आध्यात्मिक व्यक्तियों के लिए भोजन करने के नियम

भोजन करते समय मुझे एकांत चाहिए होता है। और यदि सामूहिक भोज में भी बैठना पड़े, तो ऐसा स्थान होना चाहिए, जो रास्ते में ना पड़ता हो, जहां अनावश्यक आवागमन ना हो रहा हो, लोग चीख चिल्ला ना रहे हों।
भोजन के समय शांति रहनी चाहिए और ऐसे लोगों को वहां नहीं होना चाहिए, जो ना तो भोजन कर रहे हैं और ना ही भोजन परोस रहे हैं। क्योंकि ऐसे लोग शोर मचाकर शांति भंग कर रहे होते हैं।
क्या आपने कभी बौद्धों को भोजन करते देखा है ?

जब वे भोजन कर रहे होते हैं, एकदम मौन रहते हैं और सारा ध्यान भोजन पर केंद्रित रहता है। क्योंकि उनके लिए भोजन करना भी ध्यान करना ही है।
मेरी माँ हमेशा कहा करती थीं कि भोजन का सम्मान करो और भोजन करते समय केवल आवश्यकता पड़ने पर ही बोलो। उनका कहना था कि जब हम भोजन कर रहे होते हैं, तब अन्नपूर्णा देवी साक्षात हमारे सामने बैठी होती है। इसलिए भोजन करते समय ध्यानस्थ रहना चाहिए।

भोजन करने का यह नियम क्यों है और किसने बनाया ?
भोजन करने का नियम लगभग सभी मत-मान्यताओं, संप्रदायों में देखने मिलेगा इसीलिए हम यह नहीं कह सकते कि कोई एक विशेष व्यक्ति ने यह नियम बनाया है।
सभी में आपको एक समानता अवश्य मिलेगी और वह है भोजन करते समय वातावरण शांत होना चाहिए, भोजन से पहले ईश्वर को धन्यवाद और सभी के लिए मंगल कामना करनी चाहिए। जैसे कि यह प्रार्थना:
सर्वेषां स्वस्ति भवतु । सर्वेषां शान्तिर्भवतु ।
सर्वेषां पूर्नं भवतु । सर्वेषां मड्गलं भवतु ॥
सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शांति शांति शांति
भावार्थ: सब को खुशी मिले, सब को शांति मिले , सभी में पूर्णता हो, सब सुखी हों ,सब स्वस्थ हों सब शुभ को पहचान सकें, कोई प्राणी दुःखी ना हो । ॐ शांति शांति शांति.
हालांकि सभी मत, मान्यताओं और संप्रदायों की अपनी-अपनी प्रार्थनाएँ हैं। कोई अन्न को धन्यवाद करता है, कोई ईश्वर को धन्यवाद करता है। लेकिन मेरा मानना है कि भोजन से पहले धन्यवाद के साथ सभी के लिए मंगलकामना अवश्य करनी चाहिए। क्योंकि जब हम दूसरों के लिए मंगलकामना करते हैं, तब हम सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करते हैं जो हमारे भोजन को सुपाच्य और मन को आनंदित करने वाला बनाता है।
आप कह सकते हैं कि पशु-पक्षियों को तो ऐसे किसी नियम का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, फिर भी वे खुश रहते हैं।
यह गलत धारणा है कि वातावरण का पशु-पक्षियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनपर मानवों से अधिक प्रभाव पड़ता है, इसीलिए कई पशु-पक्षी आज लुप्त हो चुके हैं और कई लुप्त होने के कगार पर पहुँच चुके हैं।
भोजन करते समय वातावरण शांत क्यों होना चाहिए ?
बहुत से घरों में देखा है मैंने कि भोजन करते समय बहुत शोर हो रहा होता है। कोई किसी से झगड़ रहा होता है, तो कोई किसी को डाँट-डपट रहा होता है। स्त्रियाँ दुनिया भर की शिकायतें लेकर बैठी होती हैं, तो बच्चे भाग-दौड़ कर रहे होते हैं। और यह सब अधिकांश घरों में बिलकुल सामान्य दिनचर्या है और इतना सामान्य कि किसी को एहसास भी नहीं होता कि कुछ गलत हो रहा है।
जबकि इस प्रकार के वातावरण में भोजन करने का सबसे अधिक दुष्प्रभाव मस्तिष्क और शरीर को सहना पड़ता है। ऐसे वातावरण में भोजन करने वाले प्रायः शारीरिक व मानसिक रूप से बीमार पाये जाते हैं। केवल शारीरिक और मानसिक ही नहीं, आर्थिक रूप से भी बीमार होते हैं। ऐसे परिवार प्रायः आर्थिक समस्याओं का सामना करते रहते हैं।
कलहपूर्ण वातावरण में भोजन करने वाले परिवार में कोई न कोई बीमार पड़ा रहेगा। एक बीमारी से छुटकारा मिले, तो कोई दूसरी बीमारी लग जाएगी। कई परिवार तो आजीवन डॉक्टर और अस्पताल से मुक्त नहीं हो पाते और अपनी कमाई का अधिकांश भाग डॉक्टर और अस्पताल को भेंट कर देते हैं।
हो सकता है आप मेरी बातों पर विश्वास न करें, लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। मेरे अपना परिवार आर्थिक संकटों से कभी उबर नहीं पाया था, क्योंकि भोजन करते समय पिताजी को किसी न किसी बात पर क्रोध आ जाया करता था और फिर पूरा वातावरण तनावपूर्ण हो जाता था। ऐसा बहुत ही कम हुआ कि सभी ने शांति से भोजन किया हो बिना कोई कलह के।
आप अपने आसपड़ोस में देखिये, जिनके घरों में भोजन करते समय कलह होता है, वह परिवार कोर्ट-कचहरी या अन्य कोई विवादों में घिरा हुआ होता है, या फिर मानसिक रूप से तनावग्रस्त रहता है।
आध्यात्मिक व्यक्तियों को भोजन करते समय एकांत या शांत वातावरण क्यों चाहिए ?
सांसारिक और आध्यात्मिक व्यक्ति अलग-अलग नहीं होते, केवल मानसिकता का अंतर होता है। सांसारिक व्यक्ति संसार में उलझा होता है, और आध्यात्मिक व्यक्ति स्वयं को खोज रहा होता है। सांसरिक व्यक्ति को अधिक अंतर नहीं पड़ता तनावपूर्ण, कलहपूर्ण वातावरण में, भीड़ में भोजन करने पर। क्योंकि वह तो रहता ही हमेशा तनाव में है, दुनिया भर की उलझनों से घिरा हुआ होता है।
जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति तो संसार के शोर और भीड़ से अलग हटकर स्वयं को खोजने निकला है। ऐसे में यदि सांसरिक शोर और नकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह में रहेगा, तो मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और उसकी आध्यात्मिक यात्रा बाधित होगी।
मेरा अपना अनुभव है कि जब भी मैं कलहपूर्ण वातावरण में भोजन के लिए बैठता हूँ, मेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है, क्रोध आने लगता है और भोजन करने के बाद चिड़चिड़ा हो जाता हूँ। फिर जरा-जरा सी बात पर क्रोध आने लगता है, पेट भारी हो जाता है, कब्ज की समस्या हो जाती है। इसीलिए मैं ऐसे वातावरण में भोजन करने से अच्छा व्रत करना पसंद करता हूँ। कई बार तो चार-पाँच दिनों का व्रत हो जाता है क्योंकि वातावरण मेरे भोजन करने के अनुकूल नहीं होता।
भोजन बनाते और परोसते समय भी कुछ नियमों का पालन करना चाहिए
भोजन हमारे शरीर को ऊर्जा देते हैं और जैसी ऊर्जा भोजन में होगी, वही हमें भी मिलेगी। यदि भोजन बनाने वाला क्रोध में है, निराशा में है, शोक में है, तनाव में है, तो वह ऊर्जा भोजन में जाएगी। वही ऊर्जा भोजन के माध्यम से परिवार के सदस्यों में जाएगी। और परिणाम यह होगा कि सारा परिवार ही तनावग्रस्त रहेगा।
इसीलिए आसाम में रसोई में जाने से पूर्व स्त्रियॉं को स्नान करना पड़ता था। अब चूंकि समाज आधुनिक हो गया है, तो ऐसा न होता हो, लेकिन पहले ऐसा ही होता था।
ऐसी प्रथा के पीछे का विज्ञान यह था कि स्नान करने से शरीर और मस्तिष्क का तनाव कम हो जाता है। साथ ही व्यक्ति की और भी स्वच्छ हो जाती है। चूंकि मन शांत है तो भोजन भी रुचिकर और स्वादिष्ट बनेगा। ऐसा भोजन करने वालों के मन और शरीर पर भी भोजन का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
मैंने जो कुछ लिखा है यहाँ, उसे पढ़कर कोई धारणा मत बनाइये। पहले स्वयं प्रयोग करिए, अनुभव करिए और फिर चिंतन-मनन करिए कि मैंने सही लिखा है या गलत लिखा है।
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