भक्त या प्रचारक होना सहज है किन्तु व्यवहारिक होना कठिन
भक्ति में डूब जाओ, ध्यान में डूब जाओ, भजन-कीर्तन, रोज़ा, नमाज़, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, स्तुति-वन्दन में डूब जाओ और भूल जाओ कि देश डूब रहा है, समाज डूब रहा है, परिवार डूब रहा है, नैतिकता, धार्मिकता, परस्पर विश्वास और सहयोगिता का भाव डूब रहा है। क्योंकि भक्ति में डूबे हुए लोगों को बचाने तो स्वयं ईश्वर/अल्लाह आएंगे, बाकी सभी को बचाने के लिए माफिया और उनकी गुलाम सरकारें दिन रात एक किए हुए हैं।
क्या कभी स्वयं से प्रश्न किया कि भक्ति कर क्यों रहे हैं ?
कहते हैं लोग कि हम तो फलाने ईश्वर/पैगंबर, गुरु, अवतार के उपासक हैं, भक्त हैं। बहुत से लोग दिन रात अपने-अपने आराध्य ईश्वर/अल्लाह, देवी-देवता, नेता-अभिनेता, गुरु के नाम जपते रहते हैं। लेकिन क्यों जपते हैं ?
क्योंकि इनके आराध्य बड़े चमत्कारी थे। कोई चाँद के दो टुकड़े कर देता था, कोई सूर्य को निगल लेता था, कोई छूकर कोढ़ियों को ठीक कर देता, कोई चरणामृत पिलाकर दुनिया के सभी रोगों को दूर कर देता है, किसी का नाम लेकर लॉटरी खेलने पर जीतने की गारंटी होती थी, कोई भभूत देकर दुनिया के सभी रोगों को दूर कर देता था।
अब इनसे पूछो कि जब इतने चमत्कारी थे आपके आराध्य तो फिर प्रायोजित महामारी का प्रायोजित सुरक्षा कवच (कोविड वैक्सीन) लिया क्यों ?
तो कहते हैं कि मजबूरी थी इसलिए ले लिए।
अर्थात इन्हें अपने चमत्कारी आराध्य पर पूरा विश्वास नहीं था। और होगा भी कैसे ?
क्योंकि प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर तो ईश्वर/अल्लाह समेत सारे देवी-देवता, चमत्कारी बाबा फरार हो गए थे मंदिर/मस्जिद, तीरथों को बन्द करवाकर। लेकिन जैसे ही महामारी का संकट टला फिर फिर आकर बैठ गए अपने अपने कार्यालयों (मंदिर, मस्जिद, तीर्थ, गुरुद्वारा, गिरिजाघरों) में अपनी स्तुति-वन्दन करवाने और भक्त शुरू हो गए हमारे आराध्य महान थे, चमत्कारी थे…
लोभ, स्वार्थ और भय पर आधारित होती है किताबी धार्मिकों की भक्ति
कहते हैं कीर्तन करने से मन को शांति मिलती है, मन एकाग्र होता है और ईश्वर पर ध्यान लगता है। कहते हैं पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज़, भजन-कीर्तन, स्तुति-वन्दन करने से ईश्वर/अल्लाह प्रसन्न होते हैं और मनोवांछित फल देते हैं। लेकिन कोई यह नहीं कहता कि हमारे आराध्य ने ज्ञान दिया, जो दिशा दिखाई वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है हम उनके दिये ज्ञान का ही अनुसरण कर रहे हैं।
क्योंकि ज्ञान से किसी को कोई लेना देना नहीं है। सभी की रुचि है स्वार्थपूर्ति में। बस मेरा भला हो जाना चाहिए, बाकी दुनिया जाये भाड़ में।
बहुत लोग कहते हैं कि हमारे आराध्य गुरु ने जो मार्ग दिखाया उसी पर हम चल रहे हैं। अब गुरु द्वारा दिखाये मार्ग को देखो और भक्तों, अनुयायियों की जीवन शैली देखो। सभी की जीवन शैली एक ही है और वह है स्तुति-वन्दन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज़, भजन-कीर्तन, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ, माफियाओं और देश को लूटने वालों की चाकरी करना, जय-जय करना, अधर्म, अन्याय, शोषण का विरोध करने की बजाय ताकतवर के पक्ष में खड़े हो जाना। अंतर केवल धर्म के नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्डों का ही होता है, बाकी कोई अंतर नहीं।
तो क्या गुरुओं ने यही सिखाया था कि पूजा-पाठ, भजन, कीर्तन, रोज़ा-नमाज़, व्रत-उपवास, धार्मिक ग्रंथो का पाठ करो और मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जियो ?
और यदि सभी गुरुओं ने यही सिखाया, तो फिर अलग-अलग पंथ, समाज बनाकर अलग-अलग गुरुओं को पूजने का औचित्य क्या है ?
गुरुओं ने महान बलिदान दिया, किसी को मृत्युदण्ड मिला, किसी को यातनापूर्ण कारावास मिला केवल इसलिए, क्योंकि उन्होने अधर्म, अन्याय, अत्याचार, शोषण के विरुद्ध आवाज उठाया था। लेकिन भक्त और अनुयायी कर क्या रहे हैं ?
भक्ति और प्रचार !!!
भक्ति और प्रचार क्यों कर रहे हैं ?
क्योंकि इससे सहज जीवन और कोई नहीं। केवल भक्ति करो, स्तुति-वन्दन करो, प्रचार करो और माफियाओं और लुटेरों की गुलामी करके ऐश्वर्य भोगो।
दूसरों को बताओ कि हमारे आराध्य गुरु कितने महान थे, कितना कष्ट सहा, कितनी यातनाएं सहीं, कितने सादगी से जिये। फिर कोशिश करो कि गुरु के नाम पर फेंके गए चारे में फँसकर कोई अपने दड़बे में आ जाये।
दुनिया भर के गुरु और उनके बनाए दड़बे हैं और सभी दड़बे के भक्त और प्रचारक दिन रात व्यस्त हैं चारा फेंकने में दूसरों के दड़बों में। जो दूसरों के दड़बों से शिकार खींच लाता है, उसे आचार्य, स्वामी या गुरु की उपाधि मिल जाती है। पूरी दुनिया में यही खेल चल रहा है।
यह खेल बिलकुल वही है, जो राजनैतिक पार्टियां और व्यवसायिक संस्थाएं खेलती हैं। रत्तीभर भी अंतर नहीं है।
लेकिन जब व्यावहारिकता की बात की जाये, तो किसी भी गुरु/पीर/पैगंबर, अवतार, किताब पर आधारित दड़बे में व्यावहारिकता दिखाई नहीं देती। ऐसा कोई दड़बा नहीं जो अधर्म, अन्याय, अत्याचार, माफियाओं, लुटेरों का विरोध कर रहा हो। सभी भक्ति और कीर्तन, भजन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज़, स्तुति-वन्दन के नशे में धुत्त पड़े हुए हैं।
क्यों ?
क्योंकि भक्ति करना, प्रचार करना सहज है, किन्तु व्यवहारिक होना कठिन। दूसरों को उपदेश देना सरल है कि ईमानदार बनो, सत्यवादी बनो, कर्तव्यनिष्ठ बनो, देशभक्त बनो, धर्म के पक्ष में लड़ो…लेकिन व्यवहार में लाने की बात होगी तब, सभी किताबी धार्मिक गधे के सर से सींग की तरह गायब हो जाएंगे। और जब खोजने निकलो, तो माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों के भक्तों की भीड़ में खड़े नजर आएंगे।