मंदिरों का औचित्य ही क्या है जब करना माफियाओं की गुलामी ही है ?

आजकल समाज में एक विचित्र परिपाटी बन चुकी है, जिसमें लोग पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और धार्मिक अनुष्ठान तो करते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में उनकी नैतिकता और आस्थाएँ सवालों के घेरे में हैं। इस लेख में हम उसी मानसिकता और जीवनशैली का विश्लेषण करेंगे जो मंदिरों, तीर्थ स्थलों, पूजा विधियों और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति लोगों की श्रद्धा के पीछे छिपी होती है।
हम सभी जानते हैं कि हमारे समाज के विभिन्न वर्ग जैसे सरकारी और गैर सरकारी कर्मचारियों, पेंशनभोगियों और व्यापारियों की ज़िंदगी में एक सामान्य पैटर्न है। अधिकांश इन वर्गों के लोग अपने कार्यों और गतिविधियों को ईमानदारी से करने की बजाय अपनी कर्मों के दोषों से मुक्ति पाने के लिए धार्मिक स्थलों पर जाते हैं, पूजा करते हैं, व्रत रखते हैं और उम्मीद करते हैं कि इन कर्मों से उनके पाप कट जाएं और उन्हें ईश्वर की कृपा प्राप्त हो।
समाज की उस मानसिकता का विश्लेषण:
किसी भी सरकार या निजी क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति और व्यापारी जो अपने देश को लूटने और उसे लुटवाने में सक्रिय भागीदार होते हैं, कभी भी अपने कर्मों से मानसिक शांति नहीं प्राप्त कर पाते। वे जानते हैं कि उन्होंने जिन कार्यों में भाग लिया है, वह पापपूर्ण हैं। इसलिए, धार्मिक अनुष्ठानों की ओर भागने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है, क्योंकि उन्हें विश्वास होता है कि अगर वे धार्मिक कार्य करेंगे तो ईश्वर उन्हें क्षमा कर देंगे और वे स्वर्ग, जन्नत, या मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे।
इसके बावजूद, यही लोग समाज के अन्य जरूरतमंद लोगों की मदद करने में असमर्थ होते हैं। यद्यपि वे अपने पापों को कम करने के लिए दान करते हैं, तीर्थों में चढ़ावा चढ़ाते हैं और महंगी पूजा करते हैं, लेकिन जब यह बात आती है कि वे किसी वास्तविक व्यक्ति की मदद करें, जो उनके आस-पास हो और जिनकी मदद करना पूरी तरह से निःस्वार्थ हो, तो ये लोग पीछे हट जाते हैं। वे समझते हैं कि ऐसे कार्यों से उन्हें कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं होगा।
धर्म का अपव्यवहार:
इनमें से बहुत से लोग अपनी परोपकारिता को दिखाने के लिए सोशल मीडिया पर रील्स बनाते हैं, ताकि वे दूसरों को दिखा सकें कि वे कितने अच्छे इंसान हैं। परंतु जब असली जीवन में मदद करने का समय आता है, तो यह दिखावा बेमानी हो जाता है। वे जरूरतमंदों की मदद करने के बजाय केवल एक छवि बनाने में व्यस्त रहते हैं।
क्या यह स्थिति केवल व्यक्तिगत स्वार्थ और दिखावा नहीं है? क्या हम अपने आसपास के लोगों की वास्तविक मदद करने के बजाय केवल अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए धार्मिक कर्मों का पालन कर रहे हैं? क्या हमें धार्मिकता और नैतिकता का पालन करने की आवश्यकता है या सिर्फ अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए पूजा पाठ और दान करना सही है?
असली उद्देश्य और समाज में बदलाव:
जब हम मंदिरों में जाते हैं, तीर्थ स्थलों पर चढ़ावा चढ़ाते हैं या किसी धर्म गुरु के पास जाते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि इन सब का उद्देश्य सिर्फ अपनी आत्मा को शुद्ध करना नहीं होना चाहिए। हमें अपने आस-पास के समाज को भी सुधारने की आवश्यकता है। असल धर्म तो यह है कि हम अपने कार्यों से, अपने विचारों से, अपने समाज से सच्चाई, ईमानदारी और दयालुता को फैलाएं।
हमें समझना होगा कि अगर हम अपने आस-पास के जरूरतमंदों की सहायता नहीं कर सकते, तो हम किसी भी पूजा पाठ या मंदिर के चढ़ावे से किसी भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। हमें अपने कर्मों से बदलाव लाने की आवश्यकता है, न कि केवल धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से। अगर हम समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो यह हमसे शुरू होगा।
निष्कर्ष:
इसलिए, सवाल यह उठता है कि मंदिरों का औचित्य क्या है जब हम माफियाओं की गुलामी के रूप में जीवन जी रहे हैं? जब हम धर्म का उपयोग केवल अपनी गल्तियों को छिपाने के लिए कर रहे हैं, तब क्या हम सचमुच ईश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? इस लेख के माध्यम से यही संदेश देना है कि धार्मिक कर्मों का उद्देश्य केवल आत्मा की शुद्धि और समाज में अच्छाई फैलाना होना चाहिए, न कि केवल अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए।
हमें अपने कार्यों और आस्थाओं को वास्तविकता में बदलने की आवश्यकता है, ताकि हम न केवल अपने जीवन में बदलाव ला सकें, बल्कि अपने समाज को भी बेहतर बना सकें।
~ विशुद्ध चैतन्य
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