नैतिकता और परोपकार की शिक्षा व्यावहारिक क्यों नहीं ?

नैतिकता और परोपकार की जो शिक्षा दी जाती है, वह व्यवहारिक रूप से उन लोगों में देखने नहीं मिलता, जिनके सामने नतमस्तक रहते हैं देश के धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, चरित्रवान लोग।

नैतिकता और परोपकार जनसाधारण में भी देखने नहीं मिलता और अब तो गरीबों में भी देखने नहीं मिलता।
होता केवल इतना ही है कि कुछ लोग प्राकृतिक रूप से जन्मजात नैतिक और परोपकारी होते हैं। उन्हें शो पीस बनाकर धूर्तों, मक्कारों और बेईमानों का समाज स्वयं को धार्मिक, सात्विक, नैतिक घोषित कर लेता है। जबकि उनके दड़बों का ठेकेदार समेत अधिकांश लोग अनैतिक अधार्मिक, धूर्त और बेईमान होते हैं।
यह बिलकुल वैसी ही बात होती है, जैसे गिद्धों का झुंड कुछ हंसों के पीछे चलने लगे अनुयायी या भक्त बनकर और स्वयं को हंस समझ ले। अर्थात बेईमानों और धूर्तों का समाज नैतिकता और परोपकार की पिंपणी सबसे अधिक
चायवाले से शुरू करते हैं कि कैसे धूर्तता, मक्कारी आज सामाजिक रूप से स्वीकृत हो चुका है।

जिनका जन्म 1980 से पहले हुआ, उनहोंने वे दिन अवश्य देखे होंगे जब एक गिलास चाय 15-20 पैसे की मिलती थी और स्पेशल मलाई वाली चाय 25-40 पैसे की मिला करती थी।

महंगाई बढ़ती थी चाय की कीमत भी बढ़ती थी, लेकिन ना तो चाय का गिलास बदलता था, ना ही ग्लास में चाय घटती थी।
फिर कटिंग का जमाना आया और कटिंग चाय यानि एक एक चाय की कीमत में दो आधा ग्लास चाय। बेईमानी यहाँ तक शुरू नहीं हुई थी। क्योंकि चाय तो उतनी ही मिल रही थी केवल आधा आधा करके दो लोगों को दिया जा रहा था।
यह तो ध्यान नहीं कि बेईमानी कब से शुरू हुई, लेकिन 2013 में जब झारखण्ड आया, तब पहली बार चाय पीने का मजा बिगड़ा। यहाँ सबसे सस्ती चाय 3 रुपए की थी तब और चाय गिलास की बजाय किसी बोतल के ढक्कन जितनी कागज के कप में मिलती थी।
यानि चाय की कीमत बढ़ गयी और चाय इतनी घट गयी कि अब लोग बोतल के ढक्कन में चाय पीने लगे।
तो कह सकता हूँ कि यहाँ से बेईमानी शुरू की चायवालों ने।
केवल चाय ही नहीं, समोसों के भी दाम बहुत बढ़ गए थे लेकिन आकार छोटे हो गए थे। ऐसा लगता है जैसे गुलिवर की तरह किसी बौनों के देश में चला आया हूँ, जहां हर बर्तन से लेकर समोसे, भटूरे, पूड़ी तक तब बहुत छोटे-छोटे आकार के होते हैं, लेकिन दाम बड़े आकार के।
तो बाहर चाय पीना ही बंद कर दिया। क्योंकि 10 रुपए वाली चाय पीने के बाद भी ऐसा लगता था कि केवल होठ ही गीले हुए हुए हैं, चाय भीतर उतरी ही नहीं।
15-20 पैसे की जब चाय मिलती थी, फिर महंगी-महंगी होते थे 1 रुपए की हो गयी थी, तब तक चाय एक ग्लास चाय पीकर ही आत्मा तृप्त हो जाया करती थी। आज दस रुपए की चाय पीने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे पैसे ही बर्बाद हुए हैं। क्योंकि ना तो चाय में अदरक मिलता है, न इलायची।
पहले जब कहीं चाय बन रही होती थी, तो दूर से इलायची/अदरक की सुगन्ध खींच ले जाती थी चाय की दुकान पर। अब चाय केवल नाम की रह गयी कोई दम नहीं, केवल दाम ही अधिक है।
तो बेईमानी शुरू हुई इस प्रकार की दाम बढ़ते चले गए और आकार, सामाग्री और क्वान्टिटी घटती चली गयी। पैकेट बड़े साइज़ के, दाम बड़े साइज़ के, लेकिन भीतर सामग्री बहुत कम। जैसे कि चिप्स के पैकेट्स में देखने मिलता है।
समाज ने इस बेईमानी को बहुत ही सहजता से स्वीकार लिया और किसी ने कोई विरोध भी नहीं किया। यही समाज नैतिकता, परोपकार और धार्मिकता की दुहाई देता फिरता है।
सैंकड़ों वर्षों से धार्मिक ग्रंथ पढ़ाया जा रहा है, रटाया जा रहा है, नैतिकता का पाठ पढ़ाया जा रहा है, लेकिन लाभ क्या हुआ ?
समाज तो स्वयं ही अनैतिक और अधर्मी हो गया, तो फिर माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वाले बिकाऊ, बेशर्म, अनैतिक, अधर्मी नेताओं और सरकारों के विरुद्ध आवाज उठा कैसे सकते हैं ?
सभी नेता और सरकारें भी जानती हैं कि समाज स्वयं ही अनैतिक और अधर्मी है, तो अधर्म, अत्याचार और शोषण का विरोध करने का साहस कर कैसे सकता है ?
और इक्के दुक्के जो विरोध करने निकलते भी हैं, तो सरकारें अपने पालतू गुंडों अर्थात सीबीआई, ईडी और पुलिस छोड़ देती है उनके ऊपर। अब बेचारे अपनी जान बचाएं इन गुंडों से या विरोध करें ?
और जो विरोध कर रहे होते हैं, उनका साथ देने के लिए कोई नहीं होता। न समाज होता है साथ, न धर्मों, जातियों और नैतिकता के ठेकेदार। सभी अधर्मियों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं या फिर मौन तमाशा देखते हुए अप्रत्यक्ष समर्थन कर रहे होते हैं अधर्मियों, लुटेरों और अत्याचारियों का।
इस प्रकार आप समझ सकते हैं कि नैतिकता, धार्मिकता और परोपकार की शिक्षा खोखली किताबी बातें रह गयीं और केवल प्रवचन करने और गाल बजाने के ही काम आती है। व्यवहारिकता से कोई सम्बन्ध ही नहीं इन शिक्षाओं का।
आप सरकारी वेतनभोगी बनें या गैर सरकारी, बेईमानों और लुटेरों का साथ दिये बने एक सफल, समृद्ध व्यक्ति बन ही नहीं सकते, ऐसा बना दिया है सारी व्यवस्था को। और जो बेईमानी कर रहे हैं, रिश्वतख़ोरी कर रहे हैं, देश व जनता को लूट-खसोट रहे हैं, वे बड़ी शान से घूमते हैं और विवश, लाचार ईमानदार लोगों का मजाक उड़ाते हैं।
आपका नेता अधर्मी और अनैतिक है, आपकी सरकार, आपका समाज अधर्मी और अनैतिक है, आपके स्कूल/कॉलेज असफल हो चुके हैं छात्रों को नैतिक, धार्मिक, सदाचारी और परोपकारी बना पाने में, फिर भी कोई शर्म नहीं। लेकिन कोई उन धार्मिक ग्रन्थों, गुरुओं, आराध्य देवी-देवताओं, ईश्वर/अल्लाह का अपमान कर दे, जो आज तक समाज और सरकारों को धार्मिक, नैतिक, सदाचारी, परोपकारी बना पाने में सफल नहीं हो पाये, तो आपकी खोखली भावनाएं आहत हो जाती हैं। फिर निकल पड़ते हो उस किताबी धर्म की रक्षा करने मोबलिंचिंग करके, आगजनी करके, तोड़फोड़ करके, जो धर्म और उसके अनुयायी माफियाओं और लुटेरों का गुलाम बन चुका है।
क्या ऐसे दोगलेपन से आगामी किसी भी शताब्दी में समाज और सरकारों को नैतिक, सात्विक, सदाचारी और परोपकारी बनाया जा सकता है ?
~ विशुद्ध चैतन्य
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