क्यों समाज आज तक पाखण्डवाद के विरुद्ध नहीं हो पाया ?

सदियों से लोग धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ते आ रहे हैं। सदियों से लोग एडुकेशन के नाम पर बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ बटोरते आ रहे हैं। सदियों से लोग गुरुओं, सद्गुरुओं के नैतिक, सात्विक, धार्मिक उपदेश और प्रवचन सुनते आ रहे हैं। लेकिन क्या रूपान्तरण हुआ समाज, सरकार, परिवार और व्यक्तियों में ?
यदि ध्यान दें तो समाज और सरकारें जैसी तब थीं, जब राजतन्त्र या कबीलाई तन्त्र था, वैसी ही आज भी है। तब भी अधर्म और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाले कुछ सरफिरे ही हुआ करते थे और आज भी कुछ सरफिरे ही होते हैं। तब भी पढ़ा-लिखा, सभ्य और धार्मिक समाज, साधु-समाज, ब्राह्मण समाज, वैश्य-समाज, शिक्षित समाज अधर्म और अन्याय के विरुद्ध मौन धारण किए रहता था या फिर उनका सहयोगी बनकर ऐश्वर्य भोग रहा था, आज भी वही सब हो रहा है।
अर्थात तब भी पाखण्ड से मुक्त नहीं हो पाये थे और आज भी नहीं। तब भी ढोंग करते थे देश सेवा, समाज सेवा, मानव सेवा का, लेकिन सेवा करते थे माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों का, आज भी वही सब कर रहे हैं।
हाँ पहले की जनता गुलाम पैदा नहीं करती थी, जबर्दस्ती मार-पीटकर, डरा-धमका कर गुलाम बनाया जाता था बेड़ियों में जकड़कर। लेकिन आज तो बच्चे पैदा ही इसलिए करते हैं कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर उच्चकोटी का गुलाम बनाया जा सके। क्योंकि आज गुलामों का बड़ा मान सम्मान होता है, अपने ही देश की जनता पर लाठीयाँ और गोलियां बरसाने वालों देशभक्त और जाँबाज माना जाता है। अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों को समाज सेवक माना जाता है।
तो प्रश्न यह कि क्या लाभ हुआ ऐसी शिक्षा, ऐसे धार्मिक ग्रन्थों, और ऐसे सात्विक, धार्मिक गुरुओं और संप्रदायों का जो आज भी माफियाओं और देश के लुटेरों का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाये। क्यों वकील, जज और उच्च शिक्षा प्राप्त डिग्रीधारी इस योग्य नहीं हो पाये कि गलत को गलत कह सकें, माफियाओं और देश के लुटेरों के विरुद्ध मुँह खोल सकें ?
क्यों कुछ मुट्ठीभर लोग ही विरोध कर रहे हैं, बाकी बैठकर पॉपकॉर्न और मूँगफली खाते हुए दर्शक बने बैठे हैं ?
भ्रष्टाचार युक्त लोकतन्त्र नामक माफिया तन्त्र

लोकतन्त्र स्थापित करने का ढोंग किया गया। जनता को बरगलाया गया कि लोकतन्त्र में सरकार जनता की होगी, जनता ही मालिक होगी और शासन/प्रशासन जनता कि सेवक होंगे।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हुआ ?
क्या जनता मालिक बन पायी ?
बिलकुल भी नहीं। जनता केवल वोट देकर जयकारा लगाने वाली मवेशी मात्र बनकर रह गयी। नेता भी जनता अपना नहीं चुन सकती, बल्कि माफियाओं द्वारा बनाए गए गिरोह अर्थात राजनैतिक पार्टियों के नेताओं में से किसी को चुनना होता है। नेता या पार्टी चाहे कोई भी जीते, राज माफियाओं का ही होता है। जनता का राज कब स्थापित हुआ ?
माफिया या किसी बड़े अपराधी के ऊपर हत्या, बलात्कार या पोक्सो की धारा में भी केस दर्ज हो, तब भी कोई कार्यवाही नहीं हो पाती। लेकिन आम जनता को पर लठियाँ बरसा दी जाती हैं, न्याय मांगने पर। माफियाओं, पूँजीपतियों और उनकी गुलाम सत्ता-पक्ष के विरुद्ध न्यायिक तन्त्र कार्यवाही करने से पहले सौ बार सोचती है, क्योंकि उन्हें अपनी नौकरी और अपने प्राण प्यारी है। जबकि आम जनता के घरों पर बुलडोज़र चलाने में भी संकोच नहीं करती।
तो फिर लोकतन्त्र है कहाँ ?
माफिया-तन्त्र को लोकतन्त्र कहना और माफियाओं के पालतू गुलामों को जनता का सेवक (Public Servant) कहना क्या ढोंग-पाखण्ड नहीं है ?
पाखण्डवाद क्या है ?
क्यों समाज आज तक पाखण्डवाद के विरुद्ध नहीं हो पाया ?
यूपीएससी क्रेक करने वाले प्रकाण्ड विद्वान भी पाखण्डवाद से क्यों मुक्त नहीं हो पाये ?
उसका सबसे प्रमुख कारण है कि पाखण्ड का अर्थ ही नहीं पता अच्छे अच्छे पढ़े-लिखों को।
सामान्य धारणा है कि पाखंडी वे लोग होते हैं, जो दूसरों को धोखा देने के लिए भक्ति या उपासना का ढोंग करता है। इसीलिए अंबेडकरवादी, पेरियारवादी और नास्तिक लोग हिन्दू साधु-संन्यासियों को ढोंगी-पाखंडी कहकर स्वयं को क्लीनचिट दे देते हैं यह मानकर कि हम तो पढ़े-लिखे हैं, अँग्रेजी बोलते हैं, नौकरी करते हैं इसलिए हम ढोंगी-पाखंडी नहीं।
लेकिन वास्तविकता यह है कि इस संसार में हर वह व्यक्ति ढोंगी-पाखंडी है, जो वेतनभोगी है, जो प्रशासनिक तंत्र का अंग है, चाहे वह सरकारी हो या गैर-सरकारी।
उदाहरण के लिए यूपीएससी क्रेक करके अधिकारी बने लोग ढोंग करते हैं कि वे देश व जनता की सेवा करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि वे बड़े माफियाओं और अपराधियों को बचाने के लिए छोटे और विरोधी माफियाओं और अपराधियों का शिकार करते हैं। तो जब वे छोटे-मोटे या विपक्षी पार्टियों के समर्थक माफियाओं का शिकार करते हैं, तो बड़े शान से फोटो खिंचवाते हैं और मीडिया उनकी प्रशंसा करती है कि अपराध को मिटाने में उनहोंने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लेकिन आप पाएंगे कि अपराधी घटते नहीं, बल्कि सत्ता-पक्ष में शामिल हो जाते हैं। और यही बहादुर यूपीएससी टॉपर्स उन्हें सेल्यूट करते नजर आते हैं।
फिर माफियाओं का एक मजबूत गिरोह तैयार होता है, जिसे हम सरकार #government के नाम से जानते हैं। फिर माफियाओं का गिरोह अपने अपने स्वार्थ और लाभ को ध्यान में रखकर कानून बनाते हैं। उन कानून से माफियाओं को तो कोई हानि होती नहीं, लेकिन आम जनता और विपक्षी पार्टियों के समर्थकों को प्रताड़ित करने और लूटने खसोटने के नए उपाय मिल जाते हैं सत्ता-पक्ष के माफियाओं को।
जैसे कि पोक्सो एक्ट में ब्रजभूषण को गिरफ्तार नहीं कर सकते यूपीएससी टॉपर्स, लेकिन विपक्षी पार्टी या सामान्य नागरिक को तुरंत गिरफ्तार कर लेंगे। लेकिन जनता के मन में यह भ्रम बैठाये रखेंगे कि पुलिस उनकी सुरक्षा के लिए है।
इसे ही पाखंडवाद कहते हैं।
पाखंडवाद से ग्रस्त है सभी समाज, सभी सरकारें, सभी प्रशासनिक तंत्र, सभी राजनैतिक पार्टियां, सभी धार्मिक/आध्यात्मिक संस्था, संगठन और सम्प्रदाय। फिर वे पढे-लिखे हों, या अनपढ़, डिग्रीधारी हों या अंगूठाछाप, नास्तिक हों, या आस्तिक, मोदीवादी हो या अंबेडकरवादी, कॉंग्रेसी हो या भाजपाई, सपाई हो या बसपाई, डॉक्टर हो या इंजीनियर कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसलिए जब पाखंडवाद के विरुद्ध अभियान चलाने का कीड़ा कुलबुलाए, तो सबसे पहले अपने परिवार, समाज, सम्प्रदाय से शुरू करें। वर्तमान समाज में जिसे ढोंग-पाखंड नहीं आता, वह किसी भी अच्छे सेलेरी वाली नौकरी के योग्य नहीं माना जाता। और राजनीति, मार्केटिंग, फार्मा इंडस्ट्री, धार्मिक/ आध्यात्मिक जगत में तो ढोंग-पाखंड में एक्सपर्ट होना अनिवार्य शर्त होती है। साधारण ढोंगी-पाखंडी केवल सड़कों पर तमाशे दिखाकर दो वक्त की रोटी ही कमा सकते हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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