अपना दीपक आप बनो: स्वावलंबन की राह

अपना दीपक आप बनो: स्वावलंबन की राह
“अपना दीपक आप बनो” – यह बात गौतम बुद्ध ने कही थी। इसका अर्थ है कि हमें अपने जीवन का मार्गदर्शन स्वयं करना चाहिए। ओशो ने भी यही संदेश दिया, “दूसरों के पीछे मत दौड़ो, स्वयं को जानो, स्वयं को समझो और अपने विवेक से निर्णय लो।” महात्मा गांधी ने कहा, “अंग्रेजों की गुलामी छोड़ो, स्वरोजगार अपनाओ और कुटीर उद्योगों पर ध्यान दो।” वहीं, राजीव गांधी ने इस विचार को आगे बढ़ाते हुए कहा, “मैं महात्मा गांधी के कुटीर उद्योग अभियान को पूरे देश में लागू करूंगा, ताकि हर परिवार अपने घर में अपनी पसंद का कार्य कर सके और आत्मनिर्भर बन सके।”
लेकिन अफसोस! इन महान व्यक्तियों के सपने अधूरे ही रह गए। जनता ने इनके विचारों को अपनाने की बजाय इनकी पूजा शुरू कर दी। जय-जयकार में नाचने लगी, और जो संदेश ये देना चाहते थे, वह सब समझ से परे हो गया।
मेरा उद्देश्य और संन्यास
मैं एक संन्यासी हूँ। मेरा काम नौकरी करना या व्यापार करना नहीं है। मेरा उद्देश्य है इस भटके हुए समाज को सही राह दिखाना, जो माफियाओं और देश के लुटेरों की भक्ति में डूबा हुआ है। मैं न तो किसी से कुछ छीनता हूँ, न ठगता हूँ, न लूटता हूँ और न ही लूटने में सहयोग देता हूँ। यदि कोई स्वेच्छा से मुझे कुछ दे दे, तो ठीक; न दे, तो भी ठीक। लेकिन जो लोग मुझे कुछ नहीं देते, वे इतने दुखी हो जाते हैं मानो मैं उनकी मेहनत की कमाई या कमीशन छीन रहा हूँ।
यदि बुद्ध भी नौकरी करते…
सोचिए, अगर बुद्ध भी नौकरी या व्यापार में लगे होते, तो क्या वे माफियाओं और लुटेरों का विरोध कर पाते? शायद नहीं। वे भी आज के कई तथाकथित साधु-संतों की तरह चाकरी और गुलामी करने को मजबूर होते। शायद वे भी कहते कि “फलाने नेता या पार्टी को जिताओ, तो 30 रुपये में डॉलर, 30 रुपये में पेट्रोल मिलेगा; काला धन वापस आएगा, सड़कें सोने की बनेंगी और हर खाते में 15-15 लाख रुपये आएंगे।” लेकिन यह सब केवल कोरे वादे ही होते।
घर पर साबुन बनाना: एक छोटा कदम
आप में से कितने लोग घर पर साबुन बनाते हैं? साबुन बनाना उतना ही आसान है जितना चाय बनाना। जिसे चाय बनाना आता है, वह साबुन भी बना सकता है। जरूरी सामग्री आसानी से उपलब्ध है, ऑनलाइन मंगवाई जा सकती है।

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महंगे साबुन खरीदने की बजाय घर पर साबुन बनाकर आप अनावश्यक खर्च बचा सकते हैं। और अगर आप इसे अधिक मात्रा में बनाएं, तो यह एक कुटीर उद्योग बन सकता है। जैसा साबुन चाहिए, वैसी सामग्री चुनें और शुरू हो जाएं।
लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं करते?
फिर भी हम ऐसा नहीं करते। क्यों? क्योंकि हमने डिग्रियाँ बटोरी हैं सिर्फ नौकरी करने के लिए। फिर उसी व्यवस्था को कोसते हैं जो हमें नौकरी देती है। उद्योगपतियों और पूंजीपतियों पर शोषण का आरोप लगाते हैं, लेकिन नौकरी के लिए उनके पास ही जाते हैं। गांधी को गरियाते हैं, बुद्ध को कोसते हैं, ओशो को बुरा कहते हैं, कांग्रेस को गालियाँ देते हैं, लेकिन फिर भी उन्हीं के पास नौकरी मांगने जाते हैं जो देश को लूट रहे हैं। और जब नौकरी मिल जाती है, तो मेरे जैसे संन्यासियों को ताने मारते हैं कि “मुफ्त का खा रहे हो, हराम का खा रहे हो, और हमें देश को लूटने वालों का सहयोगी बता रहे हो।”
नौकरी का दबाव और मानवता
अगर आप अपने बच्चों को सिर्फ नौकरी करने के लिए पैदा कर रहे हैं, तो यह मूर्खता और मानवता के खिलाफ है। हर किसी पर नौकरी का दबाव बनाना गलत है। हाँ, जो शूद्र प्रवृत्ति के होंगे, वे नौकरी ही चुनेंगे, क्योंकि उनकी क्षमता उससे आगे नहीं जाती। चाहे वे ब्राह्मण या वैश्य कुल में जन्म लें, चाहे कितनी भी डिग्रियाँ जुटा लें, चाहे उन्हें देश का राजा ही बना दिया जाए, वे नौकरी ही करेंगे। यहाँ तक कि अमेरिका या चीन की नौकरी भी उन्हें स्वीकार होगी।
अंतिम विचार
“अपना दीपक आप बनो” का मतलब है आत्मनिर्भरता। गांधी का स्वरोजगार, बुद्ध का स्वविवेक और ओशो का आत्मज्ञान – ये सब हमें एक ही दिशा दिखाते हैं। लेकिन हम दूसरों की गुलामी में ही खुश हैं। सोचिए, क्या आप सचमुच बदलाव चाहते हैं, या सिर्फ कोसने में ही समय बिताना चाहते हैं?
~ विशुद्ध चैतन्य
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