अप्राकृतिक शहरी जीवन शैली के पीछे क्यों दौड़ रहे हैं युवा ?
जब भी प्रकृति से जुड़ने की बात आती है, तो इंसान को डर लगता है। लेकिन अप्राकृतिक होने में सहज होते हैं।
अप्राकृतिक अर्थात शहरी जीवन जीना बहुत सहज लगता है। जबकि प्राकृतिक जीवन यानि ऐसा जीवन जिसमें प्रदूषण मुक्त वातावरण हो, खुला प्रदूषण रहित आसमान हो जिसमें अनगिनत तारे झिलमिला रहे हों, भयावह लगता है शहरियों को।
क्या आप जानते हैं कि स्कूल/कॉलेज चाहे सरकारी हों, या निजी, किसी में भी यह नहीं सिखाया जाता कि जब प्रकृति की गोद में जाओ, तो कैसा व्यवहार होना चाहिए ?
घटना 1995 की है। सात ताल जो कि नैनीताल और भीमताल के बीच में पड़ता है, में एक हफ्ते की छुट्टी मनाने के लिए ठहरा हुआ था। वहाँ जो गेस्ट हाउस था, उसमें पाँच ही कमरे थे गेस्ट्स के लिए एक और एक नया बन रहा था। मैं जब ठहरा था तब ऑफ सीजन था, इसलिए सारे कमरे खाली थे। मैं ही एकलौता गेस्ट था वहाँ। खैर…..
रात तो अच्छी कट गयी सन्नाटे में, क्योंकि गेस्ट हाउस के कर्मचारी भी सूरज ढलने से पहले मुझे भोजन देकर अपने घर जा चुके थे। अब पूरे गेस्ट हाउस में अकेला मैं ही था और कोई नहीं। सुबह गेस्ट हाउस के स्टाफ आए तो चाय और नाश्ता मिला। लेकिन दोपहर होने तक दिल्ली से बहुत से परिवार अपनी अपनी कारों में वहाँ पहुँच गए।
आते ही उनहोंने अपनी अपनी कारों के डीजे ऑन कर दिये। कोई बीयर लेकर बैठ गया, तो कोई व्हिस्की। शोर इतना था कि शांत वातावरण में छुट्टी बिताने का सपना चूर-चूर हो गया। लोग झील में खाली बोतल फेंक रहे थे। इधर उधर चिप्स और बिस्कुट के पैकेट फेंक रहे थे।
मैंने गेस्ट हाउस के कर्मचारी से पूछा कि ये लोग रोज़ ऐसे ही शोर मचाने और कूड़ा कर्कट फेंकने आते हैं ?
वह बोला, “नहीं ! आज संडे हैं न इसलिए ये लोग आए हैं। हर संडे आते हैं पिकनिक मनाने। लेकिन बाकी दिन यहाँ शांति रहती है।”
मैंने चैन की सांस ली कि चलो एक ही दिन की बात है। लेकिन तब मेरे मस्तिष्क में प्रश्न उठा था कि स्कूल कॉलेज में महंगी फीस लेकर जो पढ़ाई कारवाई जाती है, उसमें यह क्यों नहीं सिखाया जाता कि प्राकृतिक सौन्दर्य देखने जाओ तो सौंदर्य का आनंद लो। कूड़ा कर्कट फैलाने के लिए शहर हैं, वहाँ दिल खोलकर कूड़ा फेंको, क्योंकि वहाँ सफाई कर्मी होते हैं। लेकिन जंगलों में कौन करने जाएगा सफाई ?
शहरी कूड़ा शहरों तक ही सीमित रखें, शोर की लत है, तो शहरों में ही शोर करें, प्रकृति की गोद में जाकर शोर करके अपने दिमाग के दिवालियापन का परिचय न दिया करें। भले आप शहर में बड़े सम्मानित व्यक्ति माने जाते हों, लेकिन कूड़ा कर्कट बिखेरने और शोर करने की लत पशु-पक्षियों से भी गया गुजरा सिद्ध कर देते हैं।
मेरा विश्वास ना हो, तो ऐसे वनों में जाकर देखिये जहां शहरियों के पैर न पड़े हों, वहाँ बहुत ही स्वच्छता नजर आएगी। क्योंकि जानवर पढे-लिखे शहरियों की तरह दिमाग से पैदल नहीं होते, इसलिए जंगलों को शहर की तरह नर्क नहीं बनाते।
क्या कभी चिंतन-मनन करने का प्रयास किया है समाज ने कि महँगी-महँगी शिक्षा पद्धति में ऐसा क्या दोष है कि मानव समाज प्राकृतिक जीवन शैली को त्याग कर अप्राकृतिक जीवन शैली के पीछे भाग रहा है ?
ऐसी क्या चूक हो गयी शिक्षा पद्धति में, जो प्राकृतिक चिकित्सा को आलटेरनेट चिकित्सा और अप्राकृतिक चिकित्सा को मुख्य चिकित्सा पद्धति मानने के लिए विवश कर दिया मानव समाज को ?
कभी समय मिले मवेशियों की दौड़ से और ज़िंदा बचे, तब चिंतन-मनन अवश्य करिएगा।