मैं अपने शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य की जिम्मेदार खुद हूं

जहर मुक्त पर्यावरणीय प्रकृति की अद्भुत सौंदर्य में ही परमात्मा की जीवन की सार छुपी है।
परमात्मा के प्राकृतिक व्यवस्था में मानव स्वास्थ्य जीवन की कला छुपी है, इस शुद्ध वातावरण के कण-कण रहस्य छुपी है।
इसीलिए मैं फार्मा माफिया के दवाओं और डॉक्टरों पर आधारित नहीं हूं और न ही पूंजीवादी व्यवस्था की अनाजों पर आधारित हूं, मैं पूरी तरह अपनी प्राकृतिक जीवन से जुड़कर आत्मनिर्भर हो जाना चाहती हूं। क्योंकि मैं अपने शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और आध्यात्मिक स्वास्थ्य जीवन की खुद उत्तरदाई हूं।
दूसरों के द्वारा जहरीले उपजाई अनाज और दूसरों के द्वारा गलत विचारों और अनैतिकता पर बनाये अन्न मैं ग्रहण नहीं करती। ऐसी सोच और विचारों के एन से मैं अपने मन के कोष विकसित नहीं होने देना चाहते।
इसीलिए हमारा अनाज उगाना, और खुद से बना कर खाना मैं ज्यादा बेहतर समझते हूं, जिससे हमारा मन पूरी तरह स्वतंत्र रह सके। उस अनाज से हमारे मन पर किसी का दबाव
मैं अपने शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य की जिम्मेदार खुद हूं, मैं गुलाम नहीं, मैं प्रकृति मां के गोद में स्वतंत्र हूं, मुझे मेरे मौलिकता पर नाज है।
मैं तो इस प्रकृति की सौंदर्य के इस वातावरण में ही परमात्मा को पाती हूं, इन शुद्ध हवाओं के माध्यम से, वे हमारे सांसों में हर पल और हर कण-कण से होकर गुजर रहे होते हैं।
और हर पल प्रकृति की हर एक गीत समुद्र, नदी, झरनों की छप-छप, चिड़ियों की चहचहाहट, मेघों की गर्जन, पानी की रिमझिम, हवा की सनसनाहट, पेड़ के पत्तों की छनछनाहटो भरे संगीत में छुपे हैं, परमात्मा के रहस्य जो हमें कानों में आकर गुनगुना जाते हैं। उनकी होने का हर पल का यह एहसास बहुत ही खास और रहस्यमई शक्तियों से परिपूर्ण है।
प्रकृति की गीत संगीत ही हमें ऊर्जावान और प्रेरणादायक बनाती है। इस अमूल्य जीवन के मनुष्य होने की जो स्वतंत्रता और खुद का जो सम्मान है, वह हमें इसके माध्यम से प्रदान करती है। वही हमारी खुद के प्रति प्रेम है और यही हमारी मौलिकता है, जो इसे कोई हमसे छीन नहीं सकता।
किसी दूसरे के आशाओं पर आधारित खुशी, सुख, दुख हम उसे व्यक्ति के आशाओं में बांध, सिर्फ कठपुतली बना देती हैं और सभी हमें अपने उसे डोरे से कठपुतली की तरह खींचते हैं जो बहुत ही पीड़ादायक और दुखदायक होती है।
अब मैं किसी दूसरे पर आधारित नहीं होना चाहती, इसीलिए अब मैं पूरी तरह स्वतंत्र हूं। चाहे लोग हंसे, उपहास करें, हमारे प्रति गलत सोचे, पागल समझे, अब से मैंने उधार होना छोड़ दिया है। अब मैं दूसरों की मानकर, जैसा दूसरी चाहते हैं वैसे ही रहने की चेष्टा में संलग्न नहीं रहना चाहती। बल्कि जिसमें मुझे खुशी और आनंद मिलती है। मैं दूसरों के जैसा नहीं बनना चाहती, मैं खुद के जैसा बनना ज्यादा पसंद करते हूं। जो हमारे अंदर परमात्मा समाहित है, वह जो कहता वह करना सबसे ज्यादा पसंद करती हूं।
इसलिए मैं स्वयं की मौलिकता पर किसी को अपनी अधिकार अब मैं जमने नहीं देती। मेरा स्वतंत्र जीवन प्रकृति की धरा में, एक चिड़िया जैसा है। मैं खुद की मालकिन हूं, उस परम सत्ता ने मुझे मुझसे खुद की मालकियत का हकदार जो दिया और यही मौलिकता हर एक जागरूक और चैतन्य व्यक्ति को मनुष्यत्व से शिवत्व में प्रतिष्ठित होने की जीवन की सार है।
दूसरों की अपेक्षाओं की गुलामी से अच्छा है निरपेक्ष होकर स्वतंत्रता में जीना!
प्रकृति कि स्वतंत्र व्यवस्था में यह जिंदगी कितनी खूबसूरत है, यही सच्चाई लोगों को यह पता नहीं है!
पर आज के भेड़ों के समाज में लोग अपने जीवन की अपेक्षाओं में जी कर, अपने जीवन के हर एक रिक्तता भरने में लगे हैं, धन, दौलत, शोहरत,मकान, पैसा, पद प्रतिष्ठा के पहुंचने में लगे हैं। और खुद के मालिकाना हक या मौलिकता को दूसरे पर थोपने में लगे हैं
और जागरूक और चैतन्य व्यक्ति इस प्रकृति की स्वर्ग भरी धरा में चिड़ियों की तरह कहीं दूर आकाश के बादलों में उड़ने में लगे हैं। और अपनी मौलिकता लिए परम सत्ता में समाहित हो कहीं दूर उड़ जाना चाहते हैं।
सरिता प्रकाश🙏✍️🥰💚🐦🐛🦆🦋🐞🐧🦚🦉🐜🐝☘️🕊️🦜💧🌴🦩🌳🕷️🦂🌱