स्वतन्त्रता विहीन लोकतन्त्र

जिंदगी भर मुझे दफ्तरों से, सरकारी अदालतों से समन्स मिलते रहे हैं, कोर्ट में उपस्थित होने की आज्ञा मिलती रही है। क्योंकि किसी व्यक्ति ने कोर्ट में निवेदन कर दिया कि मैंने जो कुछ कहा है, उससे उसके धार्मिक भाव को चोट पहुंच गयी।
यह बड़े मजे की बात है।
तुम्हारा धार्मिक भाव इतना लाचार, इतना कमजोर, कि कोई कुछ उसके विरोध में कह दे तो उसे चोट पहुंच जाती है। तो ऐसे लचर और कचरे भाव को फेंको।
तुम्हारे भीतर का धर्म तो मजबूत स्टील का होना चाहिए। ये कहां के सड़े-गले बांस तुम उठा लाए हो।
और जो भी व्यक्ति किसी अदालत के सामने जाकर कहे कि उसके धार्मिक भाव को चोट पहुंची है, अदालत को चाहिए कि उस आदमी पर मुकदमा चलाए कि ऐसा धार्मिक भाव तुम अपने भीतर रखते क्यों हो? तुम्हें कुछ मजबूत और शक्तिशाली जीवन चिंतना नहीं मिलती? तुम्हें कोई विचारधारा नहीं मिलती, जिसको कोई चोट न पहुंचा सके?
मैंने तो आज तक किसी अदालत से नहीं कहा कि मेरे धार्मिक भाव को कोई चोट पहुंची है।
मैं तो प्रतीक्षा कर रहा हूं उस आदमी की, जो धार्मिक भाव को चोट पहुंचा दे। मैं तो सारी दुनिया में उसको आमंत्रित करता हुआ घूमा हूं, कि कोई आए और मेरे धार्मिक भाव को चोट पहुंचा दे। क्योंकि मेरा धार्मिक भाव मेरा अपना अनुभव है। तुम उसे चोट कैसे पहुंचा सकोगे?
लेकिन लोगों के धार्मिक भाव उधार हैं, बासे हैं; दूसरों के हैं, अपने नहीं हैं। किसी ने कान फूंके हैं, गुरुमंत्र दिए हैं, और इन उधार बासी बातों पर, इस रेत पर उन्होंने अपने महल खड़े कर लिए हैं। जरा सा धक्का दो, तो उनके महल गिरने लगते हैं। महल हिल जाते हैं, कंपायमान हो जाते हैं।
लेकिन इसमें कसूर धक्के देने वाले का नहीं है। तुम रेत पर महल बनाओगे तो गलती किसकी है? तुम पानी पर लकीरें खींचोगे और मिट जाएं, तो जिम्मेवारी किसकी है?
और अगर यह सच है कि किसी धर्म के, किसी चिंतन के विरोध में बोलना अपराध है, तो कृष्ण ने भी अपराध किया है, बुद्ध ने भी अपराध किया है, जीसस ने भी अपराध किया है, मोहम्मद ने भी अपराध किया है, कबीर ने भी नानक ने भी। इस दुनिया में जितने विचारक हुए हैं, उन सबने अपराध किया है; भयंकर अपराध किया है।
क्योंकि उन्होंने निर्दयी भाव से, जो गलत था उसे तोडा है। और जो गलत से बंधे थे उनको स्वभावतः चोट पहुंची होगी।
अगर अब दुनिया में कबीर पैदा नहीं होते,
अगर अब दुनिया में बुद्ध पैदा नहीं होते,
तो तुम्हारा लोकतंत्र जिम्मेवार है।
अजीब बात है।
लोकतंत्र में तो गांव-गांव कबीर होने चाहिए,
घर-घर नानक होने चाहिए।
जगह-जगह सुकरात होने चाहिए, मंसूर होने चाहिए।
क्योंकि लोकतंत्र का मूल आधार है:… विचार की स्वतंत्रता
जब लोकतंत्र नहीं था दुनिया में,
और विचार की कोई स्वतंत्रता नहीं थी दुनिया में, तब भी दुनिया ने बड़ी ऊंचाइयां लीं।
और अब, अब दुनिया में ऊंचाइयों पर उड़ना अपराध है, तुम्हारे पंख काट दिए जाएंगे। क्योंकि तुम्हारा ऊंचाइयों पर उड़ना–जो लोग नीचाइयों पर बैठे हैं, उनके हृदय को बड़ी चोट पहुंचती है।
तुमने पूछा है कि कहा जाता है
कि लोकतंत्र का मूल आधार है विचार-स्वातंत्र्य।
और मेरे जीवन भर का अनुभव यह कहता है कि विचार की स्वतंत्रता कहीं भी नहीं है।
अभी-अभी मैं सारी दुनिया का चक्कर लगाकर आया हूं। नहीं कोई देश है जमीन पर, जहां तुम स्वतंत्र हो वही कहने को, जो तुम्हारे हृदय में उपजा है। तुम्हें वह कहना चाहिए जो लोग सुनना चाहते हैं।
बहुत से देश चाहते थे कि मैं उनका निवासी बन जाऊं; कि उन्हें लगता था, मेरे कारण हजारों-हजारों संन्यासियों का आना होगा, आर्थिक लाभ होगा उनके देश को। मुझसे उन्हें मतलब न था, मतलब इस बात से था कि हजारों व्यक्तियों के आने से उनके देश की संपदा बढ़ेगी।
लेकिन उन सबकी शर्तें थीं।
और आश्चर्य तो यह है, कि सब की शर्तें समान थीं। हर देश की शर्तें थी कि हम खुश हैं कि आप यहां रह जाए,
लेकिन आप सरकार के खिलाफ कुछ भी न बोलें और आप इस देश के धर्म के खिलाफ कुछ भी न बोलें। बस ये दो चीजों का वजन, इन दो शर्तों को अगर आप पूरा करें, तो आपका स्वागत है। वही हालत इस देश में भी है।
लोकतंत्र हो तो सकता था एक अदभुत अनुभव मनुष्य की आत्मा के विकास का। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। हो गया उल्टा। नाम बड़े, दर्शन छोटे। बड़े ऊंचे-ऊंचे शब्द और पीछे बड़ी गंदी असलियत।
कहीं कोई विचार की स्वतंत्रता नहीं है।
लेकिन हर आदमी को हिम्मत करनी चाहिए विचार की स्वतंत्रता की। यह मुसीबत को बुलाना है। यह अपने हाथ से बैठे-बिठाए झंझट मोल लेनी है। लेकिन यह झंझट मोल लेने जैसी है। क्योंकि इसी चुनौती से गुजरकर तुम्हारी जिंदगी में धार आएगी, तुम्हारी प्रतिभा में तेज आएगा, तुम्हारी आत्मा में आभा आएगी।
दूसरों के सुंदरतम विचार ढोते हुए भी तुम सिर्फ गधे हो, जिसके ऊपर गीता और कुरान और बाइबिल और वेद लदे हैं। मगर तुम गधे हो। तुम यह मत समझने लगना कि सारे धर्मशास्त्र मेरी पीठ पर लादे हैं, अब और क्या चाहिए? स्वर्ग के द्वार पर फरिश्ते बैंड-बाजे लिए खड़े होंगे, अब देर नहीं है।
अपना छोटा सा अनुभव, स्वयं की अनुभूति से निकला हुआ छोटा सा विचार, जरा सा बीज तुम्हारी जिंदगी को इतने फूलों से भर देगा कि तुम हिसाब न लगा पाओगे। क्या तुमने कभी यह खयाल किया है कि एक छोटे से बीज की क्षमता कितनी है? एक छोटा सी बीज पूरी पृथ्वी को फूलों से भर सकता है।
लेकिन बीज जिंदा होना चाहिए। विचार जिंदा होता है, जब तुम्हारे प्राण में पैदा होता है, जब उसमें तुम्हारे हृदय की धड़कन होती है, जब उसमें तुम्हारा रक्त बहता है, जब उसमें तुम्हारी सांसें चलती हैं।
जीवन भर मेरा एक ही उपाय रहा है कि तुम्हें झकझोरूं, तुम्हें हिलाऊं, डुलाऊं; तुमसे कहूं कि तुम कब तक उधार, बासे विचारों से भरे रहोगे। शर्म खाओ। बहुत बेशर्मी हो चुकी। कुछ तो अपना हो। कोई संपदा तो तुम्हारी हो। और इस जीवन में अनुभूति की, स्वानुभूति की संपदा से बड़ी कोई संपदा नहीं है।
– ओशो,
कोपलें फिर फूट आई
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