दुनिया की दौड़ जिस तरफ है, उसमें न चैन है और न सुकून

पैसों की चकाचौंध के पीछे बहुत भागा, लेकिन एक दिन समझ में आया कि धन कितना भी बढ़ जाए, चाहे उसके नीचे दबकर ही मर जाओ, धन की कमी पूरी नहीं होगी । 1989-90 में जब मुझे साउंड स्टूडियो में असिस्टेंट रिकार्डिस्ट की पोस्ट मिली तब मेरी तनखा थी 650/- रुपये महीना । जब रिकार्डिस्ट बना तब तनखा थी1600/- रूपये महीना । और शायद मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत दिन रहे वे । अपनी तनखा से पहली साईकिल खरीदी…..
लेकिन उसके बाद तनखा हज़ारों में पहुँच गयी, सारे सुख-सुविधाएं बढ़ गयीं, मान-सम्मान बढ़ गया और खर्चे भी कई गुना बढ़ गए । पहले पाँच सौ की तनखा पर भी कुछ न कुछ बच जाता था क्योंकि 30 पैसे में मस्त चाय और एक रुपये में चार मट्ठी मिल जाता था । लेकिन अब सेलेरी अकाउंट में आते ही क्रेडिट कार्ड, मकान का किराया सब क्लियर करते करते अगले दिन दोस्तों से उधार माँगना पड़ जाता ।
एक दिन अन्तर्मन में प्रश्न उठा कि यह सारे शान-औ-शौकत उनको दिखाने के लिए क्यों कर रहा हूँ जिनका मेरे जीवन में कोई योगदान ही नहीं ?
फिर चिंतन मनन करने लगा कि मेरा अपना है कौन ?
माँ तो मुझे बचपन में छोड़ गयी थी और बाकी जो रिश्ते थे, वे मुझे कभी अपने लगे ही नहीं । जब भी मिले वे मतलब से मिले, मेरी सहायता भी की कभी तो मतलब से की । हर किये का एहसान जताया, सौ लोगों को बताया कि मुझपर कितना एहसान किया….तो ऐसे लोग मेरे अपने तो किसी कीमत पर नहीं हो सकते थे….अंत में ये दिखावों की दुनिया से मुक्त हुआ और अब मैं अपनी स्वाभाविक दुनिया में हूँ । मिला तो खा लिया, नहीं मिला तो उपवास मान लिया । अब किसी को प्रभावित करने में कोई रूचि नहीं । अब किसी से कुछ पाने की कोई अपेक्षा नहीं ।
इसलिये मुझे समाज में कैसे रहना है, कैसे उठना चलना बोलना है की नसीहत न दिया करें । आपका समाज आपको मुबारक, मुझे आपके समाज में महान बनने में कोई रूचि नहीं है । बस अपनी नजरों में गिरना नहीं चाहता क्योंकि जब मैं अगला जन्म लूँगा तो ये समाज मुझे नहीं पहचान पायेगा, लेकिन मेरी अपनी ही नजरों से मैं कैसे छुप पाउँगा ?
दुनिया की दौड़ जिस तरफ है, उसमें न चैन है और न सुकून । मैं अब उस दौड़ का हिस्सा नहीं हूँ । किसी ने बुलाया तो पहुँच गया लेकिन जब पता चला कि उसको मुझमे नहीं, मुझसे जुड़े लोगों में रूचि थी, यह आशा थी कि वे लोग धन बरसाएंगे….तो फिर दूरी बना ली । क्योंकि ऐसे रिश्ते व्यापारिक रिश्ते होते हैं और मैंने इस तरह के रिश्तों को बचपन से ही मान्यता नहीं दी ।
लोग कहते हैं जमीन पर आइये….अरे भाई आप हैं न जमीन पर ? करिए जो करना चाहते हैं, मुझे क्यों घसीट रहे हैं जमीन पर ?
मुझे एकांत पसंद है, ये मुखौटे लगाए समाज से जितना दूर हो सकूं उतना अच्छा है ।
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