एकला चलो रे क्योंकि…भीड़ से भरे पंथ अब दलदल बन चुके हैं

पंथ का अर्थ है मार्ग—एक ऐसा रास्ता, जिस पर चलकर हम अपने जीवन की दिशा तय करते हैं। और पंथी अर्थात वह व्यक्ति, जो उस मार्ग पर चलता है। हर कोई किसी न किसी पंथ का अनुयायी होता है—चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, राजनीतिक हो, या फिर विचारधारा से जुड़ा हो। लेकिन क्या हर पंथ सही दिशा में ले जाता है? क्या भीड़ के पीछे चलना सुरक्षित और लाभकारी होता है? या फिर यह सिर्फ एक भ्रम है?
भीड़ का आकर्षण: सुरक्षा या छलावा ?
जरा सोचिए, जब आप किसी ऐसे रास्ते पर चलते हैं जहाँ हजारों-लाखों लोग पहले से मौजूद होते हैं, तो आपको क्या लगता है? कि आप सही दिशा में हैं? कि इतनी भीड़ गलत नहीं हो सकती? यही सोचकर लोग भीड़ वाले पंथों का अनुसरण करने लगते हैं—हिंदू, इस्लाम, जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, कांग्रेसी, भाजपाई, समाजवादी, वामपंथी, दक्षिणपंथी, मोदीवादी, अंबेडकरवादी, गाँधीवादी, गोडसेवादी, मार्क्सवादी, माओवादी, मूलनिवासी, ब्राह्मणवादी, दलितवादी, आनन्दमार्ग, परमानन्दमार्ग… न जाने कितने ही पंथ और विचारधाराएँ हैं!
हर कोई यही सोचता है कि भीड़ के साथ चलने से वह सुरक्षित रहेगा। भीड़ बड़ी हो तो शक्ति भी अधिक होगी, संघर्ष आसान होगा और मंज़िल जल्दी मिलेगी। लेकिन यह एक भयावह भ्रम है!
भीड़ के मार्ग पर दलदल ही दलदल
जिस पंथ पर भीड़ होती है, वह हमेशा सत्ता के लालचियों, माफियाओं और देश-समाज के लुटेरों द्वारा निर्मित किया गया होता है। वहाँ व्यक्ति को एक स्वतंत्र विचारक बनने की अनुमति नहीं होती—बस एक गुलाम और कोल्हू का बैल बनकर रह जाना पड़ता है।
इतिहास उठाकर देखिए—भीड़ हमेशा गलत दिशा में बहकाई गई है।
- धर्म के नाम पर हत्याएँ हुईं, मंदिर-मस्जिद तोड़े गए, युद्ध छिड़े, और आम जनता का विनाश हुआ।
- राजनीतिक विचारधाराओं ने समाज को विभाजित कर दिया—कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी वाम-दक्षिण के नाम पर।
- मेडिकल माफियाओं ने महामारी का आतंक फैलाया, और सबसे बड़ी भीड़ वाली सरकारें, संगठन, सम्प्रदाय बस मिमियाते रह गए।
यह भीड़ उस मेंढकों के कुएँ जैसी होती है, जहाँ हर कोई बाहर निकलने की कोशिश करता है, लेकिन बाकी उसे खींचकर नीचे गिरा देते हैं।

सत्य का पथ अकेला होता है
जो सत्य के मार्ग पर चलता है, वह प्रायः अकेला ही होता है।
- बुद्ध अकेले निकले थे, उनके साथ कोई भीड़ नहीं थी।
- महावीर अकेले चले थे, उनके पीछे कोई समुदाय नहीं था।
- नानक अकेले चले थे, कोई सम्प्रदाय पहले से उनके साथ नहीं था।
- कबीर का कोई पंथ नहीं था, फिर भी उन्होंने दुनिया को सत्य का मार्ग दिखाया।
इसलिए, यदि आप किसी ऐसे पथ पर चल रहे हैं, जहाँ कोई नहीं है, तो घबराइए मत! बल्कि यह समझिए कि आप सही मार्ग पर हैं। सत्य, धर्म, न्याय, ईश्वर और आत्मज्ञान का मार्ग भीड़ का मोहताज नहीं होता।
“विचार कीजिए—क्या आप भीड़ के पीछे भाग रहे हैं, या फिर अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आगे बढ़ रहे हैं?”
निष्कर्ष
अब यह मत देखिए कि किस पंथ में भीड़ अधिक है, बल्कि यह देखिए कि वहाँ कौन-कौन लोग हैं। क्या वे विचारशील, विवेकवान और आत्मनिर्भर हैं? या वे केवल एक भक्त, गुलाम, जॉम्बी और शोषकों के सहायक बनकर रह गए हैं?
भीड़ से अलग होने की हिम्मत रखिए, अपने रास्ते पर अकेले चलने का साहस जुटाइए—क्योंकि सत्य का मार्ग अकेले चलने वालों के लिए ही होता है।
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