पूंजीवादी गुलामी जीवन में ऊंट के मुंह में जीरा की तरह जहरीले सब्जियां!

पूंजीवादी गुलामी जीवन में ऊंट के मुंह में जीरा की तरह जहरीले सब्जियां!
भारतवर्ष की आज की महंगाई के जमाने में, जितनी आग आज लगी है, वह शायद ही कभी आग लगी थी?
क्योंकि हर पुरुष और महिला को आज पढ़ लिख डिग्रीधारी बन इंजीनियर, डॉक्टर साइंटिस्ट, डीएम डीएसपी, आईएस, CEO, मैनेजर, की गुलामी भरी नौकरी जो करनी है।
अरे खाने में कुछ भी चलेगा जहर भी चलेगा, जेनेटिक मिनिफाइड भी चलेगा, पेस्टिसाइड, हरबेस्टिसाइड, इंसेंटिसाइड और यूरिया भी सब चलेगा। खाने में पैसे थोड़ी न खर्च करने उससे बचा कर भौतिकता और आधुनिकता जो पूर्ण करनी है?
क्योंकि हर एक युवा और युवती शादी के लड़की के लिए या लड़की के लिए जेवर जेवरात से लादे जा रहे, लहंगा, कंगन, कान की कुंडल, लड़की के लिए सोने की चेन अंगूठी, मोटरसाइकिल, गाड़ी, शहरों के कंक्रीट के जंगलों में 20 मंजिल पर फ्लैट, या अपना जमीन खरीद कर अपना प्लॉट में अपना मकान फिर शानों-शौकत की जिंदगी की तैयारी में लग जाते हैं।
लेकिन अपने दिनचर्या की जिंदगी में जरा झांक कर देखें, आप उस शहरी जिंदगी में बन ठन कर रह कर अपने स्वास्थ्य के लिए खाते क्या है, वही जहरी हवा, वही अशुद्ध जहरीली पानी, वही अशुद्ध जहरीले अनाज, फिर कमाते क्यों है?
पर आज की महंगाई के ₹250 किलो के जमाने में, आज पढ़ा लिखा डिग्री धारी सरकारी नौकरी करने वाला और बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करने वाला *ढाई सौ ग्राम टमाटर,* भी खरीद के खाने की औकात नहीं।
और आज हर एक गुलाम समाज ऊंट के मुंह में जीरे की तरह अपनी थाली में हर परिवार सब्जियां खा रहा।
इसीलिए कमाने निकल थे, न कि अच्छे स्वास्थ्यादायक अनाज खाएंगे?
😀
तो फिर खाओ सोना, चांदी, गंहना, मकान, पैसा बैंक बैलेंस बचाकर लोहा लक्कड़ खाओ?
आज की महंगाई भरी गुलामी के जमाने में भी, हम तो प्राकृतिक जीवन शैली अपनाकर, कृषि से जुड़कर स्वतंत्र भरपूर अनाज खाते है। हमारे यहां तो टमाटर की भरमार है हर एक सब्जी की भरमार है। हमारे खेतों में तो महंगाई डायन की आग लग नहीं सकती😇😀
हम तो जर्मनी के ठंडी प्रदेश में रहकर भी, अपने परमात्मा की कृपा दृष्टि से, सिर्फ तीन महीना ही खेती से सारी सब्जियां अब जाकर रख लेते है फिर भी हम साल भर सब्जियां स्टोरेज कर, हम भरपूर सब्जियां बिना केमिकल युक्त खाते हैं।😀😇
और आप पंजीवादी सरकारी व्यवस्था के गुलाम 5 किलो चावल और अनाज और नौकरी के आधार पर गुलाम है। भारतवर्ष में साल भर खेती होने की संभावनाएं हैं, साल भर सब्जी खाने की संभावनाएं हैं। पर पूंजीवादी सरकारी गुलामी भरी नौकरी करने के बावजूद भी लोग, चावल, दाल, रोटी के कोने में जीरे की तरह सब्जी खाते हैं। इसीलिए बीमारियों में फार्मा माफिया की विटामिन की कैप्सूल्स और जहरीली दवाई चने की भूंजा की तरह कहते हैं।😀😂😂
जब भी हम भारतवर्ष आते थे तो किसी भी परिवार में अगर हम खाने की और नजर अगर दौड़ाते थे तो हमने देखा और पाया कि अच्छे खासे भौतिकता और आधुनिकता से भरे सुसंपन्न परिवार भी सब्जियां चटनी की तरह चम्मच भर ही सर्व करते हैं।😂😂
क्योंकि शहरी कंक्रीट के जंगलों में जो रहते हैं वहां तो जीवन को बैलेंस करना पड़ेगा, नहीं तो दिनदहाड़े मारे जाएंगे। इसीलिए शहरी भेड़ों के समाज में बचकर चलना पड़ता है। क्योंकि कब कोई खड्डे में गिर जाएगा पता नहीं।😀
और ऊपर से शहरी बाबू और शहरी मैम सूट बूट, घाघरा, चुन्नी, सिल्क की साड़ियां, जेवरात पहनकर, प्लॉट और फ्लैट में शिफ्ट होकर, ऊंट के मुंह में जीरे की तरह जहरीली सब्जी खायेंगे, पर महंगी-महंगी गाड़ियों में पेट्रोल तो अच्छी भरवाएंगे, और महंगी महंगी मोबाइल इलेक्ट्रॉनिक चीजें, पर अपने पेट में और दिमाग में कचड़े ही भरने के आदि है ये गुलाम भेड़ों का समाज।😀😂
इसीलिए शहरी कंक्रीट के जंगल वासी ढाई सौ ग्राम टमाटर, आधा किलो लौकी, आधा किलो खीरा, आधा किलो भिंडी, आधा किलो परवल, आधा किलो पालक, एक बैगन, 2 किलो आलू, और ऊपर से सब्जी वाले से फ्री में धनिया और हरी मिर्च दान में भीख ले लेते है। उससे ज्यादा शहरी भेड़ों की समाज को नसीब हो ही नहीं सकती?😂😂
फिर दो हफ्ते की छुट्टी, परिवार चलाने वाला पुरुष कहता है उसे घर का कि इतनी जल्दी सब्जी खत्म हो गई? अभी-अभी तो सब्जी आया था, कितना सब्जी तुम लोग बनाते हो और खाते हो? तो ऐसे शहरी भेड़ों के समाज की नापी तौली जिंदगी कटती है।
बल्कि अपना गांव के खेत जमीन प्रॉपर्टी बेचकर, बेहीजक शहर में तब्दील हो गए, पता भी नहीं चला कि महंगाई डायन किस तरह नोच खायेगी। अब कैसे गुजारा करेंगे, उन कंक्रीट के शहरी जंगलों में?
और ऊपर से जहरीली उगाई गई अनाजों को खाकर उन महंगी सब्जियों से हर एक शहरी व्यक्ति टीवी, कैंसर, हार्ट अटैक, थायराइड, प्रेशर ऐसी तमाम बीमारियों के शिकार हो रहे। फार्मा माफियायें मुंह मांगे रकम लेकर लूट रहे हैं और भेड़ों के समाज कम कर, अपने परिवार का इलाज करा कर उन्हें भर रहे, साथ ही उन्हें पाल रहे।
“जब घर कच्चे थे, तो लोगों के दिल भी सच्चे थे, दिल मुलायम और भावपूर्ण होते थे…
और आज घर पत्थर के, तो लोगों के दिल भी चट्टानों की तरह कड़े, शुष्क और पत्थर के!
इसीलिए आज अगर किसी के फोन भी आते हैं तो बस स्वार्थवश ही आते हैं, लोग इतने शुष्क और सुप्त हो गए हैं कि किसी को किसी के लिए नहीं पड़ी है। बस जरूरतों में तो अपने नजर आते हैं, क्योंकि सबको बस अपनों की पड़ी है!
पर जब गांव में हमारे घर कच्चे थे तो सभी अपने सच्चे थे, अच्छे थे और निस्वार्थ प्रेमी थे, क्योंकि हम बच्चे थे।
पर आज न जाने कहां खो गए वो दिन, जब हम बच्चें थे, सब मिल बांट कर, साथ बैठ कर खाते थे और सबको हर परिस्थिति में भी निस्वार्थ अपनाते थे!
उसे गांव में सब मिलकर भरपूर सब्जियां उगाते थे, और भरपूर अनाज खाते थे, और बहुत ही स्वास्थ्य दायक जिंदगी जीते थे।”
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सरिता प्रकाश🙏✍️🌱