स्वार्थ और लोभ में अंधा हो चुका है मानव समाज

धार्मिकता के ढोंग ने इंसान को इतना अधार्मिक बना दिया है कि अब वह डीजे या लाउड स्पीकर बजाते समय यह नहीं सोचता कि उसके कारण रात में सोने वालों की नींद खराब होती है।
यदि धार्मिकता ओर आस्तिकता का ढोंग करने की बजाय, वास्तव में धार्मिक होता मानव समाज, तो भक्ति के नाम पर शोर मचाकर, दंगा-आगजनी करके दूसरों की जिंदगी नर्क ना बना रहा होता।
चूंकि सारा समाज ही ढोंग पाखंड में लिप्त है, इसीलिए शोर मचाने और दंगा करने और करवाने वालों के विरुद्ध आवाज नहीं निकलती किसी की।
सबसे बड़ा आश्चर्य तो उन परिवारों पर होता है, जिनकी संताने धर्म और भक्ति के नाम पर दूसरों का जीवन नर्क बनाते हैं लेकिन उन्हें रत्तीभर भी शर्म नहीं आती।
क्या कभी चिंतन-मनन किया धार्मिकता और भक्ति के नशे में धुत्त समाज ने कि उनका समाज इतना बेशर्म परपीड़क क्यों और कैसे हो गया ?
क्यों लुप्त हो गयी मानवीय शिक्षा आधुनिक शिक्षा प्रणाली से ?
यदि ध्यान दिया जाए, तो पाएंगे कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली से व्यवहारिक मानवीय शिक्षा लुप्त हो चुकी है। आज शिक्षा का अर्थ हो गया है अधिक से अधिक नंबर बटोरना और उन नंबरों के आधार पर अच्छी कीमत पर स्वयं को नीलाम करना।
आज नैतिकता, मानवीयता, परोपकार, निःस्वार्थ सेवा आदि का कोई महत्व नहीं है। महत्व हैं उन लोगों का, जो अच्छी कीमत पर खरीदे और बेचे जा सकते हैं। माता पिता भी अपने बच्चों को मवेशियों की तरह पालते हैं, मोटा-ताजा करते हैं और फिर अच्छी कीमत पर माफियाओं और लुटेरों को बेच देते हैं या फिर किराये पर सौंप देते हैं नौकरी के नाम पर।
जिसकी संतान जितना महंगा बिकता है, वह उतना ही अधिक गर्व से छाती चौड़ा करके घूमता है। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि खरीदने वाला उसकी संतान से क्या कार्य करवा रहा है। यदि संतान आदिवासियों का घर उजाड़ रही है, तो भी गर्व करेगा परिवार। और यदि उसकी संतान अपने ही देश को लूटने और लुटवाने में सहयोग कर रही है, तब भी गर्व करेगा परिवार।
आखिर क्यों परिवार और समाज इतना गिर गया ?
क्योंकि शिक्षा प्रणाली ही ऐसी है, जो यह सिखाती है कि मानव का जन्म गुलामी करने के लिए हुआ है। और गुलामों को अधिकार नहीं सही और गलत विचार करने का, स्वविवेक का प्रयोग करने का। गुलामों को तो केवल आदेशों का पालन करना है और वह भी बिना कोई प्रश्न किए।
आज जो धार्मिक और नैतिक है, वह कष्ट में है, लेकिन जो अधार्मिक और अनैतिक हैं वे ऐश्वर्य भोग रहे हैं। एक धार्मिक और नैतिक व्यक्ति अपनी सीमित आय से भी परोपकार कर पाता है, लेकिन अधार्मिक और अनैतिक व्यक्ति करोड़ों रुपए गोदामों में दबाकर भी परोपकार के नाम पर व्यापार ही कर रहा होता है।
ऐसे परोपकारी लोगों को ही धार्मिक माना जा सा सकता है। लेकिन उन्हें नहीं जो धर्म के नाम पर डीजे बजाकर दूसरों की नींदें खराब करते हैं, दंगा-फसाद करते हैं, कत्ल-ए-आम करते हैं, आगजनी करते हैं।
आश्चर्य होगा यह जानकर आपको कि आधुनिक समाज में उन्हें ही धार्मिक माना जाता है, जो धार्मिक होने का ढोंग करते हैं लेकिन कोई भी ऐसा कार्य नहीं करते जिससे समाज और देश का कल्याण होता हो।
धार्मिकता और नैतिकता की ठेकेदारी लिए संगठनों, संस्थाओं को कभी भी नहीं देखेंगे देश को लूटने और लुटवाने वाले माफियाओं का विरोध करते हुए। लेकिन यही संगठन धर्म और नैतिकता की रक्षा के नाम पर किसी गरीब को पीट देंगे, जंगली कुत्तों के झुंड की तरह घेर कर हत्या कर देंगे किसी कमजोर, असहाय व्यक्ति की। और धार्मिकों का समाज केवल किकियाता मिमियाता रह जाएगा विरोध के नाम पर, लेकिन इनका बहिष्कार करने का साहस नहीं जुटा पाएगा। क्योंकि समाज इन्हीं की कृपा और दया पर आश्रित है। ये ना हों तो समाज का नामोनिशान मिट जाएगा।
और चूंकि समाज दंगाइयों, आतंकियों की कृपा और दया पर आश्रित है, इसलिए समाज और परिवार का पतन हो गया।
समाज भी अपना नेता हिस्ट्रीशीटर, तड़ीपारों को चुनता है। जिसके अपराधों की लिस्ट जितनी बड़ी, उतना महान नेता। अब जब ऐसी ही मानसिकता बन चुकी हो समाज की, तो समाज और परिवार का आध्यात्मिक और नैतिक उत्थान होगा कैसे ?
मानव समाज ने मानवीयता और परोपकार से अधिक महत्व दिया स्वार्थ और लोभ को
स्वार्थ और लोभ मानव समाज के ऊपर इतना हावी हो गया कि ईश्वर, गुरु और धर्म के नाम पर बड़े-बड़े बाजार खड़े हो गए। प्यासे को पानी पिलाना भी अब परोपकार नहीं, व्यापार बन चुका है। आप मंदिर जाओ, या तीर्थ जाओ हर कदम पर आपको वैश्य और शूद्र खड़े मिलेंगे। और ये वैश्य और शूद्र परोपकार या सेवा के लिए नहीं, व्यापार करने के लिए खड़े होते हैं।
आप अस्पताल चले जाओ, वहाँ भी आपको वैश्य और शूद्र खड़े नजर आएंगे। वे सेवा या परोपकार के लिए नहीं, व्यापार करने के लिए खड़े मिलेंगे।
आप शिक्षण संस्थान चले जाओ। वहाँ भी आपको वैश्य और शूद्र ही खड़े मिलेंगे। और वे वहाँ सेवा या परोपकार के लिए नहीं, व्यापार करने के लिए खड़े होते हैं।
आप न्यायालय चले जाओ, या सरकारी आधिकारियों, नेताओं मांत्रियों के कार्यालय। आपको वैश्य और शूद्र ही नजर आएंगे और वे सेवा या परोपकार करने के लिए नहीं, व्यापार करने के लिए वहाँ बैठे मिलेंगे।
फिर भी समाज ने कभी चिंतन-मनन करना आवश्यक नहीं समझा कि जिस शिक्षा पर इतना धन लुटा रहे हैं, वह शिक्षा इंसान को इतना अधार्मिक और अनैतिक क्यों बना रहा है ?
जिन धर्मों के नाम पर इतनी मारकाट हो रही है, इतना धन लुटाया जा रहा है धर्म और मंदिरों, तीरथों की रक्षा के नाम पर, चढ़ावा और कमीशन के नाम पर, उन धर्मों के अनुयायी इतने अनैतिक और अधार्मिक क्यों हो गए ?
चिंतन-मनन करने का समय है किसके पास ?
सभी तो दिमाग से पैदल और अंधे, बहरे, गूंगे हुए पड़े हैं व्यक्तिगत स्वार्थ और लोभ के कारण। और इन अंधे, बहरे, गूंगे धार्मिकों और सभ्य लोगों के समाज से धार्मिकता और नैतिकता की अपेक्षा कर भी कैसे सकते हैं ?
ये समाज तो किसी गरीब, किसी कमजोर पर ही नैतिकता और धार्मिकता थोप सकता है, लेकिन माफियाओं के सामने नतमस्त्क हो जाता है।
क्या सोचा है कभी कि क्यों नतमस्तक हो जाता है समाज माफियाओं के सामने ?
पूरी दुनिया में ईश्वर की खोज अब लगभग समाप्त हो चुकी है। क्योंकि अब सभी जान चुके हैं कि ईश्वर माफियाओं की कैद में है और माफियाओं की इच्छा के विरुद्ध ईश्वर हिल भी नहीं सकता।

माफिया ही तय करते हैं कि ईश्वर क्या खाएगा, क्या पिएगा, कौन सी चिकित्सा पद्धति से इलाज लेगा, कब अपने दफ्तर जाएगा, कब नहाएगा, कब भक्तों की समस्याएँ सुनेगा, कितने बजे से लेकर कितने बजे तक दर्शन देगा, कितना कमीशन या चढ़ावा लेगा मनोकामना पूरी करने के।
ईश्वर इतना विवश है कि अपनी बीमारी का इलाज भी स्वयं नहीं कर सकता, दूसरों को भला प्रायोजित महामारी से कैसे बचा सकता है ?
माफियाओं द्वारा फैलाये गए प्रायोजित महामारी के आतंक से बचाना तो दूर, स्वयं मंदिर, मस्जिद, दरगाह, तीरथों पर ताला लगाकर फरार हो जाता है।
जो नहीं जानते कि ईश्वर धर्म, जातियों, मंदिरों, मस्जिदों, तीर्थों के ठेकेदारों की कैद में हैं, वे बेचारे भटक रहे हैं बाहर ईश्वर की खोज में। और ना मिलने पर नास्तिक होने की घोषणा कर देते हैं और पूरे विश्वास से कहते हैं कि ईश्वर कहीं नहीं है, हमने सब जगह खोज लिया।
लेकिन जो जानकार हैं, चले जाते हैं मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों, तीरथों व अन्य धार्मिक स्थलों में भगवान की दयनीयता और विवशता के दर्शन करने।
अब आप स्वयं समझ सकते हैं कि जो माफिया इतना शक्तिशाली हो कि ईश्वर को भी अपने इशारों पर नचा सकते हों, उनके सामने समाज नतमस्तक न हो, तो क्या अपनी ज़िंदगी नर्क बना ले विरोध करके ?
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