मेरी यात्रा परतन्त्रता से स्वतन्त्रता की ओर
कोल्हू का एक बैल जो दिन-रात माफियाओं और सरकारों के लिए पैसे कमाने के लिए मेहनत कर रहा था, अचानक एक दिन जाग जाता है। और जागने के बाद उसे एहसास होता है कि वह तो मानव था, परिवार और समाज ने उसे कोल्हू का बैल बनाकर रख दिया।
सेलरी बढ़ने से पहले महंगाई बढ़ जाती, मकान का किराया बढ़ जाता, बिजली का बिल बढ़ जाता। फिर और अधिक कमाने के लिए और अधिक मेहनत। फिर महीने के अंत में पता चलता, जो भी कमाया, वह सब तो बाजार, माफियाओं और सरकारों के लिए कमाया। अपने लिए तो सोने और आराम करने का भी समय निकाल पाना असम्भव होता जा रहा था।
मैं ब्रॉडकास्ट, फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री के लिए कई वर्षों से कार्य कर रहा था स्टुडियो साउंड रिकॉर्डिंग और मिक्सिंग इंजीनियर के रूप में। मैंने कई लिजेंड्स के लिए कार्य किए जैसे कि शुभामुद्गल, रीता गांगुली, शेरोन लॉयन, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित भीमसेन जोशी आदि। दूरदर्शन, वीनस, टिप्स, टी-सिरीज़, वेस्टन, डिस्कवरी चैनल, हिस्ट्री चैनल, हंगामा, आदि के लिए कार्य किए। शांतनु मोइत्रा, प्रदीप सरकार आदि के लिए कार्य किए। लिस्ट बहुत बड़ी है और बहुत मान-सम्मान पाया मैंने सभी से।
लेकिन भीतर कहीं कुछ खालीपन था, एकाँकीपन था। अकेलेपन और खालीपन को दूर करने के लिए मैं अधिक से अधिक व्यस्त रहता था। तीन-तीन शिफ्ट और कई बार तो चार शिफ्ट में काम करता था। एक दो घंटे सोने को मिल जाये वही बहुत होता था मेरे लिए। लेकिन फिर एक दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस मार्ग पर चल रहा हूँ, जिस भेड़चाल में दौड़ रहा हूँ, वह मुझे भेड़ ही बनाएगा इंसान नहीं बनने देगा। और समझ में आने लगा था कि माफियाओं द्वारा रचे गए चक्रव्युह से निकले बिना स्वतंत्र हो पाना असंभव है। तो त्याग दिया दिल्ली को हमेशा के लिए और निकल गया हरिद्वार।
मुझे किसी ने बताया था कि हरीद्वार में निरंजन स्वामी जी को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो कम्प्युटर संबन्धित कार्यों को कर सके, पोस्टर आदि डिजाइन कर सके, तो मैं पहुँच गया उनके आश्रम। लेकिन मेरा मन वहाँ भी नहीं लगा क्योंकि वहाँ भी मैं माफियाओं के ही मायाजाल में फंसा हुआ था। मैं मुक्ति चाहता था, स्वतन्त्रता चाहता था। इसीलिए जब निरंजन स्वामी जी के साथ प्रयागराज के कुम्भमेला 2013 में पहुँचा तो स्पष्ट कह दिया कि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा और कहीं और निकल जाऊंगा।
उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि पूरा मान-सम्मान देने और सुख-सुविधाएं देंगे के बाद भी क्यों जाना चाहता हूँ। लेकिन मेरे भीतर बहुत तीव्र भावना थी कि मुझे निकल जाना चाहिए, ये साधु-समाज मेरे लिए नहीं है। इस समाज और अन्य समाज में कोई अंतर नहीं है। यहाँ भी सभी उसी भेड़चाल में दौड़ रहे हैं, जिसमें बाकी जनता दौड़ रही है। साधु-समाज भी माफियाओं का ही गुलाम समाज बन चुका है स्वतंत्र यहाँ भी कोई नहीं। इसलिए मैं हर हाल में निकलना चाहता था और ऐसी जगह जाना चाहता था, जहां मैं स्वयं से परिचित हो सकूँ, स्वतन्त्रता परतंत्रता का अंतर गहराई से समझ सकूँ।
तब प्रयागराज के झूंसी में स्थापित परमानंद आश्रम के स्वामी शरदानन्द गिरि जी ने मुझे अपने आश्रम में ठहरने का आग्रह लेकर आए सुबह सुबह। लेकिन मैंने इंकार कर दिया क्योंकि मेरा अन्तर्मन कह रहा था कि मेरा ठिकाना कहीं और है। लेकिन कहाँ है यह नहीं पता था।
15 फरवरी 2013 प्रयागराज में तेज तूफान आया। कई शिविर क्षतिग्रस्त हो गए थे। दूसरे दिन भी आधी रात को तेज आँधी और बारिश आयी, जिससे मेरा शिविर क्षतिग्रस्त हो गया। मैंने आश्रम के मैनेजर से कहा कि देख लो ईश्वर ने भी बता दिया कि अब मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए। मैनेजर ने पूछा कि कहाँ जाओगे, मैंने कहा कि पता नहीं, जहां ईश्वर ले जाना चाहे चला जाऊंगा।
शाम को लीलामन्दिर आश्रम के आश्रमध्यक्ष स्वामी ध्यान चैतन्यानन्द जी पहुंचे हमारे शिविर। उन्हें किसी ने बताया कि मैं कहीं जाना चाहता हूँ, तो उन्होंने मुझसे थोड़ी देर बात की। फिर उसके बाद वे किसी अन्य स्वामी जी के शिविर में चले गए उनसे भेंट करने। रात में एक टेंट खाली हुआ, जिसमें दो लोगों के लिए बिस्तर की व्यवस्था थी। तो वह टेंट मुझे और स्वामी ध्यान चैतन्यानन्द जी को दे दिया गया। हम दोनों वहाँ देर रात तक बातें करते रहे और फिर तय हुआ कि मैं उनके साथ भ्रमण पर निकल सकता हूँ। सुबह हम हम ट्रेन पर थे…..
हम दिल्ली पहुंचे और दिल्ली के एक होटल में ठहरे। उसके बाद लुधियाना गए। लुधियाना से कलकत्ता के पानी हाटी आश्रम पहुँचे। फिर वहाँ से लीलामन्दिर आश्रम (देवघर) पहुँचे।
महत्वपूर्ण घटनाएँ जो ध्यान देने योग्य हैं, वह है मेरा अन्तर्मन जो निरंतर मुझे कह रहा था कि मेरे लिए कोई और जगह है। फिर वर्षा से मेरा टेंट ध्वस्त हो जाना और उसी दिन शाम को ध्यान महाराज का पहुँचना और फिर दूसरे दिन मेरा ध्यान महाराज के साथ निकल जाना। ये सभी घटनाएँ ईश्वरीय थीं। ऐसा लगता है कि पहले से ही सब कुछ तय था कि कब क्या घटना घटनी है और किसे कब कहाँ मिलना है।
तो 1 मार्च 2013 को मैं लीलामंदिर आश्रम पहुँचा। यहीं मैं संन्यास लिया, क्योंकि यहाँ का वातावरण मुझे पसंद आया। मुझे एकांत चाहिए था, शांति चाहिए था ताकि मैं आत्मचिंतन कर सकूँ। वह मुझे यहीं मिला। हालांकि मैंने यहाँ से भी कई बार जाना चाहा, लेकिन ईश्वर को स्वीकार नहीं था। इसलिए हर बार कोई न कोई बाधा खड़ी हो जाती थी, और मैं नहीं निकल पाता था।
आज मुझे यहाँ दस वर्ष हो चुके हैं और इतने लंबे समय तक मैं कहीं नहीं ठहरा। लेकिन स्वतन्त्रता की खोज की यात्रा अभी जारी है !
सुन्दर यात्रा!!
गुरूजी आपकी आगे की यात्रा भी मंगलमय हो 🙏🙏🙏
जी धन्यवाद