कर्मवाद का आधार है चाकरी और गुलामी

मानव का जन्म माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी करने के लिए हुआ है। और जो चाकरी या गुलामी से इंकार कर दे, वह ढोंगी, पाखंडी, हरामखोर है, मुफ्तखोर है।
ऐसी धारणा को धारण करके कोल्हू का बैल बनकर माफियाओं और लुटेरों की सेवा करना कर्मवाद कहलाता है। कर्मवाद का आधार ही है चाकरी और गुलामी।
कर्मवादी लोग स्वयं तो नेताओं, पार्टियों और रिश्वतखोर अधिकारियों के सिवाय किसी अन्य को दान करते नहीं, दूसरों को भी दान करने से रोकते हैं।
कर्मवादी लोग दान और भीख का अंतर भी नहीं जानते। क्योंकि गुलाम तो गुलाम ही होता है, दान और भीख का अंतर भला कैसे जान पाएगा ?
जब लोग पढ़े लिखे नहीं होते थे, जब लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे, तब चाकरी और गुलामी को सबसे निकृष्ट माना जाता था। जबकि स्वतंत्र भाव से जीने वाले साधु संन्यासियों को सर्वोच्च सम्मान दिया जाता था।
लेकिन जब से लोग पढ़े-लिखे हो गए हैं, अंग्रेजी बोलने लगे हैं, तब से चाकरी और गुलामी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया और दान पर आश्रित साधु संन्यासी सबसे निचले स्थान पर पहुंच गए।
दोष साधु संन्यासियों का ही है। अब साधु संन्यासी भी माफियाओं और देश के लुटेरों के चाटुकार बन चुके हैं। इसलिए गुलामों को ऐसे साधु संन्यासी अपने प्रतिद्वंदी नजर आते हैं। गुलामों को लगता है ये लोग चापलूसी और चाटुकारिता में उन्हें पीछे छोड़कर उनकी कुर्सी हथिया लेंगे।
सच तो यह है कि वास्तविक संन्यासी किसी की कुर्सी या सत्ता नहीं हथियाता। विशेषकर चाकरी और गुलामी वाली कुर्सी को तो हाथ भी नहीं लगाता।
संन्यासी ही यदि दूसरों की सत्ता या कुर्सी के दौड़ में पड़ जाए, तो फिर वह संन्यासी नहीं माफियाओं का गुलाम बनकर रह जाएगा।
संन्यासी तो बिना सत्ता और कुर्सी के भी स्वामी हो जाता है। स्वामी अर्थात स्वयं का मालिक। और जो स्वयं का मालिक हो जाए वह कर्मवादी कोल्हू का बैल, माफियाओं का चाकर या गुलाम क्यों बनना चाहेगा ?
मैं कर्म करता हूं वही, जो अनिवार्य है मेरे लिए। लेकिन कर्मवादी नहीं हूं। सत्य तो यह है कि मैं सनातनी हूँ, इसलिए किसी भी वाद से मुक्त हूँ। ना हिन्दूवादी हूँ, ना इस्लाम वादी हूँ, न हूँ, ना ईसाईवादी हूँ, ना कॉंग्रेसवादी हूँ, ना आरएसएस या भाजपावादी हूँ, न समाजवादी हूँ, ना बहूसमाजवादी हूँ, ना मोदीवादी हूँ, ना गांधीवादी हूँ, ना गोडसेवादी हूँ, ना अंबेडकरवादी हूँ, ना पार्टीवादी हूँ, ना दलितवादी हूँ, ना सवर्णवादी हूँ, ना ब्राह्मणवादी हूँ और ना ही मानवतावादी, पशुतावादी, पक्षीवादी।
एक संन्यासी होने के नाते मेरा कर्तव्य और धर्म है गुलाम मानसिकता से पीड़ित समाज को स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाऊं। और आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाने के लिए मुझे किसी की चाकरी या गुलामी करने की आवश्यकता नहीं और ना ही आवश्यकता है दड़बावाद का वादी होने की।
कर्मवाद और कर्मयोग में अंतर है
जिस प्रकार दिव्याङ्ग का अर्थ विकलांग हो गया है, जिस प्रकार मंदिर और तीर्थ अब व्यावसायिक पर्यटन स्थलों में रूपांतरित हो चुके हैं, जिस प्रकार साम्प्रदायिक मत मान्यताओं और परम्पराओं को धर्म मान लिया गया है….जिस प्रकार मोदीवाद, अंबेडकरवाद, माओवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद…..आदि हैं, ठीक वैसा ही है कर्मवाद।
कर्मवाद और कर्मयोग में अंतर है और उतना ही बड़ा अंतर है, जितना गांधी और गांधीवाद में, जितना अंबेडकर और अंबेडकरवाद में। कर्मवाद बिलकुल विपरीत है कर्मयोग के। कर्मवाद में इंसान को माफियाओं और देश के लुटेरों का गुलाम बनाने के लिए है। कर्मवादी लोग सभी को अपनी ही तरह माफियाओं और देश के लुटेरों के चाकर या गुलाम के रूप में देखना चाहते हैं। कर्मवादी लोगों की मनः स्थिति बिलकुल वैसी ही होती है, जैसी मोदीवादियों, अंबेडकरवादियों, गांधी वादियों, पैगंबरवादियों की होती है।
जबकि कर्मयोग होता है और कर्म + योग अर्थात आप अपनी आवश्यकतानुसार कर्म से जुडते हैं, न की मान्यता और परम्पराओं के अनुसार। आपको भूख लगी है, तो आप भोजन बनाने लगे। लेकिन आवश्यकता नहीं है तो आप आराम कर रहे हैं, या कोई किताब पढ़ रहे हैं, या कुछ नहीं कर रहे अर्थात ध्यान में डूबे हुए हैं। यह हुआ कर्मयोग।
लेकिन कर्मवादी होने का अर्थ है आप कुछ न कुछ करते रहें कोल्हू के बैल की तरह जुते रहें किसी न किसी कार्य में। भले उस कार्य से आपको कोई लाभ न हो रहा हो, लेकिन करते रहें क्योंकि गीता में कहा है कर्म किए जा (कोल्हू के बैल की तरह) फल की चिंता मत कर।
यदि आप कर्मयोगी हुए, तो आप जो कुछ भी करेंगे उसमें आप प्रसन्न रहेंगे। फिर चाहे आप लेखन कार्य करें, या फिर भजन गायें, या फिर बागबानी करें, या फिर ध्यान में डूबे रहें। भले आपको एक रुपए की कमाई ना हो रही हो, आप प्रसन्न रहेंगे जैसे कोई फकीर कोई संन्यासी प्रसन्न रहता है अपनी धुन में।
लेकिन यदि कर्मवादी हुए, तो कर्म करना आपकी विवशता हो जाएगी। तो आप नेताओं की रैलियों में जय कारा लगाने पहुँच जायेंगे दिहाड़ी पर, आप दंगा फसाद करने पहुँच जायेंगे, आपकी भावना आए दिन आहत होती रहेगी और कहीं आगजनी करते नजर आएंगे, तो कहीं तोड़फोड़ करते नजर आएंगे। या फिर माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों की चाकरी और गुलामी करते नजर आएंगे। क्योंकि आप कर्मवादी हैं और कर्म करना है कोई न कोई। फिर वह अच्छा कर्म हो या बुरा कर्म, कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसीलिए ही मैंने कहा कि मैं आवश्यक और रुचिकर कर्म करना पसंद करता हूँ थोपा हुआ कर्म नहीं। क्योकि मैं कर्मवादी नहीं हूँ। यदि आवश्यक लगा तो खेती भी कर लूँगा और भजन कीर्तन भी कर लूँगा। और आवश्यक नहीं लगा तो कुछ नहीं करूंगा। क्योंकि मैं विवश नहीं हूँ कुछ भी करने के लिए।
यदि विवशता ही ढोनी होती तो नौकरी ही क्यों छोडता ?
यदि ईश्वर की इच्छा होती कि मैं विवशता को ढोता फिरूँ तो विवाह हो चुका होता मेरा। और फिर बाकी विवाहितों की तरह अपनी किस्मत को कोस रहा होता।
और जिस प्रकार माफियाओं और लुटेरों की चाकरी करने वाले माफ़ियों के विरुद्ध मुँह खोलने से भी डरते हैं, वैसे ही मैं भी डरा सहमा नौकरी कर रहा होता बीवी बच्चे पालने के लिए। मानो मेरा जन्म बीवी बच्चे पालने के लिए ही हुआ हो।
नहीं मेरा जन्म विवशता को ढोने के लिए नहीं हुआ है। बल्कि जो विवश हैं, उनकी आँखें खोलने के लिए हुआ है। और यही कारण है कि मैं वह सब लिख और कह पाता हूँ, जो माफियाओं और देश को लूटने और लुटवाने वालों की चाकरी करने वाले रिटायर होने से पहले नहीं कह पाते।
अब आप समझ चुके होंगे कि कर्मवाद और कर्मयोग में कितना अंतर है। कर्मयोगी होता है वह व्यक्ति जो अपनी इच्छा से, अपनी रुचि से कर्म चुनता है। जबकि कर्मवाद का आधार ही है चाकरी और गुलामी।
~ विशुद्ध चैतन्य
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