आज भी एक आध संयुक्त बड़े परिवारों का गांव में वास है!

ऐसी जमीन पर खाने वाले आज परिवार न रहे। आज के आधुनिकता और भौतिकता भरी शहरी परिवारों में तो लोग डाइनिंग टेबलों में ही खाते हैं।
यह सुंदर दृश्य तो मैं अपने बचपन भी गांव के आंगन में देखा करती थी। जब मैं उन्हें याद करती हूं तो हमारे रोम-रोम पुलकित हो जाते हैं हम सब उस समय तक बहुत ही सभ्य, सुसंस्कृत परिवार हुआ करते थे। पर्यावरण के बारे में काफी सोच विचार करते, अपनी दिनचर्या में प्राकृतिक चीजें ही यूज़ किये जाते थे। उस समय इतने सारे पढ़े-लिखे डिग्रीधारी अशिक्षित मूर्ख परिवार का समाज का जन्म जो नहीं हुआ था। इसीलिए समझदार, शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत थे, व्यवहारिक रूपों में अपने जीवन में सभी।
किसी भी शादी ब्याह या सांस्कृतिक पर्व त्योहारों में ऐसे ही केले के पत्तलों और मिट्टी के पानी के कुच्चड़ दही में और पानी मिलती थी। न कि प्लास्टिक के ग्लास, प्लास्टिक की बोतलों और प्लास्टिक की प्लेट में खाने परोसे किए जाते थे। न ही विदेशी बॉब सिस्टम यानी कि खुद के खाने खुद से लेने की प्रथा थी।
पर हमारे समय में किसी भी पर्व त्योहारों में, पत्तलों में ही अपने हाथों से परिवार में ऐसे ही स्त्री और पुरुष बहुत ही प्रेम से खाना परोसा करती थे। हर गरीब और अमीर परिवारों में कहीं 100 से ज्यादा ही लोगों को खाना खिलाया जाता था गांव में। हर वर्ग के लोगों में हर किसी को खिलाने की क्षमता होती थी, पर आज लोगों की औकात नहीं।
पर अब तो पढ़े-लिखे डिग्री धारी अशिक्षित हो जाने के बाद महंगाई डायन में आग लग गई। आप लोग अपनी शादी में आप पर दीवारों में गिने-चुने लोगों को ही बुलाते हैं। हम जैसे बड़े परिवारों को तो जब कार्ड मिलती तो लिखा होता है कि परिवार के 1 एक या दो सदस्य ही आएं।
क्योंकि उस समय हर गांव में एक बड़े या छोटे किसानी परिवार सुख संपन्न हुआ करते थे, उनके घरों में अनाजों का थाह होता था। किसी बिचौलियों को नहीं बेचते थे। बल्कि खुद अपने प्रोडक्ट अपने परिवार और गांव समाज के साथ मिलकर कुछ न कुछ बनाते थे फिर उसे बेचते थे।
हमारे जमाने में क्या सुंदर, सभ्य और सुसंस्कृत दृश्य हुआ करता था, जब सभी गांव के लोग एक ही पंक्तियों में बैठ हंसी ठिठोलीयों के साथ खाया करते थे। चाहे वह किसी भी वर्ग के हो, चाहे अमीर या गरीब पर एक साथ बैठने में जो मजा होता था, वह आज की आधुनिकता भरी शादी के पार्टियों में नहीं।
यहां तक हर किसी भी छोटी पर्व त्योहारों में लोग अपने अपने घरों में भी जमीन पर बैठकर, प्लाथी मारकर आहार खाया करते थे। कोई भेदभाव नहीं हुआ करता था, न हिंदू, न मुस्लिम से, न ही किसी गरीब वर्ग से, सभी समान होते थे और सभी सपरिवार आपस में मिल एक दूसरे का सहयोग किया करते थे।
आज की शहरी मॉडर्न जिंदगी में लोग छोटे-छोटे डाइनिंग टेबल के कुर्सियों में समा ही नहीं पाते। और न ही कभी गांव वाले समा पाएंगे, उन डाइनिंग टेबल पर। जिसके कारण आज हर परिवार समाज बिखर कर रह गया है।
और जब गांव की शादियां होती तो, पूरे के पूरे गांव वाले के परिवार भरपूर लोग आत्मीयता से आते थे, और उनका भरपूर स्वागत और सम्मान भी होता था।
आज तो एक परिवार के एक सदस्य का निमंत्रण आता है। ऊपर से लोगों को समय भी नहीं मिलता है अपनी आज की भेड़ों की दौड़ में, नौकरी की होड़ में, गुलामी भरी नौकरी पैसे, कैरियर और व्यवसाय में इतने बिजी हैं कि किसी को किसी से फुर्सत नहीं।
आज सभी पैसे कमाते जा रहे हैं कमाते जा रहे हैं, पर इतने सारे पैसे कमा कमा कर जाते कहां है? पहले जब लोग मां-बाप पूर्वज हमारी इतने पैसे नहीं कमाते थे, तब तो हम ज्यादा खुशहाल थे। पर आज तो हर कोई पैसा कमा कर के भी दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है।
क्योंकि आज के किसान सभी अब अपने गांव में खेती बाड़ी से सभी पूरी तरह नहीं जुड़ पाए, और न ही पूरी तरह उनकी तरह धरती से प्रेम कर पाए। आज के किसान उन जमीनों से सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसे उगाना चाहते हैं। पर जैसे पूर्वज उन खेतों से बड़े प्रेम सेवा से जुड़ा करते थे। और पूरी तरह आत्मनिर्भर हुआ करते थे। उसी खेतों से पूरा परिवार का भरण पोषण हुआ करता था।
पर आज तो लोग का भरोसा खेती से उठ गया है। किसान मतलब घाटे का सौदा। इसीलिए हर किसान परिवार के बच्चे इंजीनियर, डॉक्टर, साइंटिस्ट, यूपीएससी और आईएएस की तैयारी कर ऑफिसर और सीओ बन पूंजीपतियों और सरकारों के गुलाम बन रहे।
क्योंकि मानवता पर हंटर जो चलाना है और दो नंबर का धंधा जो करना है, और अपने मां बाप की मेहनत की कमाई पर नाज न कर, अपनी गुलामी भरी नौकरी से सरकारी माफियाओं के दलाल अच्छा पैसा कमाना है?
पर अपनी पूर्वजों की जमीनों पर खेती कर, आत्मनिर्भर कुटीर उद्योग व्यवस्था कर, स्वतंत्र जीने की व्यवस्था करना उनका घाटा का सौदा लगता है।
पर आज दुर्भाग्य है उस हर परिवार की, जिसने भी अपने पूर्वजों की जमीनों को दांव पर लगाकर, अपनी बेटी बेटियों को शहरी जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया। और उन्हें पूंजी पतियों के तलवे के नीचे, और सरकारी नौकरियों के आधार पर गुलाम बन रहने को मजबूर कर दिया।
पर आज की सारी उन गुलामी में रहकर लोग अपने आप को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र समझते हैं। पर यह उनका बहुत बड़ा धोखा है वे सभी गुलाम है और गुलाम ही रहेंगे।
एवं प्राकृतिक व्यवस्था से जुड़कर अपने आत्मनिर्भरता से जो कुछ भी हम करते हैं, या अपनी जमीनी स्तर पर कुछ भी करते हैं, वही स्वतंत्र व्यवस्था है।
अगर अपनी जमीन है तो उसमें प्राकृतिक खेती कर, थाली में जितनी अनाज हम खाते हैं उन सारी चीजों को अगर अपने खेतों में उगाते हैं, और उसकी प्रोडक्शन तैयार करते है। तभी वह अपने आप में राजा और स्वतंत्र होने की संभावना सबसे ज्यादा है, क्योंकि वहां किसी का हुकूमत नहीं है।
~ सरिता प्रकाश 🙏🥰✍️💚🌱☘️💧🐛🦜🐦🕊️🦆🦩🐧🦚🦉🐝🐞🦋🐜🦗🦢❣️
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