मंदिरों-तीर्थों में अब ईश्वर नहीं, वैश्य, शूद्र और ठग विराजमान रहते हैं

मान्यता थी प्राचीन काल में कि ईश्वर सर्वशक्तिमान होता है। जो भी ईश्वर के मंदिर या तीर्थों में आता है, उसकी मनोकामनाएँ पूरी कर देता है।
अंधन को आँख देत, कोढ़िन को काया ।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया ।।
अर्थात जो अंधों को आँखें देता है, कोढ़ियों को स्वस्थ करता है, बांझ को संतान सुख देता है, निर्धन को धनवान बनाता है।
लेकिन प्रायोजित महामारी का आतंक फैलाने वाले आतंकियों ने प्रमाणित कर दिया कि वह ईश्वर अंधों को आंखे क्या देगा, स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर बैठा हुआ है। रोगियों के रोग कैसे दूर करेगा, जो स्वयं प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर मुंह पर मास्क लगा मंदिर, तीर्थ बंद कर दुबक गया था ?
जरा स्वयं सोचिए कि जो ईश्वर प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर मंदिर/तीर्थ बंद कर फरार हो गया हो, वह वास्तविक बीमारी या महामारी से आपकी सुरक्षा भला कैसे कर सकता है ?
विचार करिए कि यदि मंदिर/तीर्थों में जा कर चढ़ावा चढ़ाने से गरीब धनवान हो सकता है, तो फिर वहाँ दुकान जमाये बैठे वैश्य और वेतनभोगी शूद्र प्रसाद और दर्शनों के शुल्क क्यों वसूल रहे होते ? क्या वे स्वयं ईश्वर से धन नहीं माँग सकते थे मंदिरों/तीर्थों के रख रखाव के लिए ?
फिर यह भी विचार करिए कि जब करोड़ों रुपए का चढ़ावा आता है, तो फिर वह जाता कहाँ है ? क्या उन चढ़ावों से मंदिर/तीर्थों का रखरखाव नहीं हो सकता था ? क्या उन चढ़ावों से भक्तों के लिए निःशुल्क प्रसाद और भंडारा नहीं चल सकता था ?
और यदि फिर भी कोई मंदिर/तीर्थों के चक्कर लगा रहा है, तो निश्चित ही वह नास्तिक है और केवल पर्यटन, पिकनिक के उद्देश्य से ही मंदिर/तीर्थ जा रहा है। नास्तिक ही हैं, जो ईश्वर पर रत्तीभर भी विश्वास नहीं करते, लेकिन बिके हुए गुलाम साइंटिस्ट्स, डॉक्टर, अस्पताल, राजनैतिक पार्टियों और सरकारों पर अंधभक्तों की तरह विश्वास करते हैं।
मैं फिर कह रहा हूँ कि मंदिरों/तीर्थों में अब ईश्वर नहीं, वैश्य, शूद्र और ठग विराजमान रहते हैं। और सरकारें यदि इन्हें व्यावसायिक पर्यटन स्थलों में रूपांतरित कर रही हैं, तो गलत नहीं कर रहीं हैं। दुनिया के सभी धार्मिक व तीर्थ स्थल व्यावसायिक स्थल ही हैं, वहाँ ना तो धर्म और ईश्वर है, न ही धार्मिक और आस्तिक लोग।
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