कृषि प्रधान नहीं, शूद्र प्रधान देश बन चुका है भारत
सदियों तक यह भ्रांति फैलाई जाती रही रही कि शूद्र वे लोग हैं, जो मैला उठाते हैं, गंदगी उठाते हैं, नगर को साफ रखने का कार्य करते हैं, पैरों को सुरक्षा प्रदान करने वाले जूते और सेंडल बनाते हैं। लेकिन वास्तविकता बहुत अलग थी।
शूद्र चार वर्णो यानि वर्गों में से एक वर्ग है और शूद्र कोई निंदनीय या नीच वर्ण नहीं है। प्रत्येक मानव में चार मुख्य गुणधर्म पाये जाते हैं। जिन्हें हम ब्राह्मण (सात्विक, मार्गदर्शक, उपदेशक, आध्यात्मिक गुरु, शिक्षक, लेखक, चिंतक, दार्शनिक), क्षत्रिय (संरक्षक, प्रहरी, अत्याचारियों के विरुद्ध निरंतर संग्राम रत योद्धा), वैश्य (व्यापारी, मध्यस्थता करने वाला, बिचौलिया, दलाल, अकाउंटेंट, कैशियर) और शूद्र (सेवक, नौकर, सेना, पुलिस व अन्य वे सभी जो सरकारी या गैरसरकारी वेतन व पेंशन भोगी हैं) आदि नामों से जानते हैं। वर्तमान में आप देखते ही हैं कि वैश्यों और शूद्रों का बड़ा मान-सम्मान है और शूद्र यदि सरकारी वेतन भोगी है, तो समाज उसे सर माथे पर बैठाता है।
ब्राह्मण और क्षत्रिय आज सम्मानित क्यों नही हैं ?
पाश्चात्य शिक्षा पद्धति अर्थात उपनिवेशवाद पर आधारित शिक्षा पद्धति ने भेदभाव मुक्त समाज बनाने के नाम पर ऐसी शिक्षा पद्धति बनायी, जिसका मुख्य उद्देश्य था व्यक्ति के मौलिक गुणों को दबाकर केवल वैश्य और शूद्र गुणों को उभारना। ताकि कुछ मुट्ठीभर माफिया उन्हें अपना गुलाम बना सकें। परिणाम यह हुआ कि आज जो ब्राह्मण और क्षत्रिय का लेबल लगाकर घूम रहे हैं, वे भी वैश्य या शूद्र बन चुके हैं। इसीलिए मंदिरों में बैठा ब्राह्मण यह तो वैश्य होता है, या फिर शूद्र। वैश्य वह जो आस्था, विश्वास और धर्म का व्यापार कर रहा है और शूद्र वह जो वहाँ वेतन या पारिश्रमिक के एवज में सेवा दे रहा है।
क्षत्रिय का लेबल लगाकर घूमने वाला समाज आजकल आने वाली फिल्मों की समीक्षा करता रहता है कि आगामी किस फिल्म का विरोध करना है और किस फिल्म का समर्थन करना है। दूसरा काम क्षत्रियों का यह है कि राजनैतिक पार्टियों के इशारे पर मुस्लिमों के घरों में जाकर किचन में क्या पक रहा है यह देखना। क्योंकि क्षत्रिय भी अब क्षत्रिय नहीं शूद्र बन चुके हैं और नेताओं, राजनैतिक पार्टियों के इशारों पर नाचते फिरते हैं।
तो वास्तविक ब्राह्मण और क्षत्रिय अब लगभग लुप्त हो चुके हैं। जो थोड़े बहुत बचे भी हैं और देश व जनता के लुटेरों के विरुद्ध लिख या बोल रहे हैं, उन्हें भी उन्हीं का समाज अब स्वीकाने में संकोच करता है। क्योंकि माफियाओं और देश के लुटेरों के विरुद्ध यदि कोई कुछ बोलता या लिखता है, तो राजा का प्रकोप झेलना पड़ेगा।
अब जब ब्राह्मण और क्षत्रिय भी अपने मौलिक गुणों से विमुख होकर वैश्य बन चुके हैं या फिर शूद्र बन चुके हैं, तो स्वाभाविक है कि वास्तविक ब्राह्मण और क्षत्रियों को सम्मान देगा कौन ?
आज आप पूरे विश्व में घूम लीजिये, आपको दो ही वर्ण मिलेंगे और वह है वैश्य और शूद्र। या तो लोग व्यापार कर रहे हैं, या फिर चाकरी कर रहे हैं। दुनिया में जितने भी महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थान हैं, उससे निकलने वाले छात्र या तो व्यापारी बन रहे हैं या फिर नौकर बन रहे हैं। बिरले ही होते हैं, जो ना तो व्यापार कर रहे हैं, न ही नौकरी कर रहे हैं।
ऐसी दुनिया जिसमें वैश्यों और शूद्रों का ही वर्चस्व हो, सभी समाजों में इन्हीं का बोलबाला हो, माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी करने वालों का सम्मान हो रहा हो, वैश्य भी झूठे, मक्कार नेताओं, पार्टियों और सरकारों को दिल खोलकर दान दे रहे हों, तो आप ही सोचिए कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों अर्थात जो समाज को सद्मार्ग दिखाते हों, जो अधर्मियों के विरुद्ध आवाज उठाते हों, उन्हे सम्मान मिलेगा कैसे ?
केवल राजनीति ही नहीं, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, सरकारी समाजों में भी यही धूर्तता लागू है।
मंदिरों, मूर्तियों, तीर्थों के नाम पर व्यापार करने वाले बताते हैं कि इनसे आपका भला होगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि इनसे उनका भला हो रहा होता है, उनकी तिजोरियाँ भर रही होती हैं।
और जिन मंदिरों, तीर्थों की महिमा और दैविक शक्तियों का प्रचण्ड प्रचार करके करोड़ों रुपए कमाए जा रहे होते हैं, उन्हें ही ताला लगाकर फरार हो जाते हैं प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर। क्योंकि वहाँ बैठे ठेकेदार भी जानते हैं कि वहाँ ऐसी कोई दैविक शक्ति नहीं है, जो प्रायोजित सरकारी महामारी के प्रकोप से उनकी रक्षा कर सके।
केवल प्रायोजित सरकारी महामारी से ही नहीं, साधारण बीमारियों से भी सुरक्षा दे पाने में अक्षम होते हैं वहाँ विराजमान देवी-देवता। इसीलिए मंदिरो, तीर्थों के ठेकेदार अस्पतालों के चक्कर लगाते नजर आते हैं। जबकि जनता को बरगलाते हैं कि मंदिरों, तीर्थों पर चढ़ावा चढ़ाओगे, तो असाध्य रोगों से भी मुक्ति पा जाओगे।
धर्म और नैतिकता के ठेकेदार दुनिया भर के नैतिक और धार्मिक प्रवचन करते फिरते हैं, लेकिन ना तो स्वयं कभी माफियाओं और देश के लुटेरों का विरोध करते हैं, न ही जनता को सिखाते हैं विरोध करना। क्योंकि ऐसा करेंगे, तो माफियाओं का प्रकोप तो झेलना ही पड़ेगा, सीबीआई, ईडी, आईटी और पुलिस प्रकोप झेलना ही पड़ेगा, साथ ही साथ वे भी विरोध में खड़े हो जाएँगे तो माफियाओं और देश के लुटेरों द्वारा शोषित हैं। और फिर धर्म और अध्यात्म के नाम पर हो रही कमाई का बंटाढार हो जाएगा।
सरकारी नौकरी करने वाले शान से कहते हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं, देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने में भी संकोच नहीं करते। लेकिन वास्तविकता यह है कि पेंशन और सुरक्षित आय के लोभ में सरकारी नौकरी जॉइन करते हैं और फिर माफ़ियों और देश के लुटेरों की सेवा में व्यस्त हो जाते हैं। एक बार सरकारी नौकरी लग गयी, तो फिर ना देश की चिंता, न ही माफियाओं और लुटेरों द्वारा शोषित हो रही जनता की चिंता। बस अपना और अपने परिवार के भले के लिए माफियाओं और लुटेरों की गुलामी करते हैं और गुलामी करते हुए मर जाते हैं।
यदि हम ध्यान से वर्तमान देशों को देखें, तो पाएंगे कि कृषि प्रधान देश अब कहीं नहीं बचे। सभी वैश्य और शूद्र प्रधान देशों में रूपांतरित हो चुके हैं। आज किसान भी किसान नहीं रहे, माफियाओं और सरकारों के गुलाम बनकर रह गए हैं। आज खेती भी की जाती है, तो अपने परिवार के स्वास्थ्य और हितों को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि माफियाओं और सरकारों के हितों को ध्यान में रखकर की जाती है। इसीलिए अधिकांश किसान दरिद्रता, भुखमरी और कर्ज की मार सहने के लिए विवश हो जाते हैं।
कैसा होता है कृषि प्रधान परिवार ?
परिवार इकाई होती है समाज की और समाज इकाई होता है देश का। यदि परिवार ही कृषि को महत्व नहीं दे रहा, तो फिर समाज भला कृषि को महत्व कैसे दे सकता है ?
यदि परिवार ही चाकरी को श्रेष्ठ और कृषि को निकृष्ट मानता है, तो फिर समाज और सरकार तो वैश्य होते हैं, वे भला कृषि को श्रेष्ठ क्यों मानेंगे ?
पिछले कुछ दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में इतना बड़ा परिवर्तन आ गया कि शिक्षा का उद्देश्य ही हो गया है स्लेव अर्थात गुलामों का निर्माण करना। मुझे नहीं लगता कि स्कूल और कोलेजस में अब कृषि और बागवानी सम्बन्धी पढ़ाई रत्तीभर भी होती होगी। अब तो स्कूलों में कोडिंग सिखाई जाती है, कम्प्युटर सिखाये जाते हैं। अब बच्चे पढ़ाई भी शिक्षित होने के लिए नहीं करते, बल्कि नौकरी पाने के लिए करते हैं। इसीलिए कृषि निकृष्ट हो गया और चाकरी श्रेष्ठ हो गया।
चाकरी करना आत्मनिर्भरता नहीं है। आत्मनिर्भरता है सरकारों और माफियाओं से स्वयं को सपरिवार मुक्त कर लेना। लेकिन ऐसा होगा कैसे ?
आत्मनिर्भरता और स्वतन्त्रता मुफ्त में नहीं मिलती। भारी कीमत चुकानी पड़ती है और वह है कठिन परिस्थितियों से लड़ने के लिए तत्पर हो जाना। गुलामी के एवज में मिल रहे 5 किलो राशन के लालच से मुक्त हो जाना। जिस प्रकार ईमान, ज़मीर, जिस्म गिरवी रखकर नौकरी पाने के लिए भागते हो, वैसे ही भागना होगा भूमि का एक टुकड़ा पाने के लिए। टुकड़ा इतना बड़ा अवश्य होना चाहिए, जिसमें अपने परिवार की आवश्यकतानुसार फल, सब्जियाँ, अनाज, मसाले आदि उगा सकें। बाजार से जेनेटिकली मोड़िफाइड व कैमिकल युक्त अनाज, फल व सब्जियाँ खरीदने की बजाय, अपने ही खेत में जैविक अर्थात ओर्गनिक फल, सब्जियाँ और अनाज उगाकर खाएं। ताकि आपका परिवार रोगों से मुक्त रहे और सरकारों और फार्मा माफियाओं के चंगुल से मुक्तजीवन जी सके।
जानता हूँ यह सब बहुत कठिन लग रहा होगा, क्योंकि शिक्षा ही गुलामी की पायी है, तो स्वतन्त्रता आसानी से समझ में आएगी नहीं। जैसे पिंजरे में पले बढ़े पंछी को खुले आसमान में छोड़ दिया जाए, तो वह घबराकर वापस पिंजरे में लौट आता है, वैसे ही आधुनिक समाज के नागरिकों की स्थिति हो चुकी है।
लेकिन यदि अपने देश को कृषि प्रधान देश बनाना है, तो कृषि को अपनाना होगा। और कृषि भी ऐसी, जो माफियाओं और सरकारों पर आश्रित न हो। अन्यथा वही हश्र होगा, जो कर्जों में डूबे किसानों का हो रहा है।