वर्षों से मैंने कुछ नहीं किया अकेला बैठा रहता हूँ अपने कमरे में

ओशो का यह वक्तव्य कई वर्ष पहले पढ़ा था मैंने किसी पत्रिका में। तब समझ नहीं पाया था क्योंकि तब किशोरावस्था में था और बहुत कुछ करना चाहता है। नाम कमाना चाहता था, पैसा कमाना चाहता था…यानि हर वह स्वप्न सँजोये हुए था, जो किशोरावस्था में सभी सँजोये रहते हैं।
बहुत मेहनत भी की थी अपने सपनों को पूरा करने के लिए और बहुत कुछ पाया भी था। लेकिन नहीं मिला तो प्रेम, नहीं मिला तो कोई अपना।
और जब प्रेम और अपनापन नहीं मिला, तब समझ में आया कि दौड़ ही गलत रहा हूँ। मैं ऐसी भेड़चाल में दौड़ रहा हूँ, जिससे पैसा तो बहुत मिल जाएगा, दुनिया की सारी लक्जरी भी मिल जाएगी। लेकिन नहीं मिलेगा तो प्रेम और कोई अपना।
और फिर एक दिन यह भी समझ में आ गया कि हम सभी इस दुनिया में अकेले ही हैं। जो विवाहित हैं, वे भी दुखी और अकेले हैं, और जो बहुत बड़ी भीड़ से घिरे रहते हैं वे भी दुखी और अकेले हैं।
मैंने कुछ भी करना छोड़ दिया। परिणाम यह हुआ कि फुटपाथ पर आ गया। सारे अपने सगे-सम्बन्धी, यार-दोस्त, शुभचिंतक, क्लाइंट्स…..सब स्वप्न की तरह गायब हो गए। और तब मेरा जन्म हुआ और स्वयं से परिचित हुआ।
फिर मैं आश्रम में पहुँचा दोबारा नए सिरे से शुरू हुआ। लेकिन पाया कि आश्रम और बाहरी वैश्यों और शूद्रों की दुनिया में कोई अंतर नहीं है। आश्रम भी व्यावसायिक केंद्र ही होते हैं और यहाँ विश्वास, श्रद्धा और आस्था का व्यापार होता है। आश्रम अब समाज को जागृत और चैतन्य बनाने का कार्य नहीं करते, बल्कि भेड़, बत्तख और साम्प्रदायिक द्वेष व घृणा से भरे जोंबीज़ बनाने का कार्य करते हैं। ताकि देश को लूटने और लुटवाने वालों के विरुद्ध कोई आवाज ना उठने पाये।
आश्रम अब समाज को आत्मनिर्भरता का पाठ नहीं पढ़ाते। क्योंकि आश्रम स्वयं माफियाओं और लुटेरों की कृपा और दया पर आश्रित होते हैं। आश्रम अब समाज को नैतिकता और देशभक्ति का पाठ नहीं पढ़ाते। क्योंकि आश्रम स्वयं देश को लूटने और लुटवाने वालों पर आश्रित होते हैं।
आश्रम अब माफियाओं और देश के लुटेरों की गुलामी करना सिखाते हैं।
यह सब देखकर समझ में आ गया कि पढ़े-लिखे कर्मवादी लोगों ने सृष्टि और मानवता का जितना बेड़ा-गर्क किया है, उतना संभवतः पशु-पक्षियों और अनपढ़ आदिवासियों ने भी नहीं किया होगा। ना तो ये लोग कर्म करते, ना विश्व माफियाओं का गुलाम बनता।
आज कोई भी क्षेत्र देख लीजिये सभी क्षेत्रों पर माफिया या माफियाओं के गुलाम ही सर्वोच्च पदों पर आसीन दिखाई देंगे। क्योंकि ये लोग कर्मवादी हैं, दिन रात कोई न कोई कर्म या कुकर्म करते रहते हैं।
इसीलिए मैंने स्वयं को कर्मवाद से मुक्त कर लिया। अब कुछ नहीं करता सिवाय लिखने के। और लिखता भी हूँ, तो केवल इसलिए क्योंकि भीतर कोई है, जो फोर्स करता है लिखने के लिए। ना लिखूँ, तो बेचैनी होने लगती है।
लेकिन मेरा लेखन भी ऐसा है कि फूटी कौड़ी की कमाई नहीं होती लिखने से। बल्कि शत्रु और विरोधी ही बढ़ते हैं। जो लोग थोड़ी बहुत आर्थिक सहयोग करते थे, वे भी अब गायब हो चुके हैं। क्योंकि उन्हें भी समझ में आ गया कि मुझसे उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला।
और स्वाभाविक ही है, कर्मवादी समाज में, जहां इंसान का जन्म ही गुलामी करने के लिए होता है, कोल्हू का बैल और ज़ोम्बी बनने के लिए होता है, नेताओं, बाबाओं के पीछे खड़े होकर जयकारे लगाने के लिए होता है….उस समाज में मेरे जैसे के साथ कौन जुड़ना चाहेगा ?
और यदि कोई निकम्मा, कामचोर यानि मेरी ही तरह का व्यक्ति मेरे साथ जुड़ेगा भी, तो ना तो उसे कोई लाभ होने वाला है, न मुझे कोई लाभ होने वाला है। इसीलिए मैं सबसे अलग ही रहना पसंद करता हूँ।
~ विशुद्ध चैतन्य
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