चमत्कारी बाबाओं और गुरुओं ने समाज को माफियाओं का गुलाम बना दिया

कहते हैं लोग कि जिसे गुरु नहीं मिला, उसका जीवन अंधकारमय रहता है, उसके जीवन में कभी भी सत्य का प्रकाश प्रवेश नहीं कर पाता। क्योंकि गुरु ही है, जो जीवन में छाए अंधकार को दूर कर सकता है।
लेकिन क्या जीवित या मृत चमत्कारी गुरु किसी के जीवन के अंधकार को दूर कर पाते हैं ?
मेरे विचार से नहीं। क्योंकि चमत्कारी गुरु आपके स्वार्थ और लोभ की पूर्ति करते हैं, शारीरिक बीमारियाँ दूर कर सकते हैं, शादी नहीं हो रही तो शादी करवा सकते हैं, नौकरी नहीं लग रही तो नौकरी लगवा सकते हैं, भभूत, ताबीज, आशीर्वाद या राजनेताओं से अपनी पहुँच का लाभ देकर। लेकिन ना तो समाज को धार्मिक बना सकते हैं, ना ही आत्मनिर्भर बना सकते हैं, ना ही सत्य से परिचित करवा सकते हैं, न ही अंधविश्वासों से मुक्त करवा सकते हैं, न ही आपके जीवन में बिखरे अंधकार को दूर कर सकते हैं। अधिक से अधिक यही होता है कि थोपी हुई परम्पराओं को ढोने वाली भीड़ खड़ी कर लेते हैं अनुयायियों और भक्तों के रूप में।
फिर भी समाज चमत्कारी गुरुओं के पीछे ही भागता है। ज्ञानी और दार्शनिक गुरुओं को तो गुरु ही नहीं मानता सम्मान तो तो बहुत दूर की बात है। लोग गुरु बनाने पहुँचते हैं ऐसे गुरुओं के पास, जो चमत्कारी हों, आर्थिक, राजनैतिक रूप से सम्पन्न हों, या फिर जिसके पास भक्तों, शिष्यों की भारी भीड़ हो। क्या ऐसे शिष्य और अनुयायियों का उद्देश्य आध्यात्मिक उत्थान प्राप्त करना होता है ?
नहीं बिलकुल नहीं। इन सभी का उद्देश्य केवल भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त करना होता है, व्यक्तिगत स्वार्थों को पूरा करना होता है।
गुरु केवल वही अनुकरणीय है जो अंधविश्वासों और अंधकारों से मुक्त करे
क्या कभी सोचा है आपने कि लोभ और स्वार्थ के अधीन होकर किन-किन को अपना भाग्यविधाता बना चुके हैं अब तक ?

प्राचीनकाल में जब मानव प्राकृतिक घटनाओं, दुर्घटनाओं के कारणों को समझ नहीं पाता था, तो उसने कल्पना कर ली कि कोई ऐसी शक्ति है, जो यह सब करवा रही है। ये शक्तियाँ अच्छी और बुरी दोनों हैं और उन्हें देव और दैत्य की संज्ञा दी। देव वह जो लाभ पहुंचाता है और दैत्य वह हानि पहुँचाता है। वृक्षों, नदी,तालाबों, पहाड़, सागर, वर्षा, वायु, सूर्य, अग्नि आदि को देव माना गया क्योंकि इनसे सभी प्राणियों को लाभ पहुंचता है।
और इन सभी को शक्ति प्रदान करने वाली शक्ति को ईश्वर या भगवान कहा गया। तो मानव ने ईश्वर और देवों को पूजना शुरू कर दिया। पूजने का अर्थ आरती, अगरबत्ती, स्तुति वंदन नहीं था। पूजने का अर्थ केवल सम्मान व्यक्त करना होता है। अर्थात जो पूजनीय होगा, उसे नष्ट नहीं करना है। जैसे कि जीवनोंपयोगी वृक्षों, पौधों को नष्ट नहीं करना है, जंगलों को नष्ट नहीं करना है, जल स्त्रोतों को नष्ट नहीं करना है…..केवल उपयोग करना है। इसी सिद्धान्त को सनातन धर्म कहते हैं और इसी का अनुसरण आज भी वनवासी समाज के लोग करते हैं।
ईश्वर/अल्लाह को पूजने वालों को समझाया गया कि गुरु महान होते हैं और गुरुओं के नाम पर खड़े कर दिया गया माफियाओं पर आश्रित और गुलाम ऐसे गुरु जो किसी प्रसिद्ध गुरु के शिष्य रहे हों। फिर इन गुरुओं का उपयोग किया गया जनता को गुलाम और ज़ोम्बी बनाने के लिए। इन गुरुओं ने सिखाया/समझाया जनता को कि देश लुट रहा है तो लुटने दो, बर्बाद हो रहा है तो होने दो सभी अपना अपना कर्म भोग रहे हैं। तुम तो केवल भक्ति करो, कीर्तन भजन करो, स्तुति वंदन करो, रोज़ा-नमाज, व्रत उपवास करो और गांधी जी के तीन बंदरों की तरह आँख, कान, मुँह बन्द कर चैन की बंसी बजाओ। भले इन गुरुओं के गुरुओं ने अधर्म, अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए कहा हो, लेकिन उनकी उस सीख को किताबों में दफन करके जनता को भक्ति में डूबा दिया गया।
ईश्वर/अल्लाह को पूजते-पूजते कब गुरुओं को पूजने लगे इन्हें होश ही नहीं। फिर गुरुओं को पूजते-पूजते कब बाबाओं और नेताओं को पूजने लगे इन्हें होश नहीं। अब डायलॉग मारते हैं कि जो कुछ होता है ईश्वर की मर्जी से होता है, भले सबकुछ माफियाओं की मर्जी और इनकी कायरता से हो रहा हो। गुरुओं के भक्त कहते हैं कि गुरु की मर्जी से हो रहा है। नेताओं के भक्त कहते हैं कि नेताओं की मर्जी से हो रहा है और वे जो कुछ भी कर रहे हैं हमारे भले के लिए ही कर रहे हैं, भले देश नीलाम कर रहे हैं, जनता को लूट रहे हैं। लेकिन कर वे हमारे भले के लिए रहे हैं।
और इस प्रकार ईश्वर और गुरुओं के एजेंट्स, बाबाओं, नेताओं, अभिनेताओं ने मिलकर पूरे विश्व की जनता को माफियाओं का गुलाम और भेड़ों, बत्तखों में रूपांतरित कर दिया।
और फिर धूर्त माफियाओं ने ईश्वर और गुरुओं के नाम पर अपना धंधा जमा लिया, बाजार खड़ा कर लिया। आधुनिक आध्यात्मिक, जातिवादी, साम्प्रदायिक गुरु स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझ बैठे और कई तो स्वयं को ही ईश्वर समझ बैठे और लगे चमत्कार के नाम पर ठगने और लूटने। आज गुरुओं के रूप में ऐसे ठगों के दर्शन होते हैं, जो स्वयं को त्यागी बैरागी कहते हैं लेकिन दूसरों की थाली में क्या आया उसपर नजर टिकाये बैठे रहते हैं। अवसर मिलते ही दूसरों की थाली से छीनने या चुराने में संकोच नहीं करते।
मैंने गुरुओं के ऐसे एजेंट्स (आचार्य) भी देखे हैं, जो दूसरों को सुखी व संतुष्ट देखकर खुश नहीं रह पाते। बल्कि दूसरों के जीवन को जितना अधिक से अधिक नर्क बना सकें, यही प्रयास करते हैं। दीक्षा देने और शिष्य बनाने की होड़ देखी है मैंने गुरुओं के एजेंट्स में। और शिष्य बनाने के बाद उसे इंसान नहीं बल्कि मशीन और गुलाम समझ लेते हैं। शिष्य के आध्यात्मिक उत्थान में सहयोगी न बनकर, दिन भर उससे काम करवाते रहेंगे, जरा-जरा सी गलती पर चीखने-चिल्लाने लगेंगे। यदि किसी शिष्य को किसी से कोई भेंट या उपहार मिल गया, तो रात भर नींद नहीं आएगी। और जब तक शिष्य से वह उपहार या भेंट नहीं हथिया लेते चैन से नहीं बैठते। फिर कहते हैं कि जो कुछ भी है सब गुरु का है और गुरु को ही समर्पित करना चाहिए। यदि गुरु न होता तो उसे यह सब नहीं मिलता। अर्थात गुरुओं के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थों की सिद्धि में लिप्त हैं अधिकांश गुरुओं के एजेंट्स। इतना लोभ, इतनी ईर्ष्या क्या त्यागी और आध्यात्मिक व्यक्ति कर सकता है भला ?
ईश्वर और देवी देवताओं के एजेंट्स मंदिरों में अपनी दुकानें जमाये बैठे हैं और संस्थापक गुरुओं के एजेंट्स आश्रमों में अपनी दुकान जमाये बैठे हैं। इन्हें देखकर कहीं से भी नहीं लगता कि रत्ती-भर भी आध्यात्मिक उत्थान हुआ है इनका। दिन रात पैसा-पैसा करते रहते हैं। फिर कहते हैं कि दूसरों की बुराइयाँ मत देखो, अपनी बुराई देखो और ईश्वर से प्रार्थना करो कि बुराइयाँ दूर हो जाएँ। ऐसे गुरु आध्यात्म और धर्म के नाम पर केवल सांप्रदायिकता और ढोंग-पाखण्ड ही परोसते हैं, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास ही सिखाते हैं। लेकिन ना धर्म सिखा पाते हैं और ना ही आध्यात्म, क्योंकि इन्हें स्वयं नहीं पता होता कि धर्म और आध्यात्म है क्या।
गुरु वह जो शिष्य को सही मार्ग दिखाये, न कि दूसरों की सम्पत्ति और कमाई पर नजर गड़ाए। लेकिन दुर्भाग्य से स्वार्थियों और लोभियों की भीड़ खोजती भी स्वार्थी और लोभी गुरु ही है। और नहीं भी खोजती, तो भी स्वार्थ और लोभ से भरी उनकी वाइब्रेशन उन्हें ऐसे गुरुओं की शरण में पहुंचा देती है।
सारांश यह कि यदि आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं, तो फिर ईश्वर को ही पूजिए। अलग से गुरु पूजने की आवश्यकता नहीं है। और गुरु को पूजना चाहते हैं तो ऐसे गुरु को पूजिए जो आपको सही राह दिखाता हो, जो अधर्म, अन्याय और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता हो। लेकिन जो मैं सुखी तो जग सुखी और ना काहू से दोस्ती न काहू से बैर के सिद्धान्त पर चलता हो, वह गुरु कहलाने योग्य नहीं। ऐसे गुरु ना तो समाज का कोई आध्यात्मिक उत्थान कर पाते हैं और न ही अपने शिष्यों का।
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
