दान का वास्तविक स्वरूप: भिक्षा, व्यवसाय या परमार्थ ?

आज के समय में दान का स्वरूप बदल गया है। अधिकतर लोग दान के नाम पर या तो भीख देते हैं या फिर इसे एक व्यवसाय की तरह देखते हैं। लेकिन क्या दान का यही वास्तविक स्वरूप है ?
दान और मानसिकता का संबंध
- यदि आप भिखारी समझकर दान देते हैं, तो आप शूद्र मानसिकता के हैं और वास्तव में भीख ही दे रहे हैं।
- यदि दान करते समय लाभ-हानि, योग्य-अयोग्य का विचार करते हैं, या बदले में कुछ अपेक्षा रखते हैं, तो आप वैश्य मानसिकता के हैं और दान को व्यापार बना रहे हैं।
- यदि दान करते समय श्रद्धा से सिर झुका हुआ है, और आप ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हैं कि उन्होंने आपको दान देने योग्य बनाया, तो आप क्षत्रिय मानसिकता के हैं।
- यदि दान करते समय आप दान पाने वाले के प्रति आभार प्रकट करते हैं, तो आप ब्राह्मण मानसिकता के हैं।
इसलिए दान करने से पहले अपने मनोभावों का अवलोकन करें और समझें कि आप किस मानसिकता से प्रेरित होकर दान कर रहे हैं।

समाज में दान की गिरती गुणवत्ता
आज के समाज में कई लोग दान लेने वालों से ईर्ष्या करते हैं, लेकिन स्वयं को उनसे श्रेष्ठ और कर्मवादी मानते हैं। यह नहीं समझते कि ईर्ष्या हमेशा अपने से श्रेष्ठ व्यक्तित्वों से होती है, न कि समकक्ष या निम्न व्यक्तित्वों से।
कई लोग दान इस आधार पर करते हैं कि भविष्य में उन्हें इसका कोई लाभ मिलेगा या नहीं। यही कारण है कि बड़ी-बड़ी कंपनियाँ, राजनेता, और व्यवसायी राजनीतिक पार्टियों और योजनाओं में दान करते हैं ताकि उनका फायदा हो। ऐसे लोग वास्तव में दान नहीं कर रहे, बल्कि बीमा (इंश्योरेंस) और निवेश (इनवेस्टमेंट) कर रहे हैं।
समाज और सरकार की वैश्य-शूद्र मानसिकता
आज समाज और सरकारें मुख्य रूप से वैश्य और शूद्र मानसिकता से संचालित हो रही हैं। यही कारण है कि दान भी स्वार्थ आधारित आडंबर और व्यवसाय मात्र बनकर रह गया है। जब विवाह तक प्रेम पर नहीं, बल्कि स्वार्थ और व्यवसाय पर आधारित हो गए हों, तो ऐसी संतानों से निर्मित समाज और सरकारें भी स्वार्थी ही होंगी। यह वही सरकार है जो जनता के टैक्स से बनी सड़कों तक को नीलाम कर देती है और मानती है कि प्रत्येक नागरिक उनका सेवक और गुलाम है।
दान का वास्तविक स्वरूप और परमार्थ
पहली बार 1987 में St. Martin’s Press द्वारा प्रकाशित Linda Goodman की पुस्तक “Star Signs: The Secret Codes of the Universe” के “Money and Karma” खंड में Linda धन को एक ऊर्जा के रूप में देखती हैं और इसके उपयोग को संतुलित करने की बात करती हैं। वह सुझाव देती हैं कि धन को जीवन के विभिन्न पहलुओं में बाँटा जाए, जैसे आत्मिक विकास, शारीरिक जरूरतें, दूसरों की मदद, और भविष्य की सुरक्षा। उनका दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार है:
“Money, like all energy, must flow in harmony with the universe. Divide it wisely—not just for yourself, but for the soul’s growth, the body’s needs, the aid of others, and the security of tomorrow.”
“Divide your income into four equal parts:
One for your soul’s charity,
One for your earthly needs,
One for those you cherish,
And one for the future’s promise.”
भारतीय शास्त्रों में दान और धन के संतुलन का उल्लेख
सनातन धर्म में भी दान को चार भागों में विभाजित करने की परंपरा रही है:
- एक भाग परिवार की अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए।
- एक भाग परिवार के मनोरंजन, पर्यटन और उपहारों के लिए।
- एक भाग भविष्य निधि के रूप में।
- एक भाग परमार्थ सेवा, सहयोग और दान के लिए।
भारतीय धर्मग्रंथों में भी धन के संतुलित उपयोग का उल्लेख मिलता है:
- मनुस्मृति (4.229-230): “धनं भुञ्जीत धर्मेण नित्यं वित्तं निवेशयेत्।
अर्थं चातिव्ययं कुर्याद् अर्थं चातिसंञ्चयम्॥”
(धन को धर्मपूर्वक उपभोग करना चाहिए, धन को निवेश करना चाहिए, अधिक व्यय नहीं करना चाहिए और अधिक संचय भी नहीं करना चाहिए।) - महाभारत (शांति पर्व 247.22): “अर्थश्च धर्मश्च मिथः सुदीर्घौ उभावपि तिष्ठतः परस्पराश्रयौ हि।”
(अर्थ (धन) और धर्म एक-दूसरे पर आधारित हैं, वे परस्पर जुड़े हुए हैं और संतुलन से ही लंबे समय तक टिकते हैं।) - श्रीमद्भागवत महापुराण (7.14.8): “गृहेषु याति संश्रित्य पुंसां संपत्तिरिष्टदा।
धर्मार्थकाममोक्षेषु न वित्तं याचतां यथा॥”
(धन का उपयोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए करना चाहिए, न कि केवल अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए।)
यही दान का वास्तविक उद्देश्य है और यही सनातन धर्म का आधार। दान करें, लेकिन सही भाव से, बिना किसी स्वार्थ और प्रतिफल की अपेक्षा के।
~ विशुद्ध चैतन्य
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