पूंजीवादी व्यवस्था के दौर में हमारे अपने नष्ट हो गए और प्रकृति भी नष्ट हो गयी

मैं सरिता जर्मनी से 1970-75 के दशक की भारतवर्ष की बात है। हमारा एक बड़े परिवार में हमारा जन्म हुआ था। उस दरम्यान हमने जो देखा और जो समझा वह बताने जा रही हूं।
क्या आप सब को भी याद है, जब हमारे गांव में शादियां हुआ करती थी तो बड़े-बड़े बांस की टोकरियों में हर रिश्ते नाते में मिठाई और आम आते थे? क्या अब भी आपके गांव परिवार में ऐसे न्योते आते हैं?
और जब भी कोई रिश्तेदार दूर से आते थे तो गुलाब जामुन या मिठाई मिट्टी के हांडी में लेकर आते थे, क्या आपको याद है?
हमारे यहां तो हमारी दीदी के ससुराल के रिश्ते नाते जब भी गांव से आते, या हमारी मां के रिश्ते से या चाचा दूसरे गांव से आते तो हमारे गांव कुछ न कुछ लेकर आते थे ऐसे सुसंपन्न लोग थे क्योंकि उसे समय हर एक परिवार का एक सदस्य ही कमाने वाला होता था।
पर आज तो सभी भीखमंगे हैं, सब डिग्री धारी बन, बड़े-बड़े व्यवसाय केंद्र बना कर भी, ऊंची सुसज्जित जब परिवार ही न रहे। वह एकता ही न रही, तो फिर इन रूपयो और पैसों और धन और दौलत का क्या मूल्य?
आज तो उसे पूंजीवादी व्यवस्था के दौर में हर परिवार जर्जर हो रहा, हर समाज खंडहर हो रहा, सभी कमा रहे पूरी दुनिया कमा रही, पता नहीं पैसे की हर व्यक्ति की आमदनी जा कहां रही है, फिर भी मानव समाज की भूख ऐसी है कि खत्म होने के नाम ही नहीं है, इस पर कोई किसी का विचार विमर्श नहीं!
जहां सब कुछ लुट गया हो, उस परिवार समाज के प्रति प्रेम सुसंस्कृति और निस्वार्थ सेवा ही जब न रहे, वह दृष्टि ही न रही वहां सब कुछ लुट चुका है तो हे मानव तुम किस दौर में लगे हो?
और जब भी फलों के सीजन होते थे, तो रिश्ते नाते से बड़े-बड़े टोकरियों में बोरी में आम आते थे, कटहल आते थे, और नारियल बोरीयों में आते थे, क्या अब भी आते हैं, अब तो सब बेचने में लगे हैं?
चाहे छोटा परिवार हो या बड़ा परिवार हो, हर किसी के यहां कोई भी अगर आता तो दिल खोल कर मिठाई और फल टोकरियों भर के लेकर आते थे। सपरिवार मिलकर आनंदित होते थे, और बाहर के भी हर एक बच्चों को इंतजार होता था कि कोई रिश्ते नाते आए तो हमें भी कुछ ना कुछ जरूर मिलेगा और मिल जाता था, क्योंकि गांव परिवार सब हम एक होते थे।
और हम सब उन सभी रिश्तेदार आए मेहमान को घेर कर बैठ जाते थे, बहुत ही खुशी का माहौल होता था। जब कोई आता था गांव में तो खुशी का ठिकाना न होता था। आसपास के सभी लोगों को पता हो जाता था, कि कोई किसी के घर में आया है, पूरे गांव में चर्चा का विषय बन जाता था।
मुझे तो लगता है आज आधुनिकता और भौतिकता भरी जिंदगी में लोग इतने गुम हो गए हैं, उन्हें तो शायद याद भी न होगा कि एक ऐसे आनंदित दौर भी थे?
पर मैं तो रहती हूं जर्मनी में मुझे तो हर एक दृश्य याद है, और उन्हीं सुंदर मीठी यादों के सहारे मैं यहां जी रही हूं। नहीं तो आज के आधुनिकता भरी जिंदगी में खोखलेपन के सिवाय कुछ भी नहीं है।
सभी पैसे के दौड़ में भाग रहे हैं, रोजमर्रा की जिंदगी में दौड़ लगा रहे हैं, पता नहीं लोगों को कहां जाना है? कितना कामना है? और कितना लेकर जाना है?
मैंने तो दौड़ ही खत्म कर दी है, मैंने अपनी सरकारी नौकरी को रिजाइन कर दिया है। मेरे पति जो जर्मन है, उन्हें भारतीय नाम मिला है प्रकाश। हम दोनों ने मिलकर जो बनाए फॉर्म उसी में पूरी तरह आत्मनिर्भर स्वतंत्र व्यवस्था बना लिए हैं। अपने घर की साल भर की सब्जियां हम दोनों मिलकर उगा लेते हैं। जमीन के अंदर अंडरग्राउंड कमरे में 6 महीने की ठंडी में स्टोरेज कर लेते हैं। और बिल्कुल स्वतंत्र जीने की व्यवस्था है हमारी हम किसी भी पूंजीवादी व्यवस्था के माल और बाजार पर आधारित नहीं है। हम बाहर से कोई भी सब्जी नहीं खरीदते। अगर खरीदने भी है तो छोटे-छोटे किसानों से खरीदते हैं जो प्राकृतिक खेती करते हैं, और जो अपने हाथों से बहुत प्रेम से कुटीर उद्योग के आधार पर प्रोडक्ट बनाते हैं उनसे हम रहते हैं, उन्हें उनका सम्मान करते हैं।
प्रकाश तो जब 19-20 साल के थे तब से वह अपना फॉर्म खरीदना चाहते थे, पर उनके पिता हमेशा टालते रहे। लेकिन हम दोनों ने मिलकर अपना छोटा सा फॉर्म खरीद लिया अब 15-16 सालों से मिलकर, काफी मेहनत कर अपने हाथों से परमात्मा की बगिया को सजा दिया है।
अब उसे छोड़कर कहीं जाने को मन ही नहीं करता। बहुत ही प्रेम से सजाया है अपने परमात्मा की बगिया को, उसे स्वर्ग में तब्दील कर दिया है हम दोनों ने मिलकर।
हमने 18 सालों से पूंजीवादी शैतानी व्यवस्था के सारी चीजों को धीरे-धीरे काफी पहले ही फैशन की दौड़ छोड़ चुकी थी, मॉल में जाना, सुपर मार्केट में जाना, नई मॉडल कपड़े खरीदना मैंने तो 18 साल पहले ही छोड़ दिया था।
इसीलिए आप सब को भी कुछ समझ में आ रहा होगा, कि किस तरह पूंजीवादी व्यवस्था ने पूरी मानवता को किस तरह जाल में फांस गुलाम बना रखा है। आपका खाना, पहनना, ओढ़ना, नहाने की सारी चीज पूंजीवादी व्यवस्था जहरीले बना बनाकर सर्व कर रही। यह साबुन, सर्फ, शैंपू रासायनिक पदार्थ से दिमाग धीमी हो रही लोगों की।
एक साइलेंट जहर दी जा रही, खाने के माध्यम से, कपड़ों के माध्यम से, फास्ट फूड के माध्यम से, और कॉस्मेटिक के माध्यम से बहुत सारी जहरीले रसायन दी जा रही धीमी जहर। जिससे लोगो की शारीरिक, स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य से लोग परेशान रहे, उनकी बौद्धिक क्षमता कम हो रहे।
उसकी वजह से लोगों में जागरूकता कम रहे, पूंजीवादी सरकारों के षड्यंत्र को, उनकी बौद्धिक क्षमता समझ न बढ़ सके। इसलिए बहुत सारी चीजों के द्वारा धीमी जहर दी जा रही।
पूरी मानवता को विभेदों में बांट दिया गया है, कोई एक होना नहीं चाहता, सभी दुखी हैं पर अकेले रहना चाहते हैं। कोई एक दूसरे से जुड़ना नहीं चाहता न ही कोई एक दूसरे को सहयोग करना चाहता है। आज सब एकता खत्म हो गए इस पूंजीवादी सरकारी व्यवस्था द्वारा, निस्वार्थ सेवा सहयोग करने की भावना परिवार, समाज में खत्म कर दी गई हैं।
यह जो दौर चल रहा है, यह मानसिक गुलामी की दौर चल रही है। शायद इसे जागरूक लोग देख पा रहे होंगे, कि किस तरह पूंजीवादी शैतानी सरकारी व्यवस्था मानवता को अपनी गुलाम बना चुकी है?
पूंजीवादी शिक्षा द्वारा बड़े-बड़े कंपनियों में नौकरी देकर, युवा वर्ग के बच्चों को पूरी तरह गुलाम बनाकर रख दिया है। लोग आईपीएस, इंजीनियरिंग, यूपीएस की तैयारी कर रहे। लग रहा कि हम सरकार की मदद कर रहे हैं, और सरकार हमारी मदद कर रही, पर उनकी आंखों का धोखा है।
यह पूंजीवादी सरकारी शैतानी व्यवस्था एक दूसरे की मिली भगत अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र आधारित गुलाम शिकार बनाने की मैन्युफैक्चरिंग करने की पद्धती है। न कि मानव स्वास्थ्य, मानव सुरक्षा और मानव कल्याणकारी बनाने की कोई पद्धति है?
यह पुलिस, डीएसपी, इंजीनियर, आर्मी, सैनिक, डॉक्टर, साइंटिस्ट यह सारे पूंजीवादी सरकारी व्यवस्था के गुलाम है। न कि यह स्वतंत्र प्राकृतिक व्यवस्था आधारित जीवन है?
यह सारा षड्यंत्रकारी मानवता को गुलाम बनाकर, अपनी उल्लू सीधा कर, युद्ध के आधार पर मानवता की मानसिकता को ध्वंस्थ करने की साजिश ही, पूंजीवादी शैतानी सरकारी व्यवस्था आधारित जीवन है।
और पूंजीवादी सरकारी नौकरियों के द्वारा सारी युवा वर्ग को, पूरी तरह मानसिक गुलाम करने की आदि बना चुका है। इसीलिए हर एक व्यक्ति सरकारी नौकरी चाहता है या बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करना चाहता है। यह सारे लोग स्लीव कैटेगरी में आते हैं।
मानव जाति क्या सिर्फ गुलाम होने के लिए पैदा हुआ है, जरा इस पर सोच विचार करें?
क्या मानव जाति इस धरा पर इसी उद्देश्य के लिए उसका जन्म हुआ है कि एक युवा वर्ग पूरी जीवन पढ़ाई-लिखाई कर डिग्री लेकर कहीं न कहीं उनके गुलामी करें?
क्या वह अपनी असीम क्षमताओं को विकसित नहीं कर सकता, खुद को अपनी प्राकृतिक प्रतिभा और कलाओं के द्वारा स्वतंत्र आत्मनिर्भर बन कमाने का जरिया नहीं बन सकता?
इसी को पूंजीवादी शैतानी व्यवस्था ने हर युवा वर्ग के बच्चों की क्षमताओं को यूज कर रही, छोटे-छोटे बच्चों को उसकी प्रतिभा को विकसित न कर उसे रट्टा मार पढ़ाई के दौर में लगा दिया जाता है। हर छोटे-छोटे बच्चों में बहुत सारी प्रतिभाएं होती है, उसे पनपने नहीं दिया जाता। यह पूंजीवादी शिक्षा मानव जाति को गुलाम की मैन्युफैक्चरिंग कर रहा।
न कि छोटे-छोटे बच्चों की प्रतिभाओं को विकसित किया जा रहा, हर बच्चों में असीम क्षमताएं होती है। हर बच्चा अपने संस्कार अनुकूल इस धरती पर बहुत सारी चीज लेकर इस धरा पर आता है, न कि खाली हाथ आता है?
पर उसके सामाजिक पूंजीवादी सरकारी शिक्षा तंत्र और मूर्ख तंत्र द्वारा, उस हर बच्चे की असीम क्षमताओं को दबा दिया जाता है, भेड़ों के शिक्षाधारी, डिग्रीधारी अशिक्षित समाज में।
इसीलिए समाज का और परिवार का पहला कर्तव्य है। हर बच्चे को उसकी प्रतिभा और उसके गुणों को बढ़ाना और जागृत करना मां-बाप और उसे परिवार के परिवेश को बनाने का भी बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। उसकी असीम क्षमताओं को प्रेरित कर, उसकी ऊर्जा को बढ़ाना, पहला उत्तरदायित्व बनता है।
कुमार विश्वास की नीचे दिए वीडियो को पूरा सुने! बहुत अच्छे-अच्छे उदाहरण दे रहे हैं, इनकी एक-एक शब्द को समझें कि किस तरह टीवी सीरियल और कोई भी एडवरटाइजमेंट के माध्यम से, समाज को, परिवार को बर्बाद कर रहा, एक घरोंदे की तरह धीरे-धीरे तोड़ रहा, किस-किस तरह पूंजीवादी व्यवस्था की साजिश चल रही है। और हर एक बच्ची बच्चे में जहर घोला जा रहा है टीवी सीरियल न्यूज़ के माध्यम से, धीमी जहर इंजेक्ट की जा रही है।
यह टीवी सीरियल न्यूज़ मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक धीमी जहर है। इससे परिवार और समाज के स्वास्थ्य को बचाएं सड़कों पर निकाल कर फेंक दें यह टीवी। विदेश में तो हम लोगों ने 15-20 साल पहले है फेंक चुके हैं और यहां के जागरूक और चैतन्य लोग कोई टीवी सीरियल न्यूज़ नहीं देखते। बल्कि प्रकृति की सुंदर परिदृश्य को देखते हैं, उनके साथ घुल मिलकर एक हो रहे। पेड़ों को सुरक्षित कर रहे हैं हर जीव जंतु लुप्त हो रहे उसे सुरक्षित कर रहे, और किसी भी तरह की जहरीले रासायनिक पदार्थ से बनी चीजे, उसे नहीं कर रहे, बल्कि अपने हाथों से छोटी-छोटी कुटीर उद्योग बना रहे।
मानव स्वास्थ्य हेतु प्रकृति से जुड़ना बहुत जरूरी है, और प्रकृति के साथ घुल मिलकर एक होना बहुत जरूरी है, वही जीवन है। प्रकृति के साथ जुड़कर, प्राकृतिक के स्वास्थ्य को बनाकर, मानव धन और मानव स्वास्थ्य कमाना बहुत जरूरी है, उसी से जुड़ा है मानवता का उद्धार न कि पूंजीवादी सरकारी व्यवस्था द्वारा?
सरिता प्रकाश 🙏🌱💧🐝🐞🐛

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