अपना-अपना मार्ग अपनी-अपनी नियति

हर व्यक्ति कहीं न कहीं कठिन परिस्थियों को सहता है अपने-अपने स्तर पर, फिर चाहे वह किसी रईस बाप की औलाद ही क्यों न हो। मैंने बहुत ही अमीर घर के बच्चे भी देखे, जो दिखने में दुनिया के सबसे खुशकिस्मत बच्चे होते हैं, हर शौक उनका पूरा हो जाता है लेकिन वे भी अकेले में जब होते हैं, तो किसी कोने में खूब रोते हैं।
कहते हैं समय बड़ा बलवान होता है और हर जख्म भर देता है। लेकिन कुछ लोगों की उम्र गुजर जाती है, समय उनका ज़ख्म नहीं भर पाता। उसके पास सबकुछ होते हुए भी कोई ऐसी कमी रह जाती है, जिसे कोई पूरा नहीं कर पाता और तब वह व्यक्ति या तो आत्महत्या कर लेता है या फिर संन्यास की और मुड़ता है।
और ऐसा वह तब करता है, जब भौतिक जगत, समाज व रिश्तों से विश्वास उठ चुका होता है। लेकिन ऐसा निर्णय कोई रातों-रात नहीं ले लेता, कई वर्षों की पीड़ा, वेदना, उपेक्षाएं व प्रताड़ना सही होती है उसने। फिर दुनिया को भी चाहिए कि उस व्यक्ति को रिश्ते और संबंधों के घेरे में नहीं लाना चाहिए ।
वह दुनिया से कट जाना चाहता है हमेशा के लिए, लेकिन कई बार नियति कुछ और चाहती है उससे। वह जितना दूर जाना चाहता है, उतना ही कोई न कोई कारण ऐसा बनता जाता है, कि वह चक्रव्यूह से निकल नहीं पाता। जिन आश्रमों में वह जाता है, वहाँ भी गुरु आदि को देखकर उसे आश्चर्य होता है, क्योंकि वे लोग तो पक्के बनिए होते हैं। दिन भर लेन-देन, लाभ-हानि की चर्चा होती रहती है।
सब कुछ आडम्बर दिखने लगता है और फिर यदि वह उस माहौल में स्वयं को सहज महसूस नहीं करता तो निकल पड़ता है अनजान यात्रा पर।
अब तक वह ईश्वर को समझ चुका होता है पहचान चुका होता है और अब उसे किसी धर्म ग्रन्थ या गुरु की कोई आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि अब वह जानता है कि ये शास्त्रों के रट्टामार गुरु ईश्वर से पुर्णतः अपरिचित हैं। अब वह समझ चुका होता है कि सन्यास वास्तव में वह काल है, जब आप स्वयं से परिचित होने के लिए स्वयं को पूरी तरह फार्मेट करने में लगाते हो।
संन्यास काल के बाद आप एक नए रूप में उभर जाते हो, और एक नया जीवन मिलता है। लेकिन अब समस्या यह हो जाती है कि समाज से वैसा लगाव नहीं रह जाता जैसा कि पहले था। पहले दोस्त बनाना, रिश्ते बनाना सहज होता था, लेकिन अब नहीं। अब आप अनावश्यक भीड़ नहीं रखना चाहते क्योंकि अब जानते हैं आप कि भीड़ और रिश्तों में गहरा अंतर होता है। अब आप समझते हैं की दुनिया को आप बदल नहीं सकते केवल स्वयं को बदल सकते हैं।
और स्वयं को बदलने के बाद दुनिया को यह अधिकार नहीं देना चाहते कि अब दुनिया उसे सिखाये कि उसे कैसा होना चाहिए। अब वह जो है, जैसा है, वैसा ही है और उसका अपना सफ़र है जैसा भी है।
क्योंकि वह भी नहीं जानता कि उसका सफ़र कैसा होगा और फिर यह राह भी वह नहीं है शायद, जिसपर पहले कोई चला हो। इसलिए जो यह कहते हैं कि अध्यात्मिक व्यक्ति को ऐसा होना चाहिए या वैसा होना चाहिए, वे स्वयं को देखें कि उन्हें कैसा होना चाहिए।
उपरोक्त उद्गार मेरे स्वयं के अनुभव व भाव हैं, हो सकता है कि ब्रह्मज्ञानी, परमज्ञानी, तत्वज्ञानी और जगद्गुरु आदि मुझसे सहमत न हों। क्योंकि उन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया हुआ है, इसलिए वे जानते हैं कि सत्य क्या है। लेकिन मैं जानता हूँ कि दूसरों का जाना हुआ सत्य है वह और वे जो कहते हैं वे दूसरों के शब्द कहते हैं।
~विशुद्ध चैतन्य
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