कई बार इन्सानों से अपनापन नहीं मिल पाता पशु-पक्षियों से मिल जाता है

अक्सर हम सुनते हैं परिचितों से कि आप तो अपने हैं कोई गैर थोड़े ही हैं ?
लेकिन अपने और अपने में भी अंतर होता है। कई बार सगे=संबंधी भी अपने नही हो पाते और गैर अपने हो जाते हैं।
कई बार इन्सानों से अपनापन नहीं मिल पाता, पशु-पक्षियों से मिल जाता है।
तो अंतर क्या है अपना और अपना होने में और अपना कितने प्रकार का होता है ?
अपनापन मुख्यतः तीन प्रकार का होता है
पहला और सबसे प्रचलित अपनापन होता है साम्प्रदायिक अपनापन। इसके अंतर्गत संप्रदाय, समाज, पंथ, राजनैतिक पार्टियों के सदस्य और गुरुओं के अनुयायी, शिष्य आदि आते हैं। इनके सदस्यों का अपनापन तभी देखने मिलता है जब ईशनिन्दा या बेअदबी के नाम पर दंगा-फसाद करना हो, तोड़-फोड़ करनी हो, लूट-पाट करना हो, मोबलिंचिंग करनी हो, रैलियाँ निकालनी हों, वोट या चन्दा बटोरना हो। बाकी समय ये सब अजनबी बन जाते हैं। कोई भूखा मर रहा हो, किसी की भूमि माफिया छीन रहे हों….ये सारे गधे के सर से सिंग की तरह गायब हो जाते हैं।
दूसरे प्रकार का अपनापन देखने मिलता है व्यावसायिक जगत में। यदि आपके जेब में पैसा है, राजनैतिक पहुँच है या आप बिकाऊ हैं, तो इस जगत में बहुत से अपने मिल जाएँगे। लेकिन जिस दिन आपकी जेब खाली हुई, पहचान गुम हुई….सारे अपने गायब हो जाएँगे।
तीसरे प्रकार का अपनापन ऐसा होता है, जिसे सबसे कम महत्व दिया जाता है। वह है प्रेम से उपजा अपनापन। इस प्रकार के अपनापन में माता-पिता का संतान के प्रति अपनापन, किसी पशु या पक्षी का इंसान के प्रति अपनापन या इसके विपरीत, प्रेमी-प्रेमिका का परस्पर अपनापन। इसी अपनापन पर मेरा यह लेख आधारित होगा, क्योंकि यही ऐसा अपनापन है, जिसे सबसे अधिक उपेक्षित किया गया है।
क्यों प्रेम पर आधारित अपनापन सर्वाधिक उपेक्षित हो गया आज ?
शायद इसका प्रमुख कारण रहा इंसान का अपनी जड़ों से उखड़ जाना। आज इंसान के पास जड़ों के नाम पर केवल साम्प्रदायिक, जातिवादी लेबल मात्र रह गया है। आज संयुक्त परिवार लुप्त हो गया जिसके कारण समाज भी लुप्त हो गया। संयुक्त परिवार समाज की इकाई हुआ करता था और जब संयक्त परिवार ही नहीं रहा तो समाज कहाँ से टिका रह सकता था।
समाज लुप्त हुआ तो जड़ें भी उखड़ गयीं और जब जड़ें ही नहीं रहीं, तो व्यक्ति शहरी चिड़ियाघरों में सुंदर सा पिंजरा लेकर रहने लगा। पिंजरों में रहने के कारण प्रेम भी व्यापार बन गया। और प्रेम जब व्यापार बन गया तो अपनापन भी व्यापार बन गया। अब अपनापन स्वार्थ और लाभ पर आधारित हो गया।
स्वार्थ और लाभ पर आधारित अपनापन का जन्म हुआ विवाह से। क्योंकि विवाह का आधार प्रेम ना होकर व्यापारिक और राजनैतिक सम्बन्ध हो गया। स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम पनपने से पहले ही परिवार और समाज सतर्क हो जाता है। हर संभव प्रयास किया जाता है कि प्रेम न पनपने पाये। और अब तो स्थिति यह हो गयी है कि इंसान प्रेम और वासना का अंतर ही भूल गया।
तो प्रेम विहीन विवाह से जन्मी संतान भी स्वार्थी और वैश्य मानसिकता की होगी। वह भी जब प्रेम करने निकलेगी, तो स्वार्थ और लाभ को महत्व देगी। इसलिए इन्सानों में जो अपनापन देखने मिलता है, वह शुद्ध व्यापारिक अपनापन होता है। लाभ हो तो अपने हो, लाभ ना हो तो गैर हो गए।
प्रेम पर आधारित अपनापन स्वार्थ रहित होता है। ऐसे अपनापन में दूसरों के हितों के कार्य कार्य करने की भावना प्रबल होती है। भले बदले में कुछ भी न मिले। जैसे एक माँ अपने बच्चों की देखभाल करती है। फिर चाहे वह पशु-पक्षियों की माँ हो, या इन्सानों की। सभी की माँ अपनी संतानों से एक समान प्रेम करती हैं और उनकी देखभाल करती है।
जब किसी से वास्तविक अपनापन हो जाता है, तब यदि वह कहीं दूर भी हो और उसे कोई समस्या या संकट हो, तो स्वतः ही आभास हो जाता है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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