क्यों पूजते हैं गुरुओं को और क्यों पढ़ते हैं धार्मिक ग्रंथ ?

प्रश्न उठता है कई बार मेरे मन में कि क्यों पूजते हैं गुरुओं को और क्यों पढ़ते हैं धार्मिक ग्रन्थ ?
कहते हैं लोग कि गुरुओं ने हमें मार्ग दिखाया, जीने की कला सिखाई, ज्ञान दिया, सही और गलत में अंतर करना सिखाया….. इसीलिए उन्हें पूजा जाता है।
क्या यही कारण है पूजने का ?
लोग कहते हैं कि धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ने से चित्त शांत होता है, सही और गलत को समझने मिलता है, हमें कैसे जीना चाहिए समझने मिलता है।
क्या वास्तव में यही कारण है धार्मिक ग्रंथो को पढ़ने का ?
या फिर केवल भेड़चाल में दौड़ रहे हैं जय-जय करते हुए भेड़ों की तरह ?
यदि गुरुओं को पूजने वाले समाज पर नजर डालें, तो पाएंगे कि वह समाज अपने गुरुओं की जय-जय और स्तुति-वंदन कर रहा है, उनके नाम पर व्यापार कर रहा है, उनके नाम पर भेड़ों की भीड़ इकट्ठी कर रहा है, उनके नाम पर दान और चढ़ावा बटोर रहा है। लेकिन गुरुओं की दी हुई शिक्षाओं का रत्तीभर भी अनुसरण नहीं कर रहा।
भले उनके गुरुओं ने अत्याचारियों, शोषकों, भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणो की आहुती दे दी, उन्हें पूजने वालों के समाज को कोई फर्क नहीं पड़ा। गुरुपूजकों का समाज आज भी माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों की चाकरी कर रहा है, गुलामी कर रहा है, लेकिन गुरुओं की पूजा कर रहा है।
गुरु का कार्य होता है मार्गदर्शन करना, लेकिन क्या गुरुओं से कोई मार्गदर्शन ले पाया समाज ?
बहुत से लोगों को देखा मैंने कि वे गुरुओं को केवल इसलिए पूजते हैं, क्योंकि उन्हें पूजने से उन्हें नौकरी मिल गयी, शादी हो गयी, बीमारी दूर हो गयी, लाटरी लग गयी। लेकिन गुरु ने शिक्षा क्या दी, वह नहीं पता उन्हें और जब शिक्षा का ही पता नहीं, तो अनुसरण करेंगे कैसे ?
फिर प्रश्न उठता है कि गुरुओं को पूजने से जब बिगड़े काम बन जाते हैं, रोग, कष्ट दूर जाते हैं, तो फिर ईश्वर को क्यों पूजना ?
फिर नेताओं, अभिनेताओं को क्यों पूजना ?
लेकिन सभी पूजे जा रहे हैं, क्योंकि पूजने के लिए जन्म लिए हैं। और ये दुनिया भर के गुरुओं, देवी-देवताओं, नेता-अभिनेताओं को पूजने वाला समाज आज तक नहीं जान पाया कि गुरुओं से मार्गदर्शन लिया जाता है, प्रेरणा लिया जाता है न कि केवल स्तुति वंदन किया जाता है।
असल में इंसान केवल अपने स्वार्थों को पूजता है, अपने भय को पूजता है। जिनसे स्वार्थों की सिद्धि होती है, वह देवता है, पूजनीय है, वंदनीय है। लेकिन जो जागृत करने का प्रयास करता है, जो कहता है माफियाओं और देश के लुटेरों के सहयोगी मत बनो, उसे पूजना तो दूर, लोग पढ़ना, सुनना तक पसंद नहीं करते।
क्योंकि माफियाओं की चाकरी या गुलामी नहीं करेंगे, तो परिवार कैसे पालेंगे ?
माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी नहीं करेंगे तो ज़िंदा कैसे रहेंगे ?
तो गुरुओं के दिखाये मार्ग पर चलने की बजाए पूजने लगते हैं और चलते हैं माफियाओं और देश के लुटेरों के दिखाये मार्ग पर। इस प्रकार धार्मिक और सात्विक भी बन जाते हैं और माफियाओं को खुश रखकर अपने और अपने परिवार के प्राण भी बचा कर सुखी, समृद्ध, ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीते हैं।
माफियाओं और लुटेरों का विरोध करने वाले भूखों मरते हैं, पुलिस की लठियाँ खाते हैं, जेलों में ठूँसे जाते हैं या फिर बेमौत मारे जाते हैं।
लोग धार्मिक ग्रंथ क्यों पढ़ते हैं ?
लोग धार्मिक ग्रंथ पढ़ते हैं और आजीवन पढ़ते रहते हैं। लेकिन क्यों पढ़ते हैं यह नहीं पता। कठिन से कठिन साइंस और मैथ की किताबें समझ में आ जाती है स्नातक करने तक। और स्नातक के बाद फिर उन पुस्तकों को पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेकिन धार्मिक ग्रंथ ही ऐसे ग्रंथ हैं, जिसे इंसान आजीवन पढ़ता रहता है, लेकिन अंतिम सांस तक समझ नहीं पाता।
धार्मिक ग्रन्थों को समझाने के लिए, गुरुओं की दी गयी शिक्षाओं को समझाने के लिए साधु-संन्यासी तैयार किए जाते हैं, आचार्य, आलिम तैयार किए जाते हैं। फिर ये निकल पड़ते हैं अपने-अपने गुरुओं, धार्मिक ग्रंथो के प्रचार-प्रसार के लिए।
लेकिन जब इनपर नजर डालो, तो पाएंगे कि ये भी माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों के सामने नतमस्तक रहते हैं, उनसे भयभीत रहते हैं। और ऐसे कायर और भीरु भला समाज को धर्म या अपने गुरुओं की सही शिक्षा दे कैसे पाएंगे ?
माफियाओं के ग़ुलाम गुरुओं द्वारा थोक के भाव में संन्यासी पैदा किए जा रहे हैं, लेकिन क्या वास्तव में ये लोग संन्यासी होते हैं ?
संन्यास की सर्वश्रेष्ठ और सार्थक परिभाषा

संन्यास की सर्वश्रेष्ठ और सार्थक परिभाषा ओशो ने दिया। ओशो से पहले संन्यास की दो परिभाषाएँ प्रचलित थीं।
पहली यह कि वानप्रस्थ के बाद संन्यास आश्रम में प्रवेश करो।
दूसरी यह कि किसी भी आयु में घर-परिवार त्याग कर संन्यासी बन जाओ और जिस संप्रदाय से संन्यास लो, उसकी मार्केटिंग करो।
दूसरे प्रकार के जो संन्यासी होते हैं, उन्हें मार्केटिंग मेनेजर, एक्ज़ेक्यूटिव्स, एजेंट्स कहना अनुचित नहीं होगा।
पहले प्रकार का संन्यास तो अब लुप्त हो गया, क्योंकि उस संन्यास की कोई मार्केटिंग वेल्यू नहीं है। कोई जंगल चला गया, फिर संन्यास लिया और जंगल में ही मर-खप गया। उससे समाज और विशेषकर समाज के ठेकेदारों को कोई लाभ नहीं होता था। लेकिन दूसरे प्रकार का संन्यास सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। क्योंकि युवाओं, बच्चों को संन्यासी बनाकर अपने-अपने पंथो संप्रदायों के लिए सस्ते मार्केटिंग एजेंट्स तैयार करना बहुत आसान हो गया था।
क्या उपरोक्त दोनों ही प्रकार के साधु-संन्यासियों से समाज को कोई लाभ हुआ ?
क्या ऐसे साधु-संन्यासी समाज को कोई दिशा, शिक्षा दे पाने में सफल हुए ?
क्या ऐसे साधु-संन्यासी स्वयं चैतन्य, जागृत और भेड़चाल से मुक्त हो पाये ?

~ विशुद्ध चैतन्य
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