हैं की जनेयु, चोटी, पूजा-पाठ और संस्कृत ज्ञान का ब्रह्मणत्व से कोई सम्बंध नहीं। ना ही सरनेम से ब्राह्मणत्व का कोई सम्बन्ध है।
ब्राह्मण और क्षत्रियता का सम्बन्ध है व्यक्ति के मौलिक गुणों से, स्वभाव से, आचरण से।
जो भी व्यक्ति अधर्म, अनीति, अन्याय, शोषण, अत्याचार और देश व जनता को लूटने व लुटवाने वालों के विरुद्ध हो, वह ब्राह्मण और क्षत्रिय है। फिर चाहे वह किसी भी समाज, संप्रदाय, प्रांत, देश से संबन्धित हो कोई अंतर नहीं पड़ता। फिर वह मानव है या पशु-पक्षी यह भी महत्व नहीं रखता।
चूंकि ऐसे गुणों वाले व्यक्तिव अत्यंत दुर्लभ होते हैं, इसीलिए इन्हें सर्वोच्च सम्मान प्राप्त होता है। और विशेषकर आज जब चहूँ ओर वैश्यों और शूद्रों का ही वर्चस्व है और ये सभी देश व जनता को लूटने लुटवाने वालों की स्तुति वंदन और चाटुकारिता में लिप्त हैं, तब तो ब्राह्मणों और क्षत्रियों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
ब्राह्मण और संन्यासी में अंतर होता है
ब्राह्मण होना और संन्यासी होना एक ही बात नहीं है। ब्राह्मण चार वर्णों में से एक है, जबकि संन्यासी किसी वर्ण के अंतर्गत नहीं आता। वह खंडित नहीं, पूर्ण व्यक्तिव है। वह ब्राह्मण भी है, क्षत्रिय भी है, वैश्य भी है, शूद्र भी है और जहां जिस गुण की आवश्यकता होती है, वह वही बन जाता है अस्थाई रूप से।
संन्यासी होने का अर्थ ही होता है कि उसने स्वयं को ईश्वर को समर्पित कर दिया है और मुक्त हो गया सभी बंधनों से। अब वह स्वतंत्र है और वैसे ही जिएगा जैसा उसकी अंतरात्मा उसे जीने के लिए प्रेरित करेगी। एक संन्यासी किसी के अधीन नहीं होता, वह दूसरों के दिशानिर्देशों के अधीन नहीं होता। यही कारण है कि संन्यासी किसी की चाकरी या गुलामी नहीं करता। जबकि ब्राह्मणों, क्षत्रियों को भी वैश्यों और माफियाओं की चाकरी और गुलामी करते देख सकते हैं।
चाकरी (नौकरी) और गुलामी स्वीकारते ही अलिखित रूप से यह भी शपथ ले लिया जाता है कि अपने मालिकों के द्वारा किए जा रहे अन्याय, अत्याचार, शोषण में बिना किसी शर्त सहभागी रहेगा और हर सम्भव सहयोग प्रदान करेगा। फिर चाहे स्वयं उसकी अपनी अंतरात्मा धिक्कारती रहे, चाहे धर्म और ईश्वर के विरुद्ध ही कार्य करना पड़े वह पीछे नहीं हटेगा। क्योंकि मालिक को ही उसने अपना परमेश्वर मान लिया है और अब उसका आदेश ही सर्वोपरी है।
संन्यासियों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपनी अंतरात्मा को सुनने लगता है। वह सीधे ईश्वर से जुड़ जाता है। और जो सीधे ईश्वर से ही जुड़ जाये, वह भला किसी और की चाकरी और गुलामी कैसे कर सकता है ?
यहाँ मैं वास्तविक संन्यासियों की बात कर रहा हूँ, माफियाओं और लुटेरों के एजेंट्स और जो भगवा डाले, तिलक लगाए और शास्त्रों का लगाकर संन्यासी बने घूम रहे हैं उनकी बात नहीं कर रहा। ऐसे सभी संन्यासी साम्प्रदायिक और जातिवादी द्वेष व घृणा से ग्रस्त पाये जाते हैं। इनका उपयोग राजनेता, सरकारें, धर्म व जतियों के ठेकेदार और माफिया अपना अपना प्रचार-प्रसार के लिए करते हैं। लेकिन वास्तविक संन्यासियों को गुलाम बना पाना असंभव होता है।
वास्तविक संन्यासी जहां कहीं भी अधर्म, अन्याय, अत्याचार और शोषण देखेगा, विरोध करेगा। और चूंकि विद्रोही प्रवृति के होते हैं वास्तविक संन्यासी, इसीलिए अधिकांश को दान पर आश्रित रहना पड़ता है। दान इसलिए, क्योंकि किसी एक व्यक्ति, स्थान, या संस्था से बंधने पर उसे भी गुलामों की तरह ही जीना पड़ेगा और फिर वह सरकारी/गैर सरकारी वेतनभोगियों की तरह गूंगे, बहरे और अंधे का जीवन जीने के लिए विवश कर दिया जाएगा।
बहुत से लोग समझते हैं कि भगवा धारण करने पर ही कोई संन्यासी हो सकता है। यह बिलकुल गलत धारणा है। संन्यासी इसी भी वेश और परिधान में हो सकता है। संन्यासी की पहचान मात्र यही है कि वह सरकारों, राजनेताओं, पार्टियों, संगठनों, संस्थाओं और परम्पराओं का अधीनस्थ नहीं होता। संन्यासी समाज में रहे या समाज से बाहर वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण का विरोधी होगा, फिर कर्ता चाहे कोई भी हो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि वह उनकी दया और कृपा पर नहीं, ईश्वर पर आश्रित है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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जी धन्यवाद