स्वयं को जानने का समय नहीं, क्योंकि भेड़चाल में दौड़ रहे हैं सब

यदि भेड़चाल में न दौड़ो, तो समाज, सरकार और परिवार की नजर में निकम्मा, कामचोर, मुफ्तखोर। और दौड़ों तो स्वयं से ही अजनबी बन जाओ और भूल जाओ कि तुम स्वयं क्या हो और क्यों हो ?
सारी व्यवस्था ऐसी बना दी गयी है कि इंसान स्वयं को जानने समझने के लिए समय ही ना निकाल पाये। और जो भी काम इंसान कर रहा है भेड़चाल में, वह सब करने के बाद अंत में पाएगा क्या ?
यही कि मरने के बाद चार लोग याद करेंगे का आश्वासन।
लेकिन क्या मरने के बाद चार लोग वास्तव में याद रखेंगे ?
पहली बात तो यह कि कोई याद नहीं रखेगा यदि आपके नाम से किसी की राजनीति नहीं चमकती, किसी का धंधा नहीं चमकता या किसी को कोई आर्थिक या अन्य किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं होता।
स्वतन्त्रता सेनानियों को पूजने वाले नेता, पार्टियां और समाज स्वयं माफियाओं और देश के लूटने और लुटवाने वालों के सामने नतमस्तक रहते हैं। क्योंकि पूजने का ढोंग करने से सत्ता मिलती है, पैसा मिलता है जय-जयकार मिलता है।
गुरु भी पूजे जाते हैं तो केवल इसलिए, क्योंकि उनके नाम से बहुत से लोगों का धंधा चल रहा है, बहुत से लोगों को रोजगार मिल रहा है, बहुत से लोगों का पेट और परिवार पल रहा है। और यदि गुरु की मार्किट वेल्यू कुछ न होती, गुरु का नाम बिकाऊ न होता, तो गुरुओं को भी वैसे ही भुला दिया जाता जैसे अपने साधारण माता-पिता को भुला देते हैं लोग।
स्वयं को जानो या गुरु, ईश्वर, अल्लाह को मानो ?
जितना ही हम दूसरों की तरफ भागते हैं स्वयं को जानने के लिए, वे उतना ही अपरिचित बना देते हैं स्वयं से। आप माता-पिता से आशा करते हैं कि वे आपको सही राह दिखाएंगे, लेकिन वे स्वयं भटके हुए होंगे तो सही राह कैसे दिखा सकते हैं ?
वे आपको किसी गुरु के पल्ले बांध देंगे या फिर आप स्वयं किसी को गुरु बना लोगे। फिर होगा क्या ?
गुरु आपको वही सिखाएगा जो उसने सीखा अर्थात परम्पराओं को ढोना और वही सब कुछ जो मानव को स्वयं से दूर करने के लिए बनाए गए प्रपंच हैं। अर्थात पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास, कर्मकाण्ड, भजन-कीर्तन, स्तुति-वंदन। और यह सब करने वाले आज तक स्वयं को ही नहीं जान पाये, तो भला ईश्वर/अल्लाह और धर्म को कैसे जान सकते हैं ?
तो गुरु भी आपको भेड़ों की झुंड का एक सदस्य बनाकर छोड़ देता है, फिर उसे आपसे कोई मतलब नहीं रहता। आप जी रहे हो, या मर रहे हो उसे कोई लेना देना नहीं। आधुनिक गुरु और किसी स्कूल के शिक्षक में कोई अंतर नहीं होता, दोनों ही आपको स्वयं से अपरिचित बनाते हैं। वे नहीं चाहेंगे कि आप आजीवन स्वयं को जान पायो। वे तो यही चाहेंगे कि आप स्वयं को भूल कर उनके द्वारा निर्धारित गुरु, ईश्वर/अल्लाह की स्तुति-वंदन में खोये रहो।
सारा सामाजिक, धार्मिक और सरकारी तंत्र इसी प्रयोजन में रहता है कि व्यक्ति स्वयं से परिचित न होने पाये। सभी यही चाहते हैं कि स्वयं को कभी मत जानो, केवल दूसरों के द्वारा थोपे गए गुरु, ईश्वर, अल्लाह को मानो अन्यथा नास्तिक या अधार्मिक कहलाओ।
क्योंकि यदि व्यक्ति स्वयं से परिचित हो गया, तो उसे भयभीत नहीं किया जा सकेगा। फिर उसे मौत का भय नहीं दिखाया जा सकेगा। फिर उसे धर्म और जातिवाद के नाम पर नहीं लड़ाया जा सकेगा, फिर उसे धर्म के नाम पर अधर्म और अधर्मियों का साथ देने के लिए नहीं उकसाया जा सके। अर्थात एक जागृत व्यक्ति या स्वयं से परिचित व्यक्ति को भेड़चाल में नहीं हाँका सकेगा।
Follow Your Own Path अपना मार्ग स्वयं चुनो

क्यों किसी दूसरे का अनुसरण करना या अनुयाई बनना चाहिए ?
जब उनका अनुसरण करने वाले अनुयाइयों की भीड़ से भरे संगठन, सम्प्रदाय, समाज आज तक माफियाओं और लुटेरों का विरोध करने योग्य नहीं हो पाया ?
जब जीना ही है आंख, कान, मुंह बंद रखकर “मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धांत पर, तो फिर भीड़ से दूर एकांत में अपने अंदाज में क्यों ना जीएं ?
स्वाभाविक है ऐसे प्रश्नों का उठना, जब सारे गुरु, पंथ, संगठन, सम्प्रदाय केवल गुलामों की भीड़ ही तैयार कर रही है ?
ऐसी भीड़, जो राजनैतिक या साम्प्रदायिक उत्पातों के लिए तो सड़कों पर निकल आए, लेकिन माफियाओं, लुटेरों और अधर्मियों के विरुद्ध मुँह भी ना खोले और आँख, कान, मुँह बंद रखकर “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीए ?
बुद्ध का पंथ हो, या नानक का या ओशो का या किसी अन्य का, सभी आज माफियाओं और देश के लुटेरों के सामने नतमस्तक हुए पड़े हैं। जो अभी आर्थिक रूप से समर्थ है, राजनैतिक दलों से जुड़ा हुआ है, या किसी भी धार्मिक आध्यात्मिक संगठन या संस्था से जुड़ा हुआ है, वह आज माफियाओं के विरुद्ध मुँह खोलने में घबराता है। लेकिन अपने गुरुओं के पराक्रम और साहस की कथाएँ तो ऐसे सुनता है मानो इन्हें मौका मिला होता, तो अपने गुरु से भी बड़ा बलिदान कर दिये होते।
लेकिन कर क्या रहे हैं आज ?
स्तुति-वंदन, कीर्तन भजन और जय-जय, माफिया पूरा देश बर्बाद कर रहे हैं, देश के नागरिकों को सरेआम बेशर्मी से लूट रहे हैं, लेकिन विरोध में आवाज ही नहीं निकलती।
तो फिर प्रश्न वही की जब माफियाओं और लुटेरों के सामने नतमस्तक रहते हुए जय-जय ही करना है, तो फिर गुरुओं की आवश्यकता क्यों है किसी को ?
यह काम तो पशु-पक्षी भी बिना किसी गुरु के, बिना कोई धार्मिक ग्रंथ पड़े सहजता से कर लेते हैं।
निष्कर्ष
आज हमें ऐसे गुरुओं और परंपराओं की आवश्यकता नहीं, जो केवल “मैं सुखी तो जग सुखी” पर जीना सिखाते हों, जो कायर और भीरु बनाते हों। क्योंकि ये सब गुरुओं से सीखने की चीज नहीं है, ये सब तो प्राणी स्वतः सीख जाता है माफियाओं की चाकरी, गुलामी और भक्ति करते-करते।
स्वयं को जानने की यात्रा शुरू करें।
क्योंकि जब तुम स्वयं को जान जाओगे, तभी जीवन का वास्तविक अर्थ समझ पाओगे।
~ विशुद्ध चैतन्य
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