क्यों हो जाते हैं माता-पिता अकेले बच्चों के बड़े हो जाने के बाद ?

आधुनिक समाज में देखने मिलता है कि बच्चे जैसे ही बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं, माता-पिता को वृद्धाश्रम भेज देते हैं या फिर उन्हें अकेले जीने के लिए छोड़ देते हैं। माता-पिता अपने बच्चों से बात करना चाहते हैं फोन पर तो बच्चों के पास समय नहीं होता। माता-पिता केवल यादों और अल्बम्स में संजोय तस्वीरों को ही अपनी दुनिया समझकर जीने लगते हैं।
क्या समाज ने कभी चिंता की कि ऐसा क्यों हो रहा है और उसे रोका कैसे जाये ?
नहीं ! समाज तो हिन्दू-मुस्लिम खेलने में व्यस्त है, समाज तो नेताओं, पार्टियों की जयकारे लगाने में व्यस्त है, समाज ग्लोबलाइज़ेशन के नशे में धुत्त विदेशियों और माफियाओं की गुलामी में मस्त है। फिर समाज के पास इतनी समझ ही नहीं कि सामाजिक समस्याओं को कैसे दूर किया जाये। समाज तो आश्रित है राजनैतिक पार्टियों, सरकारों, माफियाओं और पूँजीपतियों पर। वे ही तय करते हैं कि समाज को कैसा होना चाहिए, क्या सोचना चाहिए, क्या देखना चाहिए।
और यही कारण है कि समाज आज इतना दीन-हीन हो चुका है कि अपनी सामाजिक समस्याएँ भी स्वयं नहीं सुलझा पा रहा। समाज इतना विवश और असहाय हो चुका है कि हर समस्या के लिए सरकार, पार्टी, माफिया और ईश्वर का मुँह ताकता है और अपेक्षा करता है कि वे समस्याओं को सुलझाएँ।
जीव विज्ञान और मनोविज्ञान क्या कहता है वृद्धों के अकेले हो जाने के विषय में वह नहीं जानता। लेकिन मेरा अपना मानना है कि दोषी हैं परिवार और समाज। बच्चे पैदा करने का शौक चर्राता है विवाह होते ही। यदि विवाह के बाद एक-दो वर्षो में बच्चा न हो, तो परिवार से लेकर समाज तक चिंतित हो जाता है। किसी को पुरुष के पौरुष पर संदेह होता है, तो किसी को स्त्री की स्त्रीत्व पर। किसी को लगता है कि पुरुष नपुंसक है तो किसी को लगता है कि स्त्री बाँझ है। तो परिवार और समाज में पुरुषत्व और स्त्रीत्व सिद्ध करने के लिए बच्चा पैदा करना आवश्यक हो जाता है।
लेकिन बच्चे को पैदा करने के साथ ही उसे परिवार और समाज का जमुरा या कठपुतली समझ लिया जाता है। कई परिवार तो ऐसे भी देखे हैं जो बच्चे पर एहसान जताते हैं हर छोटी-छोटी अवशयकता पूरी करने के साथ ही। फिर बच्चे को अपनी पसंद के अनुसार बड़ा करते हैं, उसे पैसे कमाने के लिए विवश करते हैं। और जब वह इंसानियत भूलकर केवल पैसे कमाने की मशीन बन जाता है, तब वह माता-पिता के प्रति अपनापन भी त्याग देता है। क्योंकि उसके मन में यह धारणा बैठ जाती है कि मैं केवल पैसे कमाने वाला कोल्हू का बैल मात्र हूँ और जब तक पैसा कमाकर देता रहूँगा, ये लोग मुझसे प्रेम जताएँगे।
एक संन्यासी के विषय में पता चला कि उसके बच्चे अच्छी नौकरियाँ कर रहे हैं, लेकिन वृद्ध पिता को घर से बाहर निकाल दिया। घर में रहने की शर्त रखी कि दस हज़ार रुपए महिना कमाकर लाओ तभी घर में घुसना। बेचारा भटकता हुआ किसी आश्रम में पहुंचा और वहाँ संन्यास धारण कर लिया।
क्यों हुआ ऐसा ?
क्योंकि बचपन में उन बच्चों के मन में यही धारणा बैठाई गयी होगी कि जो कमाऊ नहीं है, उसे घर में रहने का अधिकार नहीं है।
जाने अनजाने घरों में ऐसी बातें हो जाती हैं, जिससे बच्चे के मन में यह धारणा बैठ जाती है कि जो रुपए कमाता है, वही घर में रहने का अधिकारी है। और फिर जब वह बड़ा होता है, तो फिर पैसे कमाने की मशीन बन जाता है और भूल जाता है कि इंसान कैसा होता है।
दूसरी गलती माता-पिता से होती है मोहवश अपनी सारी सम्पत्ति बच्चों के नाम कर देना।
यदि बच्चों को माता-पिता का अपनत्व नहीं मिल पाता बचपन में और कहा जाता है कि खाना, कपड़ा और छत मिली हुई है तुम्हें यही एहसान मानो। वरना तो कितने बदनसीब हैं, जिन्हें यह भी नसीब नहीं है फुटपाथों पर पड़े हुए हैं। तब ऐसी परवरिश में पले बच्चे माता-पिता को त्याग देते हैं समय आने पर। इसलिए यदि किसी ने अपना माता-पिता को त्याग दिया तो बच्चों को दोषी ठहराने की बजाय कारणों का पता लगाएँ।
लेकिन समाज ने कभी भी इस गंभीर समस्या पर चिंतन-मनन नहीं किया और ना ही करेगा। क्योंकि सभी माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों की चाकरी करके रुपए कमाने में व्यस्त हैं। और जब समाज ही स्वयं गुलाम बन चुका है, तो सिवाय गुलामी करने के और कुछ सोच भी नहीं सकता।
~ विशुद्ध चैतन्य
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