अल्बर्ट आइंस्टीन ने सर्जरी से इंकार कर दिया था

अल्बर्ट आइंस्टीन ने सर्जरी से इंकार कर दिया था यह कहकर कि “मैं जाऊंगा जब मैं जाना चाहूँगा। अप्राकृतिक रूप से समय को बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है। मैं अपने हिस्से का योगदान दे चुका हूँ और अब मैं शांतिपूर्ण ढंग से विदा लेना चाहता हूँ।”
जीवन के अंतिम पड़ाव में भी यदि वासना, कामना, लोभ, महत्वाकांक्षा से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि मोक्ष या मुक्ति नहीं मिलने वाली आपको। यदि जीवन के अंतिम पड़ाव में भी और जीने की इच्छा बची हुई है, तो फिर आपके मुक्ति के मार्ग बंद हो चुके हैं। अर्थात आपको भटकना ही पड़ेगा और बार-बार जन्म लेना पड़ेगा।
मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा है, जो कब्रों में पैर लटकाये बैठे हैं, फिर भी सत्ता, कुर्सी, पद, प्रतिष्ठा के लोभ से मुक्त नहीं हो पाये। बहुत से लोग तो ऐसे हैं, जो बिस्तर से हिल नहीं पा रहे लेकिन स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहे दुनियादारी के आडंबरों और बंधनों से।
और ऐसे लोग जब त्याग और बैराग की बातें करते हैं, सचमुच बहुत हंसी आती है। स्वयं से कुछ भी त्यागा नहीं जा रहा, लेकिन दूसरों को त्याग का पाठ पढ़ाते फिर रहे हैं।
मेरा मानना है एक आयु के बाद ऑपरेशन या किसी भी प्रकार के अप्राकृतिक विधि से अपनी आयु बढ़ाना, मोक्ष और मुक्ति के मार्ग में बाधक है। प्रकृतिक मृत्यु से श्रेष्ठ मृत्यु और कोई हो ही नहीं सकती। ऐसी मृत्यु जब आप स्वयं को समर्पित कर देते हैं ईश्वर को और आपकी आत्मा कहती है, ” हे ईश्वर अब ले चल मुझे ! बहुत जी लिया माफियाओं और देश के लुटेरों के गुलामों और चापलूसों की दुनिया में। अब मुझमें सामर्थ्य और साहस भी नहीं बचा माफियाओं और लुटेरों का विरोध करने का।”
~ विशुद्ध चैतन्य
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