गुरु मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं

आप गृहस्थ हों या त्यागी, बैरागी, साधु, संन्यासी।
आप ईश्वर की खोज में निकले हैं, या शांति, मोक्ष की खोज में।
आप राजनैतिक सत्ता और शक्तियाँ प्राप्त करना चाहते हैं या फिर तांत्रिक, दैवीय, अलौकिक ऋद्धि-सिद्धियाँ।
आप देसी हों, विदेशी हों, शहरी हों, ग्रामीण हों या आश्रमवासी।
चाहे आप जो कुछ हों, बिना धन के कुछ नहीं हैं। सभी के केंद्र में धन है और सभी धन के ही चक्कर लगा रहे हैं कोल्हू के बैल की तरह। जो ध्यान केन्द्रों में ध्यान सीखने जाते हैं, वे भी धन पर ध्यान केन्द्रित करना सीखने जाते हैं।

त्याग, बैराग सिखाने वाले, माया, मोह के जगत से परे ले जाने वाले, प्रवचन करने वाले भी धन के ही पीछे दौड़ रहे हैं।
इंसान तो इंसान, ईश्वर भी धन के बिना कुछ नहीं। आज ऐसा कोई मंदिर/तीर्थ नहीं हैं, जहां बिना धन के प्रवेश कर सकें। और ऐसा कोई ईश्वर नहीं जो बिना शुल्क, कमीशन, रिश्वत (चढ़ावा) लिए मनोकामना पूरी करता हो।
जो व्यक्ति घर परिवार, व्यापार, नौकरी त्यागकर त्यागी, बैरागी, संन्यासी बनने के सपने देख रहा है, उसे समझाना चाहता हूं कि ऐसी मूर्खता ना करें।
त्यागी, बैरागी, साधु, संन्यासी बन भी गए, तब भी काम पैसों के लिए ही करना पड़ेगा। अर्थात केवल भेसभूषा बदलेगा, बाकी कुछ नहीं। और यदि आपकी कमाई नहीं हो रही, तो कोई पूछेगा भी नहीं कि आप जिंदा हो या मर गए।
इसीलिए ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, कर्ममार्ग के गुरुओं की तरह आध्यात्मिक मार्ग पर भी गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन गुरुओं से भरे विश्व में स्वयं को पहचानना और समझना सर्वाधिक कठिन कार्य है। इसीलिए चैतन्य आत्माओं ने स्वयं को जानने समझने पर बड़ा जोर दिया है।
“We live in a world that has so many people striving to look normal to a bunch of people that are abnormal, in order to be accepted. What is normal is realizing that being accepted comes at a price that robs the world of the uniqueness that God has created you to be every time you minimize your personality to make someone like you.” ― Shannon L. Alder
हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसमें बहुत सारे लोग उन कुछ लोगों के झुंड की तरह दिखना चाहते हैं, जो असामान्य हैं ताकि उनके झुंड में सामान्य व्यक्ति के रूप में स्वीकृत हो सकें। और असमान्य लोगों के भीड़ में स्वीकृत होने की कीमत होती है ईश्वर द्वारा प्राप्त आपकी अपनी मौलिकता, स्वाभाविकता। जिसे लूटकर वे आपको सामान्य बना देते हैं।
भेड़ों के समाज में रहना है तो अपनी मौलिकता में नहीं जी सकते
बहुत बुरा लगता है शुरू-शुरू में जब भेड़ों के समाज में स्वीकृत नहीं हो पाते, जब आप चाहकर भी उनकी तरह नहीं बन पाते। चाहना इसलिए होता है, क्योंकि बचपन से यही सिखाया जाता है कि अपनी तरह मत बनो, दूसरों की तरह बनो।

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि किसकी तरह होना चाहिए इंसान को ?
गांधी की तरह या गोडसे की तरह ?
दोनों के ही समर्थक और विरोधी हैं, दोनों को ही प्रशंसा और आलोचना मिलती है।
हिटलर की तरह या मोदी की तरह ?
दोनों के ही प्रशंसक और विरोधी हैं।
हिंदुओं की तरह या मुसलमानों की तरह ?
दोनों के ही समर्थक और विरोधी हैं।
शिया की तरह या सुन्नी की तरह ?
दोनों के ही समर्थक और विरोधी हैं।
देश को लूटने और लुटवाने वालों की तरह या उनका विरोध करने वालों की तरह ?
दोनों के ही समर्थक और विरोधी हैं।
यानि ऐसा कुछ भी नहीं है इस दुनिया में बनने योग्य जिसके समर्थक और विरोधी ना हों, प्रशंसक और आलोचक ना हों।
तो फिर जैसा ईश्वर ने हमें बनाया है, वैसा ही क्यों न हुआ जाये। क्या आवश्यकता है दूसरों की तरह होने की ?
क्या आवश्यकता है उनके जैसा होने की, जो गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं नौकरी, पैसा और प्रसिद्धि मिलते ही ?
इसीलिए बुद्ध ने कहा था, “स्वयं को खोजो, स्वयं को जानो, स्वयं को समझो और अपना दीपक आप बनो।

बुद्ध और महावीर, कबीर, नानक व अन्य महान गुरुओं के दिखाये मार्ग पर चलकर भी यदि ईश्वर या कुछ और खोजना पड़ रहा है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आपके गुरु, आराध्य वह चीज खोज नहीं पाये। और यदि उन्होंने खोज लिया था, तो फिर उनके दिये हुए ज्ञान को समझने के बाद कुछ खोजने की आवश्यकता रह नहीं जाती।
खोजना ही है, तो स्वयं को खोजना होगा। क्योंकि दुनिया भर का ज्ञान जो बचपन से बड़े होने तक थोपा गया इंसान के मस्तिष्क में, उन सबसे वह स्वयं को खो देता है। वह भूल ही जाता है कि वह क्या है और क्यों आया है दुनिया में। उसे केवल इतना ही याद रहता है की उसका जन्म माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी और गुलामी करने के लिए हुआ है, परिवार, सरकार और मालिकों के लिए कोल्हू के बैल की धन कमाने के लिए हुआ है।
अधिकांश लोग आजीवन स्वयं से परिचित नहीं हो पाते पारंपरिक गुरुओं अर्थात परंपराओं को ढोने वाले गुरुओं के कारण।
प्रत्येक गुरु कुछ न कुछ सिखा रहा होता है
- कोई सिखाता है कुछ करो ना करो, लेकिन भजन कीर्तन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास अवश्य करो।
- कोई सिखाता है भले रिश्वत खा लेना, ब्याज खा लेना, घोटाले का कमीशन खा लेना। लेकिन भूलकर भी प्याज, लहसुन, मशरूम और मसूर की दाल मत खाना। क्योंकि इन्हें खाने से मन में विकार उत्पन्न होते हैं, सेक्स की इच्छा बढ़ती है जिसके कारण ईश्वर नाराज हो जाते हैं और स्वर्ग और मोक्ष का परमिट कैंसल हो जाता है।
क्या रिश्वत, कमीशन, ब्याज खाने से ये सारे पापी विकार उत्पन्न नहीं होते ? - कोई गुरु सिखाता है इंसान शाकाहारी प्राणी है क्योंकि उसके दांत और पंजे शेर, चीता या अन्य मांसाहारी जीव की तरह नहीं होते। उसकी आंखें गोल नहीं होती।
- कोई गुरु सिखाता है इंसान को अनाज ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि इंसान फलाहारी प्राणी है। अनाज तो पशु पक्षियों का भोजन है।
- कोई गुरु सिखाता है दूध और दूध से बने उत्पाद का सेवन नहीं करना चाहिए। क्योंकि दूध शिशुओं का आहार है। बड़े लोग यदि सेवन करेंगे तो गठिया, हैजा, चेचक जैसी महामारी हो सकती है।
व्यावहारिक ज्ञान देने वाले गुरुओं की प्रतिमाएँ बनाकर स्तुति-वंदन क्यों नहीं की जाती ?
जिनसे हमें व्यवहारिक, जीवनोपयोगी ज्ञान प्राप्त होता है, उन गुरुओं की प्रतिमाएं और मंदिर नहीं बनाए जाते।
जैसे कि केजी, प्राइमरी, सेकेंडरी, स्कूल के टीचर्स की, कॉलेज के प्रोफेसर्स, लेक्चरर्स, की, कोचिंग सेंटर के ट्यूटर्स, कोच की।
उन गुरुओं की प्रतिमाएं और मंदिर भी नहीं बनाए जाते जिन्होंने सिखाया कि मानव का जन्म ईश्वर/अल्लाह/गुरु/देवी-देवताओं की स्तुति – वंदन, भजन कीर्तन, रोज़ा नमाज, व्रत उपवास करते हुए माफियाओं और लुटेरों की चाकरी और गुलामी करने के लिए हुआ है।
देखा जाए तो इन गुरुओं का सर्वाधिक योगदान है मानव समाज को सुखी समृद्ध, कॉन्वेंट एड्यूकेटेड और अत्याधुनिक जोंबीज, भक्त और गुलाम बनाने में। फिर इनकी प्रतिमाएं और मंदिर क्यों नहीं बनाए जाते ?
गुरु तो कई प्रकार के होते हैं लेकिन मुख्यतः तीन ही सर्वाधिक सम्मानित हैं।

- प्रथम गुरु वे जिनसे हम कुछ सीखते समझते हैं। जैसे कि माता-पिता, भाई-बहन, मित्रमंडली, नर्सरी, स्कूल, कॉलेज के शिक्षक, ऑफिस का बॉस, Motivator Guru, Financial Guru….
- दूसरे गुरु वे होते हैं जिनका हम अनुसरण या नकल करते हैं। जैसे कि वे प्याज लहसुन नहीं खाते तो हम भी नहीं खाएंगे। वे खाकी निक्कर, काली टोपी पहनते थे, वे हिमालय में कुर्ता पाजामा पहनते थे, रेगिस्तान में कोरोना वाला सूट पहनते थे तो हम भी पहनेंगे। यानी वे जो कुछ करेंगे वैसा ही करेंगे। ऐसे गुरुओं के शिष्यों को अनुयायी (#Followers) कहते हैं।
- तीसरे प्रकार के गुरु वे होते हैं जो पूजनीय होते हैं। इनमें बहुत शक्ति होती है। ये मन की बात जान जाते हैं, मनोकामनाएं पूरी करते हैं, कोर्ट कचहरी के जंजाल से मुक्ति दिलाते हैं। ऐसे ही गुरुओं के लिए कहा गया है, गुरुर ब्रह्मा, गुरूर विष्णु, गुरुर देवो महेश्वरा। ऐसे गुरुओं के शिष्यों को भक्त कहते हैं।
लेकिन एक चौथे प्रकार के भी गुरु होते हैं। जो माफियाओं और लुटेरों के विरुद्ध जनता को जागृत करते हैं। अन्याय, अत्याचार, शोषण के विरुद्ध स्वयं भी आवाज उठाते हैं और दूसरों को आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते हैं । जैसे ठाकुर दयानन्द देव, आनन्दमूर्ति प्रभात रंजन सरकार, ओशो।
ऐसे गुरु ना तो पूजनीय होते हैं, ना अनुकरणीय। क्योंकि समाज और सरकारों को ऐसे गुरु जीते जी बर्दाश्त नहीं। उनके मरने के बाद भले उनके नाम पर धंधा जमा लें, लेकिन जीते जी उन्हें तिरस्कार भोगना पड़ता है। ऐसे गुरुओं के शिष्यों को देशद्रोही, पाकिस्तानी मुल्ला, धर्म का दुश्मन…..आदि कई उपाधियों से अलंकृत किया जाता है।
इसीलिए ऐसे क्रांतिकारी गुरुओं के शिष्यों ने भी समाज और सरकार की नजर में सम्मानित बने रहेंगे के लिए भजन, कीर्तन, भोजन, भजन, शयन और मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त जीते हुए सम्मानित जीवन जी रहे हैं। इनसे माफियाओं और देश के लुटेरों को कोई शिकायत नहीं। इनसे उन्हें भी कोई शिकायत नहीं जिन्होंने इनके गुरुओं का जीवन नर्क बना दिया था जीते जी।
~ विशुद्ध चैतन्य
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