स्वयं को बदलो, दूसरों को बदलने का प्रयास करना मूर्खता है

चैतन्य आत्माओं ने कहा, “स्वयं को बदलो, दूसरों को बदलने का प्रयास करना मूर्खता है”।
वे बिलकुल सही कहते हैं। दूसरे कभी बदलते नहीं, भले उन्हें बदलने के चक्कर में आप स्वयं बर्बाद हो जाएँ।
बहुत से लोगों को लगता होगा कि मोटीवेशनल गुरु, आध्यात्मिक गुरु, धार्मिक गुरु, जातिवादी गुरु लोगों को बदल देते हैं। लेकिन सत्य तो यह है कि वे भी किसी को नहीं बदल पाते और वे भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति स्वयं को बदलना ना चाहे, उसे कोई नहीं बदल सकता।
दुनिया भर में इतने सारे मोटीवेशनल गुरु हैं, फिर भी दुखी, निराश, हताश लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, तो क्यों ?
क्योंकि निराशा, हताशा भी एक प्रकार की बीमारी बन जाती है, जब कोई अधिक समय तक निराश या हताश रहता है। तब उसे दवाओं की आवश्यकता पड़ती है, उपचार की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन अधिकांश लोग यह मानते हैं कि वे बहुत बड़े ज्ञानी हैं, उन्हें किसी चिकित्सा या उपचार की आवश्यकता नहीं है।
अक्सर देखा है, जो व्यक्ति स्वयं बेरोजगार है, स्वयं डिप्रेशन का शिकार है वह मोटीवेशनल गुरु बन जाता है। खुद की ज़िंदगी नर्क बनी हुई है, दूसरों की ज़िंदगी सुधारने निकल पड़ता है।
बुद्धिमान लोग वे होते हैं, जो मोटीशनल गुरु बनकर लाखों कमा रहे होते हैं।
आप कुछ भी करें, कितना ही भला काम करें। यदि आपके काम से आप इतना भी नहीं कमा पा रहे कि अपने घर परिवार को पाल सकें, तो फिर आप अपना जीवन व्यर्थ नष्ट कर रहे हैं। फ्री के समाज सुधारकों की ज़िंदगी बेकार ही गयी है। अधिक से अधिक इतना ही हुआ है कि लोग उनकी प्रतिमाएँ बनाकर फूल माला चढ़ा देते हैं, या राजनीति करने लगते हैं। इससे अधिक कोई लाभ नहीं होता समाज सुधारकों से समाज को।
क्योंकि समाज तो माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों के सामने नतमस्तक रहता है, उनकी कृपा और दया पर आश्रित रहता है।
मैं भी पिछले कई बरसों से अपने लेखन के माध्यम से, फोन पर काउन्सलिन्ग के माध्यम से लोगों को मानसिक रूप से जागृत करने का प्रयास करता आ रहा हूँ। लेकिन कोई लाभ हुआ नहीं। आज तक एक भी व्यक्ति का भला नहीं कर पाया।
कई-कई घंटों बातें करने के बाद पता चलता है कि जिसे समझाने में कई घंटे खर्च किए, वह तो स्वयं बहुत बड़ा ज्ञानी है। और परिणाम यह आता है कि मेरे सुझाव, मेरे विचार उन ज्ञानियों के सर के ऊपर से निकल जाता है।
इतने सारे लेख लिखे समाज को कुछ समझाने के लिए। लेकिन परिणाम शून्य आया। उल्टे लोग कहने लगे कि ये इंसान पागल हो गया है, बेसर-पैर के लेख लिखकर अपना और दूसरों का दिमाग खराब करता रहता है।
मुझे क्या लाभ हुआ यह सब करने से ?
कुछ भी नहीं….दस वर्ष पहले जिस स्थिति में था, आज भी उसी स्थिति में।
अर्थात दूसरों के जीवन में मेरे विचारों, लेखों से कोई फर्क पड़ा नहीं, मेरा भी कोई उत्थान नहीं हुआ।
तो लाभ क्या ऐसे कर्म करने से, जिससे किसी का भी कोई भला न हो रहा हो ?
अब खो जाना चाहता हूँ एकांत में, किसी बियाबान में। जो इंसान स्वयं को सुखी, समृद्ध नहीं बना पा रहा, वह किसी और का भला कैसे कर सकता है ?
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