गेस्ट हाउस, होटल और आश्रमों में कोई अंतर नहीं !

प्राचीन काल में जब लोग पढ़े-लिखे नहीं होते थे, अँग्रेजी नहीं जानते थे तब गांवों में अतिथि गृह हुआ करते थे। जो लोग समृद्ध थे, उनके अपने घरों में भी अतिथिगृह हुआ करते थे और आश्रमों में भी अतिथि गृह हुआ करते थे।
समय के साथ लोग पढ़े-लिखे और आधुनिक होते गए, अँग्रेजी बोलने लगे और घर छोटे होते चले गए। अब संयुक्त परिवारों के लिए घर नहीं बनते, क्योंकि संयुक्त परिवार अब लुप्त हो चुके हैं। अब एकल परिवार का चलन है, इसलिए ना तो गांवों में अतिथि गृह पाये जाते हैं और न ही घरों में। और अब अतिथियों पर विश्वास करना भी घातक हो चुका है, क्योंकि समाज आधुनिक हो गया है, अँग्रेजी बोलने लगा है।
और चूंकि लोग आधुनिक हो चुके हैं, अँग्रेजी बोलने लगे हैं, इसीलिए अतिथिगृहों का आस्तित्व लुप्त हो गया और उनके स्थान पर आ गए होटल, गेस्ट हाउस और आश्रम।
गेस्ट हाउस, होटल और #ashram में क्या अंतर होता है ?
#guesthouse #hotel और #ashram में केवल रेट और स्टैंडर्ड का ही अंतर है, बाकी और कोई अंतर नहीं है।
आज आश्रमों का उद्देश्य समाज को चैतन्य और जागृत बनाना नहीं, बल्कि मूल समस्याओं, माफियाओं, लुटेरों से ध्यान हटाना है। आज आश्रम का कार्य परमचेतना से जोड़ना नहीं, बल्कि परमचेतना से विमुख करके अपने-अपने गुरुओं, परम्पराओं, मान्यताओं, कर्मकांडों का अनुयायी बनाना है।

आज आश्रम में बैठे गुरु आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते, बल्कि स्कूल/कॉलेज के शिक्षकों की तरह रटा हुआ किताबी ज्ञान रटाते हैं। आज गुरु अपने शिष्यों के भीतर छुपी हुई क्षमताओं/प्रतिभाओं को निखारते नहीं, बल्कि उन्हें यह एहसास दिलाते हैं कि तुम्हारा आस्तित्व हमारे कारण है। और यदि तुम हमारे गुरुओं की स्तुति-वंदन नहीं करोगे तो फिर तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।
अधिकांश आश्रमों के पास ना तो अपनी कृषि भूमि है, न ही अपने बाग-बगीचे जिससे वे अपने लिए अनाज, फल, फूल, सब्जियों की व्यवस्था कर सकें। इसीलिए ऐसे आश्रमों को गेस्ट हाउस में रूपांतरित कर दिया जाता है, या फिर आश्रम की भूमि लीज़ पर देकर आश्रमवासी और प्रबन्धक अपनी आजीविका चलाते हैं।
जिनके पास कृषि योग्यभूमि है भी, तो भी अपनी भूमि लीज़ पर दे रखे हैं, क्योंकि आश्रम के प्रबन्धकों को कृषि आधारित आत्मनिर्भरता का कोई ज्ञान नहीं। कान्वेंट एजुकेशन सिस्टम से पढ़ाई की, तो स्वाभाविक है कि कृषि का कोई ज्ञान होगा नहीं। क्योंकि विलायती शिक्षापद्धति तो बनाई ही गयी है गुलाम पैदा करने के लिए। और ऐसे गुरु किसी को आत्मनिर्भरता का पाठ कैसे पढ़ा सकते हैं ?
और चूंकि गुरुओं के पास कोई आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, तो उनकी विवशता है किताबी ज्ञान और परम्पराओं को ढोने की। वे पूजा-पाठ सिखाएँगे, घंटे-घड़ियाल बजाना सिखाएँगे, व्रत-उपवास रखना सिखाएँगे, ईश्वर से ध्यान हटाकर पत्थर की प्रतिमाओं को पूजना सिखाएँगे, गीता और रामायण पाठ करना सिखाएँगे……लेकिन आत्मिक और आध्यात्मिक उत्थान प्राप्त करते हुए आत्मनिर्भर कैसे हुआ जाये, यह नहीं सिखाएँगे। उल्टे यह समझाएँगे कि अच्छे नस्ल के नौकर बनो, अच्छे नस्ल के गुलाम बनो और माफियाओ और लुटेरों की सेवा करके अपने परिवार की कीर्ति बढ़ाओ। क्योंकि आज आत्मनिर्भर होना, माफियाओं और लुटेरों का विरोधी होना शर्म की बात है, जबकि गुलामी करना गर्व की बात है।
क्या आश्रम को गेस्ट हाउस या होटल जैसा ही होना चाहिए ?
बिलकुल भी नहीं !
आश्रम के भीतर गेस्ट हाउस अर्थात अतिथि गृह हो सकता है, लेकिन आश्रम गेस्ट हाउस नहीं होता। आश्रम की अपनी पूरी एक व्यवस्था होती है, आश्रम छोटे से देश जैसा होता है। आश्रम के पास अपने स्कूल होते हैं, आश्रम के पास अपने खेत, बाग और बगीचे होते हैं। आश्रम अपने लिए कैमिकल फ्री, अर्थात #Organic खेती से उपजाए अनाज, फल, फूल और सब्जियों का उपयोग करता है, ना की बाजार से खरीदता है कैमिकल युक्त खाद्य सामग्री।
आश्रम वासी अपनी-अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के अनुसार आश्रम में श्रमदान करते हुए ध्यान, साधना और अध्ययन करते है। आश्रम की स्थापना का मूल आधार ही यह होता है कि माफियाओं और लुटेरों की सरकारों पर आश्रित नहीं रहेगा और स्वतंत्र व आत्मनिर्भर व्यवस्था पर आधारित जीवन शैली को अपनाएगा।
प्राचीनकाल में बहुत से आश्रम ऐसे थे, जो पूर्णतः स्वतन्त्र व आत्मनिर्भर थे। जो आत्मनिर्भर नहीं थे, उसके छात्र भिक्षाटन करके आश्रम के लिए भोजन की व्यवस्था करते थे। लेकिन राजा या किसी धनी व्यक्ति की कृपा, दया और अनुदानों पर आश्रित नहीं थे। यही कारण था कि राजघरानों के छात्रों को भी भिक्षाटन के लिए निकलना पड़ता था, उन्हें भी खेतों पर काम करना पड़ता था। आश्रम में सभी छात्रों के साथ समान व्यवहार किया जाता था।
लेकिन आज आश्रमों के नाम पर गेस्ट हाउस और होटल मिलते हैं, इसलिए जो जितना अधिक पैसा देगा, उसे उतनी अधिक सुविधाएं मिलेंगी। जो आश्रम नेताओं, राजनैतिक पार्टियों और धनाढ्यवर्गों के अनुदानों पर आश्रित हैं, वे भले अत्याधिक सुख-सुविधाओं से युक्त हैं, लेकिन आश्रम नहीं होता। ऐसे सभी आश्रम ट्रस्टियों, धनाढ्यों के लिए फार्महाउस होते हैं, जहाँ वे छूटियों में पिकनिक मनाने आते हैं। इन्हें पता ही नहीं कि आश्रम होता क्या है।
आधुनिक आश्रम समाज को कोई राह नहीं दिखा सकता, प्राकृतिक व स्वदेशी चिकित्सा का महत्व नहीं सिखा सकता, जैविक कृषि और कैमिकल फ्री भोजन का महत्व नहीं समझा सकता, एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के दुष्परिणाम नहीं समझा सकता, केवल भेड़, बत्तख और गुलाम बनाकर भेड़चाल में दौड़ा सकता है, ज़ोम्बी बना सकता है, क्योंकि स्वयं आश्रम के गुरुओं को ही आध्यात्म और धर्म का कोई ज्ञान नहीं।
और यही कारण है कि समाज का पतन होता चला गया और आज सामान्य जनमानस से लेकर साधु-समाज तक माफियाओं का गुलाम होकर रह गया। आज साधु-समाज का भी साहस नहीं माफियाओं के विरुद्ध आवाज उठा सकें, क्योंकि स्वयं गले तक पाप और अपराधों के दलदल में धँसे हुए हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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