बचपन से ही एक काल्पनिक दुनिया में जीता आ रहा था

“न ख्वाहिशें, न लोग और न ही किसी के साथ की आस बाकी बची है मुझमें। फिर भी जाने क्यों ये जो नन्हा सा दिल है कि वो मानता ही नहीं। वो ये मानने को तैयार ही नहीं कि अब मेरी मोहब्बत करने की उम्र पीछे छूट चुकी है। गर असफल प्रेमियों की दास्तान लिखी जाय तो उनमें मैं अव्वल आऊँगा। क्योंकि किसी ने मुँझसे प्यार किया ही नहीं। शायद एकतरफा प्रेम ही मेरी जिंदगी की वो सच्चाई है जो अभी तक मुँझमें एक युवा दिल को सँजोये हुए है।” – Rajendra Singh
मैं भी ऐसी ही मनःस्थिति में जीता आ रहा हूँ पिछले कई वर्षों से। सोचा था संन्यास ले लूँगा तो मुक्त हो जाऊंगा, लेकिन हो नहीं पाया।
हमेशा किसी अपने का इंतज़ार रहता है। ऐसा लगता है कि कहीं कोई तो है, जो मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। और यह इंतज़ार तब से शुरू हुआ, जब मेरी माँ का स्वर्गवास हुआ था। तब मैं नौ वर्ष का था।
मृत्यु शैय्या में लेटी माँ कह रही थी, “बेटा अब मैं जा रही हूँ, तुझे ही अपने भाई-बहनों का ध्यान रखना है। जब तू बड़ा हो जाएगा, तो कोई तेरे जीवन में आएगी जो तुझे मुझसे भी अधिक प्यार करेगी।”
माँ के विदा हो जाने के बाद फिर मेरा अपना कोई नहीं बन पाया। बचपन में सुना “मेरे अपने” फिल्म का गीत “कोई होता जिसको अपना कह लेते यारो, पास नहीं तो दूर ही होता लेकिन कोई मेरा अपना।’ हमेशा मस्तिष्क में गूँजता रहता है।
रफी साहब का गाया, “हुई शाम का उनका खयाल आ गया…..”
मेहँदी हजन साहब का गया, “रंजिश ही सही, दिल दुखाने के लिए आ….”
अब आप सोचिए कि नौ वर्ष की आयु से ही विरह गीत मुझे पसंद आने लगे थे। जिस उम्र के बच्चे खेलने कूदने में व्यस्त रहते थे, मैं टूटे दिल शायरों के गजलें सुना करता था।
बचपन से ही एक काल्पनिक दुनिया में जीता आ रहा था। बड़ा हुआ तो समझ में आया कि जेब में पैसा और नीचे कार होनी चाहिए तब कोई अपना मिलता है। मुफ्त में तो एक गिलास पानी भी नहीं मिलता शहरों में।
आज जानता हूँ कि सोलमेट यानि जीवन साथी वह नहीं, जो समाज द्वारा विवाह के नाम पर थोपा जाता है दुनिया भर की शर्तों के साथ। जीवन साथी तो वह होता है जो शर्तों के परे हो और केवल सहयोगी होना चाहता हो, जिसका साथ होना ही आत्मविश्वास से भर देता है।
शायद पिछले जन्म में जिससे बिछड़ गया था, उसने इस बार जन्म नहीं लिया…..क्या पता अगले किसी जन्म में मिलना हो पाये ?
~ विशुद्ध चैतन्य

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