स्वास्थ्य वर्धक सब्जियों से अधिक महत्वपूर्ण उपकरण हो गये !
कृषि में वैज्ञानिक, तकनीकी प्रगति और रसायन विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि मानव समाज की थाली में कम से कम हरी सब्जियां रखना संभव बना दिया है।
🛑चूँकि लोगों की थाली में सब्जियाँ कम इसलिए हो गई हैं, कि लोगों ने घर, कार, मोटरसाइकिल, वॉशिंग मशीन, मोबाइल फोन, टीवी, शादी के लिए अपने बैंक ऋण का भुगतान करना संभव हो गया है।
🟢जर्मनी जैसे कई देशों में प्रति वर्ष केवल एक ही ऋतु की फसल होती है। लेकिन फिर भी हम अपने खेत की सब्जी साल भर स्टोरेज कर यूज करते हैं। हमें बाजार से खरीदने की जरूरत बहुत कम पड़ती।
लेकिन भारतवर्ष जैसे देश में जहां 4 ऋतुओं की फसल तक संभव है, विरोधाभास तब होता है, जब लोग बहुत कम सब्जियां खाते हैं। क्योंकि ज्यादा रोटी और चावल सिर्फ डायबिटीज को बढ़ावा देते हैं।
क्योंकि भारतवर्ष विश्व में पढ़ा लिखा डिग्री धारी सब्जियों की बागवानी लगाना नहीं चाहता। शर्म आती है, छोटा काम है, मेहनत का काम है, और वह तो उनके लिए मजदूरी वाला काम है। जिसके कारण जहरीले अनाज खा रहे हैं पर वह मंजूर है?
भारतवर्ष के चार ऋतुओं में इतनी अनाज और इतने नाना प्रकार की सब्जियों के होने के बावजूद भी लोग थाली में सब्जी की मात्रा जीरे की तरह लेते हैं। टेक्निकली इतनी मजबूत हो गए हैं फिर भी सब्जियां इतनी महंगी हो गई है,कि थाली भरकर सब्जी खा नहीं सकते।
इतने पढ़ लेख डिग्री धारी बन, ऐसे अशिक्षित और गुलाम हो गए हैं कि स्वास्थ्यादायक अनाज खाने की रुचि ही नहीं रही, जैसे उनका टेस्ट ही खत्म हो गया है?
कारण जितने भी लोगों के गांव में खेत हुआ करते थे, और पूरे परिवार के परिवार गांव में किसान हुआ करते थे। सबों ने अपनी पूर्वजों की जमीनी को महत्वपूर्ण नहीं समझा। उसे बेचकर डिग्री धारी अशिक्षित बन गए, और शहरों के कंक्रीट के जंगलों में शिफ्ट कर गए।
फिर क्या वहां तो साग सब्जी खरीद कर खानी पड़ेगी, किराए का मकान के भाड़े देनी पड़ेगी, शहरों की हर चीज गांव से ही आती है, हर एक अनाज का दाना उसी गांव से आता है, चावल दाल, गेहूं, और सब्जी शहरों की कंक्रीट के जंगलों तक आते-आते महंगा हो जाता है।
इसीलिए उन अनाजों के दाम लोगों को महंगा लगता है, और शहरों तक आते-आते हर एक अनाज को होल्डिंग करने के लिए, डबल ट्रिपल जहर डालने पड़ते हैं उसकी सुरक्षा के लिए, सब्जियां ताजी रखने के लिए। जिसके कारण शहरी भेड़ों के समाज को गांव के कंपेयर में ज्यादा बीमारीयों के शिकार होने पड़ते हैं।
शहरों में प्रदूषित वातावरण में रहना पड़ता है, जहर युक्त अनाज महंगे खरीद कर खाना पड़ता है, शहरों के पानी साधारण नल से पी नहीं सकते, उसके लिए अमेरिकन नई-नई कंपनियों के फिल्टर लगाने पड़ते हैं फिर छान कर पीते हैं।
ले देकर शहरों अशुद्ध पानी पीना पड़ता है, अशुद्ध वातावरण में रहना पड़ता है, अशुद्ध जहरीले अनाज खाने पड़ते हैं, शहरों की भीड़ भाड़ के कमाई की दौड़ में जहरीले फास्ट फूड भी खाने पड़ते हैं, फिर वैसी कमाई और उस कमाने की दौड़ का क्या फायदा?
उसे कंक्रीट के शहरी जंगल में जहां सब कुछ लूटपुट जाए, जहां अपना कोई हो ही न। उसे चमक धमक के कंक्रीट के शहरी बाजार में, जब हमारा स्वास्थ्य दायक जीवन ही नष्ट हो जाए तो फिर क्या फायदा कमाने की?
और गांव में जब तक थे पूर्वजों की घर में तो वहां किराए नहीं लगते थे, अपने मकान में ठाठ बांट से रहते थे। शुद्ध वातावरण में जीते थे, शुद्ध नदियों की कुओं के पानी पीते थे, अपने खेत की अनाज होते थे, और वह भी प्राकृतिक अनाज होते थे। स्वास्थ्यादायक होते थे, जिसके कारण फार्मा माफियाओं पर आधारित नहीं होते थे।
बल्कि गांव में आसपास में पड़ोस में एक प्रेम भरा समाज हुआ करता था। जहां सभी अपने थे, हर गांव के बड़े, छोटे बुजुर्ग हमारे चाचा और भैया हुआ करते थे, हर एक बड़े छोटे, बुजुर्ग स्त्री चाची, भाभी, बुआ, मौसी, और बहन हुआ करती थी।
उसे हर एक छोटे से गांव में हर एक संप्रदाय से एक अपनी अपना तो भरा परिवार हुआ करता था। हर परिवार के बच्चों में आपसी कोई मतभेद नहीं हुआ करते थे, बल्कि आपसी प्रेम सद्भावना और एकता हुआ करती थी।
लेकिन आज वह सब कुछ धीरे-धीरे खोते चले गए, कहां चले गए? आज हर एक व्यक्ति अपने आप में अकेला महसूस करता है क्यों? सोचिए विचारीयें।
आज भी वैसी व्यवस्था बनाई जा सकती है, थोड़ी बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, सबों को मिलकर अपने-आप ने स्थिति के अनुसार जमीन लेकर, या अपने-अपने छतों पर भी मिलकर किचन गार्डनिंग लगाई जा सकती है।
और आपस में मिलकर अलग-अलग वैराइटीज की सब्जिया लगाई जा सकती है, फिर आपस में मिल बांठकर स्वास्थ्य दायक अनाज अपने परिवार बच्चों के लिए खाई जा सकती है।
सरिता प्रकाश 🙏🌱