माफियाओं के बिछाए मायाजाल से मुक्त हो चुका हूँ मैं

एक संन्यासी यदि सत्ता के मोह में पड़ जाये तो फिर वह संन्यासी नहीं रह जाता, वह मंडलेश्वर, महा-मंडलेश्वर या शंकराचार्य बन जाता है। क्योंकि ये सब पद हैं उनके लिए जिन्हें सत्ता सुख चाहिए, राजसी वैभव और मान-सम्मान चाहिए। और दुनिया के जितने भी पद, प्रतिष्ठा और मान सम्मान हैं, उनकी एक ही शर्त है कि माफियाओं की गुलामी स्वीकार कर लो और वही सब करो, जो सदियों से थोपा जाता रहा है धर्म और आध्यात्म के नाम पर।
उनकी विवशता है परम्पराओं को ढोना और यदि नहीं ढोएँगे, सबकुछ छीन लिया जाएगा।
मैं भी दौड़ा करता था कभी पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, धन ऐश्वर्य के पीछे। फिर एक दिन समझ में आया कि इन्हें पाने की कीमत यही है गुलामी करो, कठपुतली बनकर समाज का मनोरंजन करो और भेड़चाल में चलो। ना तो कभी स्वयं को जानने समझने का प्रयास करना और ना ही कभी भेड़चाल और माफियाओं की गुलामी को गलत कहना।
फिर एक दिन वह सब त्याग दिया, जिन्हें खोने का डर था। बिलकुल अकेला हो गया, फुटपाथों पर भटकने लगा। और जब कोई अपना नहीं रहा, कोई पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान नहीं रहा, तो कई बार यह भी विचार आया कि आत्महत्या ही कर लेना चाहिए जब मेरी किसी को आवश्यकता ही नहीं, जब मेरा कोई अपना ही नहीं।
ईश्वर को वह भी स्वीकार नहीं था और मैं ज़िंदा बच गया। मेरा नया जन्म हो गया, क्योंकि अब मायाजाल से मुक्त हो चुका था। अब मुझे ऐसा कुछ भी नहीं चाहिए था, जो मेरी स्वतन्त्रता, मेरी मौलिकता के विरुद्ध हो। जो मुझे विवश करे माफियाओं, लुटेरों और ढोंगियों की गुलामी करने के लिए।
कल और आज कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि जिस प्रकार आप लिखते हो, जिस प्रकार आप अहंकार से भरे रहते हो, किसी भी हिन्दू आश्रम में आपको जगह नहीं मिल सकती, कोई भी आपको बर्दाश्त नहीं करेगा। जहां भी जाओगे, आश्रमवाले आपको बाहर का रास्ता दिखा देंगे। और यदि हिन्दुत्व के ठेकेदारों के हाथ पड़े, तो शायद दुनिया से विदा कर देंगे।

मेरा उत्तर था कि डरना कभी सीखा नहीं और अकेले जीने की आदत पड़ चुकी है। क्योंकि मेरा जोड़ीदार तो दुनिया में आया ही नहीं। जब इस जीवन में अकेले ही जीना है, तो फिर डर किसका ?
फिर किसी स्थान विशेष का मोह तो उसे होता है, जिसे कोई सत्ता चाहिए, कोई कुर्सी चाहिए, धन-संपदा चाहिए, मान-सम्मान चाहिए। लेकिन मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं चाहिए जो मुझे पराधीन बनाता हो।
रही ठिकाने की बात, तो ईश्वर स्वयं मेरी व्यवस्था करता है, इसीलिए स्वयं पर अहंकार होना स्वाभाविक है। और हो भी क्यों न स्वयं पर अहंकार, जो स्वयं ईश्वर का अंश है और जिसका ईश्वर किसी मंदिर, तीर्थ में नहीं, हमेशा साथ रहता हो हर क्षण, उसे स्वयं पर अहंकार क्यों नहीं होना चाहिए ?
जब सारी मानव जाति के ईश्वर मंदिरों, तीरथों, दरगाहों, गिरिजाघरों में रहते हैं, बिना रिश्वत, चढ़ावा लिए कोई काम नहीं करते, फिर फर्जी महामारी से अपने भक्तों की रक्षा करने की बजाए, स्वयं अपने दफ्तर पर ताला लटकाकर फरार हो जाते हों, ऐसे में, मेरा ईश्वर तो कोई रिश्वत, चढ़ावा नहीं माँगता, न ही प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर फरार होता है।
जो दिन रात अपने ईश्वर का नाम जाप कर रहे थे, भभूत और ताबीज देकर बड़ी से बड़ी बीमारियाँ ठीक कर रहे थे, वे भी प्रायोजित सुरक्षा कवच लेने पहुँच गए थे। क्यों ?
क्योंकि उन्हे अपने ईश्वर से अधिक फार्मा माफियाओं के गुलाम डबल्यूएचओ और सरकारों पर विश्वास था।
लेकिन मेरे ईश्वर ने कहा मुझसे कि चिंता मत करो, मैं तुम्हारे साथ हूँ और कोई भी प्रायोजित महामारी तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगी।
तो अब आप ही बताइये, मुझे अपने ईश्वर और स्वयं पर गर्व या घमंड क्यों न हो ?
और गुलामों के आश्रमों में भले स्थान न मिले, लेकिन ईश्वर की बनाई जिस सृष्टि में अनगिनत प्राणियों के लिए निःशुल्क, बिना कोई शर्त स्थान है, क्या उस सृष्टि में मेरे लिए कोई स्थान न होगा ?
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